Category Archives: निजीकरण

दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के नेतृत्व में दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर पेपर लीक और भर्तियों में धाँधली के खिलाफ़ छात्रों-युवाओं का जुझारू प्रदर्शन!

इस देश के हुक्मरानों का अपनी न्यायपूर्ण माँगों के लिए शान्तिपूर्ण विरोध कर रहे आम छात्रों-युवाओं के प्रति रवैया फिर से साफ़ हो गया। ख़ासतौर पर भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान देश में बेरोज़गारी, परीक्षाओं में पेपर लीक और भर्तियों में भ्रष्टाचार पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुका है। प्रधानमन्त्री मोदी जी ने कभी इस बात पर गर्व किया था कि हमारा देश युवा आबादी का सबसे बड़ा देश है। लेकिन युवा आबादी के इस सबसे बड़े देश के युवाओं का भविष्य अँधेरे की गर्त में है। पिछले सात सालों के दौरान 80 से ज़्यादा परीक्षाओं के पेपर लीक हो चुके हैं। भर्तियों में होने वाला भ्रष्टाचार हम सबके सामने है। आरओ-एआरओ, यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा, बीपीएससी से लेकर हाल में नीट और यूजीसी नेट जैसी परीक्षाओं की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। इस पर भी मौजूदा शिक्षा मन्त्री धर्मेन्द्र प्रधान संसद में यह बयान देने की बेशर्मी कर रहे हैं कि भाजपा के कार्यकाल में एक भी पर्चा लीक नहीं हुआ है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाएँ भी आयोजित करने वाली एनटीए जैसी संस्था को बिना किसी सुव्यवस्थित ढाँचे के चलाया जा रहा है जिसका नतीजा यह है कि एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर अनियमितताएँ सामने आ रही हैं। एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली सभी परीक्षाएँ प्राइवेट एजेंसियों के माध्यम से करायी जा रही हैं।

एनटीए में पेपर लीक के लिए मोदी सरकार, प्रशासन और शिक्षा माफ़िया का नापाक गठजोड़ ज़िम्मेदार है

एक अनुमान के मुताबिक़ पिछले सात सालों में पर्चा लीक और परीक्षाओं में धाँधली की वजह से 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा छात्र प्रभावित हुए हैं और कई छात्र अवसाद और निराशा में आत्महत्या तक के क़दम उठा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर हो रही धाँधली के बाद अब तक मोदी सरकार और इसकी तमाम एजेंसियों ने जाँच के नाम पर केवल लीपापोती ही की है। हर बार ऐसी घटनाओं के बाद बयानबाज़ी और लफ्फाज़ी का दौर शुरू होता है। कुछ छोटे-मोटे कर्मचारियों, कुछ छात्रों को इसका ज़िम्मेदार ठहराकर पूरे मामले को ठिकाने लगा दिया जाता है और बहुत सफ़ाई के साथ असली अपराधियों को बचा लिया जाता है। यही वजह है कि मोदी सरकार के शासनकाल में अब तक इस मामले में न तो कोई बड़ी गिरफ़्तारी हुई है और न ही कोई कार्रवाई हुई है।

आज़ादी के 76 साल के बाद भी राजधानी के मेहनतकश पानी तक के लिए मोहताज

उपराज्यपाल और जल मन्त्री दोनों अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर दिल्ली में पानी की कमी का कारण जनसंख्या और झुग्गी-बस्तियों के विस्तार होने को बता रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर, अपनी नाकामी छिपाने के लिये ये दोनों ‘तू नंगा तू नंगा’ का खेल खेल रहे हैं और सारी समस्या का ठीकरा मेहनतकश जनता के सिर पर फोड़ रहे हैं, जो दिल्ली में सबकुछ चलाती है और सबकुछ बनाती है और जिसकी मेहनत की लूट के दम पर यहाँ के धन्नासेठों, नेताओं-मन्त्रियों और नौकरशाहों की कोठियाँ चमक रही हैं। भाजपा और आम आदमी पार्टी जनता की तकलीफ़ों के प्रति कितने सवेंदनशील हैं, ये तो साफ नज़र आ रहा है।

सामाजिक-आर्थिक विषमता दूर करने के कांग्रेस के ढपोरशंखी वायदे और मोदी की बौखलाहट

जनता से किये गये बड़े-बड़े ढपोरशंखी वायदे भारतीय बुर्जुआ चुनावी राजनीति और सम्‍भवत: किसी हद तक हर देश में पूँजीवादी राजनीति की चारित्रिक विशेषता है। लेकिन भारत में तो यह ग़ज़ब तरीके से होता है। पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक में हर प्रत्याशी अपने प्रतिद्वन्दी से बढ़कर ही वायदे करता है, चाहे उसका सत्य से कोई लेना-देना हो या न हो। 18वीं लोकसभा के चुनाव में भी इसी परिपाटी का पालन हो रहा है। मज़ेदार बात है कि ऐसे वायदे सत्तासीन पार्टी की तरफ़ से नहीं बल्कि विपक्ष की तरफ़ से ज़्यादा हो रहे हैं। सत्‍तासीन पार्टी के पास तो 10 साल के कुशासन के बाद किसी ठोस मुद्दे पर कोई ठोस वायदा करने की स्थिति ही नहीं बची है, तो मोदी सरकार बस साम्‍प्रदायिक उन्‍माद फैलाने वाले झूठ और ग़लतबयानियों का सहारा ले रही है। लेकिन ‘इण्डिया’ गठबन्‍धन ठोस मुद्दों पर बात अवश्‍य कर रहा है। लेकिन वायदे ऐसे कर रहा है, जो भारतीय पूँजीवाद की आर्थिक सेहत को देखते हुए व्‍यावहारिक नहीं लगते।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीस वर्ष

देश में एक ओर बढ़ता धार्मिक उन्माद, नफ़रत और ख़ौफ़ का माहौल और दूसरी ओर आसमान छूती महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बदहाली, ऐसा लगता है जैसे पूरे देश को क्षय रोग ने अपने शिकंजे में कस लिया है। सारी ऊर्जा, ताज़गी और रचनात्मकता पोर-पोर से निचोड़कर इसे पस्त और बेहाल कर दिया है। यह सच है कि भयंकर आर्थिक संकट के काल में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ने और पूँजीपतियों का हित साधने के लिए फ़ासीवाद का उभार होता है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने से पहले सब कुछ भला-चंगा था।

बन्द होती सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियाँ सरकार की मजबूरी या साज़िश?

किसी भी देश में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस देश की जनता के पोषण, स्वास्थ्य और जीवन स्तर का ख़याल रखे। सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की सरकारें लोगों के स्वास्थ्य का ख़याल रखने का दिखावा करती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह दिखावा भी बन्द होने लगा है। ख़ासतौर पर 1990 के दशक के बाद से सरकारें बेशर्मी के साथ जनता के हितों को रद्दी की टोकरी में फेंकती जा रही हैं। पिछले 20 साल में तो इस बेशर्मी में सुरसा के मुँह की तरह इज़ाफ़ा हुआ है और यह इज़ाफ़ा लगातार अधिक होता जा रहा है।

सरकारी उपक्रमों को कौड़ियों के मोल पूँजीपतियों को बेचने की अन्‍धाधुन्‍ध मुहिम

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने वर्ष 2021-22 के बजट में सार्वजनिक संसाधनों की अन्धाधुन्‍ध नीलामी की योजना पेश की है। महँगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त आम जनता को राहत देने के लिए बजट में कुछ भी ठोस नहीं है। बदहाल अर्थव्यवस्था और ऊपर से कोरोना की मार झेल रही जनता को राहत देने वाली कुछ बची-खुची सरकारी योजनाओं के लिए बजट बढ़ाने के बजाय इनके लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में भारी कटौती की गयी है।

उत्तर प्रदेश में रोडवेज़ कर्मचारी भी अब निजीकरण के ख़ि‍लाफ़ आन्‍दोलन की राह पर

उत्‍तर प्रदेश में योगी आदित्‍यनाथ की सरकार जहाँ एक ओर प्रदेश को हिन्‍दुत्‍व की साम्प्रदायिक-फ़ासीवादी प्रयोगशाला बनाने पर उतारू है वहीं दूसरी ओर वह सार्वजनिक उपक्रमों का धड़ल्‍ले से निजीकरण करने की योजना को तेज़ रफ़्तार से लागू करने की बेशर्म कोशिशें भी कर रही है। प्रदेश में बिजली के निजीकरण की उसकी योजना भले ही कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता की वजह से खटाई में पड़ गयी है, लेकिन अन्‍य विभागों में निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है।

आगरा में विद्युत वितरण के निजीकरण का अनुभव

उत्तर प्रदेश में मई 2009 में तत्कालीन मायावती सरकार के कार्यकाल में कानपुर और आगरा में बिजली के वितरण के निजीकरण का निर्णय लिया गया था। बिजली कर्मचारियों के विरोध के चलते कानपुर की बिजली वितरण की व्यवस्था निजी हाथों में नहीं सौंपी जा सकी। लेकिन आगरा में यह व्यवस्था लागू कर दी गयी।

उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण पर आमादा सरकार

उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता के आगे आख़िरकार योगी सरकार को झुकना पड़ा। गत 6 अक्टूबर को विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति के साथ हुए समझौते में प्रदेश सरकार को पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड का निजीकरण करने की अपनी योजना को तीन महीने के लिए टालने मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से यह प्रदेश के 15 लाख कर्मचारियों की एकजुटता की शानदार जीत है। लेकिन इस जीत से संतुष्ट होकर सरकार पर दबाव कम करने से बिजली के वितरण प्रक्रिया का निजीकरण करके निजी वितरण कम्पनियों को मुनाफ़े की सौग़ात देने के मंसूबे को पूरा करने में कामयाब हो जायेगी।