Category Archives: कला-साहित्‍य

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक व्यंग्य कविता – सरकार और कला

बेपनाह दौलत खर्च कर दी जाती है
अट्टालिकाएँ और स्टेडियम बनवाने पर।
ऐसा करते हुए
सरकार एक युवा चित्रकार की तरह काम करती है,
जो भूख की परवाह नहीं करता,
अगर नाम कमाने के लिए ऐसा करना पड़े।
वैसे भी, सरकार जिस भूख की परवाह नहीं करती
वह है दूसरों की भूख, जनता की भूख।

कहानी – जियोवान्नी समाजवादी कैसे बना / मक्सिम गोर्की

मैं वैसे ही नंगा और बुद्धू पैदा हुआ था, जैसे तुम और बाकी सभी लोग। जवानी में मैं अमीर बीवी के सपने देखता रहा और फौज में जाकर इसलिए ख़ूब पढ़ाई करता रहा कि किसी तरह अफसर बन जाऊँ। मैं तेईस साल का था जब मैंने यह अनुभव किया कि दुनिया में ज़रूर कुछ गड़बड़-घोटाला है और उल्लू बने रहना शर्म की बात है!

अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के अवसर पर एक कविता

खिलने दो क्रोध के फूल
बिखरने दो अंगारे
कुचल दो सख़्ती से उस अन्याय को
भोगती आयी हैं जिसे सब औरतें
और दलित वर्ग सारे।

कविता – क्रान्ति की अलख जलाएँ

चलो मिलकर क्रान्ति की मशाल जलाए,
हर टूटे हुए, बुझे हुए दिल में रोशनी जगाऐं
वो जो डरे हुए हैं, सहमें हुए हैं
इस जालिम समाज, खूनी महफिल से, किन्तु
जिनकी आंखों में नक्शा है, दुनिया बदलने का
दिल में जज्बा है बुराई से लड़ने का
उन बिखरे हुए मोतियों को धागे में पिरोएं

तराना – फैज़ अहमद फैज़

लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के
कोह-ए-ग़रां
रुई की तरह उड़ जायेंगे

कविता – तुम्हारी चुप्पी को क्या समझा जाए!

जब जिंदा रहने की शर्त
कमरतोड़ मेहनत के बराबर हो जाए
तब तुम्हारी उपस्थिति को किस तरह
आँका जाये?
तुम्हारी चुप्पी का क्या अर्थ
निकाला जाये
क्योंकि चुप रहने का भी मतलब
होता है
तटस्थ होता कुछ भी नहीं!

कविता – य’ शाम है / शमशेर बहादुर सिंह

ग़रीब के हृदय
टँगे हुए
कि रोटियाँ
लिये हुए निशान
लाल-लाल
जा रहे
कि चल रहा
लहू-भरे गवालियार के बजार में जलूसः
जल रहा
धुआँ-धुआँ
गवालियार के मजूर का हृदय।

अतीत की कड़वी यादें, भविष्य के सुनहरे सपने और भय व उम्मीद की वो रात-मक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ का अंश

पहले खुद पढ़ूँगा और फ़िर दूसरों को पढ़ाऊँगा। हम मजदूरों को पढ़ना चाहिए। हमें इस बात का पता लगाना चाहिए और इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारी जिन्दगी में इतनी मुश्किलें क्यों हैं।

कविता – मुनाफ़ाखोर व्यापारी की प्रार्थना

भाइयो इस महँगाई के दौर में एक तरफ जब लोग कुपोषण से बीमार पड़ रहे हैं, भूख से मर रहे हैं, लोगों का जीना दुश्वार हो गया है वहीं दूसरी तरफ सरकारी गोदामों में सैकड़ों टन अनाज़ सड़ाया जा रहा है। एक तो सरकार हम गरीबों के दिये टैक्स के पैसों से अमीर किसानों से महँगा अनाज खरीदती है,दूसरी ओर उस अनाज को गोदामों में सड़ा कर जमाखोरों को फायदा पहुँचाती है। ऐसे में एक जमाखोर क्या सोच रखता है, मुनाफा कमाने का क्या-क्या तरीका सोचता है, मैं अपनी कविता के जरिए बिगुल के पाठकों को बताना चाहता हूँ

गीत – समर तो शेष है / शशि प्रकाश

पराजय आज का सच है
समर तो शेष है फिर भी
उठो ओ सर्जको !
नवजागरण के सूत्र रचने का समय फिर आ रहा है
कि जीवन को चटख गुलनार करने का समय फिर आ रहा है।