Category Archives: कला-साहित्‍य

कविता – साम्प्रदायिक फसाद / नरेन्‍द्र जैन

हर हाथ के लिए काम माँगती है जनता
शासन कुछ देर विचार करता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
अपने बुनियादी हक़ों का
हवाला देती है जनता
शासन कुछ झपकी लेता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
साम्प्रदायिक फसाद शुरू होते ही
हरक़त में आ जाती हैं बंदूकें
स्थिति कभी गम्भीर
कभी नियंत्रण में बतलाई जाती है
एक लम्बे अरसे के लिए
स्थगित हो जाती है जनता
और उसकी माँगें

कविता – हम हैं ख़ान के मज़दूर / मुसाब इक़बाल

ज़मीन की तहों से लाये हैं हीरे
ज़मीन की तहों से खींचे खनज
घुट घुट के ख़ानों में हँसते रहे
मुस्कुराये तो आँसू टपकते रहे
ज़मीन की सतह पर आता रहा इंक़लाब
ज़मीन तहों में हम मरते रहे, जीते रहे
शुमाल ओ जुनूब के हर मुल्क में हम
ज़मीन में दब दब के खामोश
होते रहे जान बहक़, लाशों पर अपनी कभी
कोई आँसू बहाने वाला नहीं सतह ए ज़मीन पर हम
एक अजनबी हैं फक़त ज़मीन के वासियों के लिये!

साम्‍प्रदायिकता पर दोहे / अब्दुल बिस्मिल्लाह

हाट लगा है धर्म का भक्त जनन को छूट।
जान माल सब है यहाँ लूट सकै तो लूट॥
राजा पण्डित मौलवी सब मिलि कीन्हीं घात।
जीभ निकाले आ रही महाकाल की रात॥
जूठी हड्डी फेंककर औ’ कुत्तों को टेर।
अपने-अपने महल में सोये पड़े कुबेर॥
घर-आँगन मातम मचे धरती पड़े दरार।
ना चहिए ऐसे हमें कलश और मीनार॥

कविता – हिन्दू या मुसलमान के अहसासात को मत छेड़िये / अदम गोंडवी

ग़लतियाँ बाबर की थीं जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
है कहाँ हिटलर हलाकू जार या चंगेज़ खाँ
मिट गये सब कौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग मिलजुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ
दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये।

कविता – दंगा / गोरख पाण्डेय

इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की

कविता – डॉक्टर के नाम एक मज़दूर का ख़त / बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट A Worker’s Speech to a Doctor / Bertolt Brecht

तुम्हारे पास आते हैं जब
बदन पर बचे, चिथड़े खींचकर
कान लगाकर सुनते हो तुम
हमारे नंगे जिस्मों की आवाज़
खोजते हो कारण शरीर के भीतर।
पर अगर
एक नज़र शरीर के चिथड़ों पर डालो
तो वे शायद तुम्हें ज्यादा बता सकेंगे
क्यों घिस-पिट जाते हैं
हमारे शरीर और कपड़े
बस एक ही कारण है दोनों का
वह एक छोटा-सा शब्द है
जिसे सब जानते हैं
पर कहता कोई नहीं।

कविता : कचोटती स्वतन्त्रता / नाज़िम हिकमत Poem : A Sad State Of Freedom / Nazim Hikmet

तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,
अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते;
तुम स्वतंत्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
तुम स्वतंत्र हो।

ग़रीबों में सन्तोष का नुस्ख़ा / लू शुन

दुनिया में प्राचीन काल से ही शान्ति और चैन बनाए रखने के लिए ग़रीबी में सन्तोष पाने का उपदेश बड़े पैमाने पर दिया जाता है। ग़रीबों को बार-बार बताया जात है कि सन्तोष ही धन है। ग़रीबों में सन्तोष पाने के अनेक नुस्खे तैयार किये गये हैं, लेकिन उनमें में कोई पूरी तरह सफल साबित नहीं हुआ है। अब भी रोज़-रोज़ नये-नये नुस्खे बनाये जा रहे हैं। मैंने अभी हाल में ऐसे दो नुस्खों को देखा है। वैसे ये दोनों भी बेकार ही हैं।

सिलेसियाई बुनकरों का गीत / हाइनरिख़ हाइने Song of the Silesian Weavers / Heinrich Heine

‘एक अभिशाप उस ख़ुदा के लिए जिससे हम रोते रहे
भूख से मरते रहे और जाड़ों में खुले सोते रहे,
उम्मीदें बाँधीं, दुआएँ कीं, पुकारा उसे व्यर्थ ही,
वह हँसा हम पर, उपहास किया, बढ़ाया और दर्द ही।
रहे हम बुन, रहे हम बुन।

चार्टिस्टों का गीत / टॉमस कूपर Chartist Song / Thomas Cooper

एक समय वो आयेगा जब धरती पर
होगा आनन्द और उल्लास चहुँओर,
जब हत्यारी तलवारें ज़ंग खायेंगी म्यानों में,
जब भलाई के गीत गूँजेंगे, फ़ैक्ट्री में, खलिहानों में।