एनटीए में पेपर लीक के लिए मोदी सरकार, प्रशासन और शिक्षा माफ़िया का नापाक गठजोड़ ज़िम्मेदार है
अदिति
फ़ासीवादी मोदी सरकार का शासनकाल आम मेहनतकश आबादी के साथ आम जनता के बीच से आने वाले छात्रों-युवाओं के लिए किसी भयानक दुःस्वप्न से कम नहीं रहा है। लोगों की ज़िन्दगी को तहस-नहस करने वाली सरकार अब एनटीए के ज़रिये छात्रों नौजवानों के भविष्य से भी खिलवाड़ कर रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, तेलंगाना सहित देश के हर राज्य में अन्धाधुन्ध पेपर लीक हो रहे हैं और धाँधली हो रही है।
एनटीए को अगर “नो ट्रस्ट एजेंसी” कहा जाये तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि नीट-यूजी, यूजीसी-नेट और नीट-पीजी इम्तिहानों का आयोजन करने वाली नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) के द्वारा 25 से कम स्थायी कर्मचारियों के साथ 25 परीक्षाएँ आयोजित करवा दी गयी। एनटीए में बड़ी धाँधली की कई ख़बर सामने आयी है। एनटीए द्वारा आयोजित यूजीसी, नेट, नीट यू.जी व पी.जी, सीएसआईआर नेट में बड़ी गड़बड़ियाँ हुई हैं। इस बार आयोजित हुए नीट (UG) की परीक्षा में 67 छात्रों ने टॉप किया। यानी उन्हें 720 में से 720 नम्बर आये। यूजीसी नेट की परीक्षा हो जाने के फ़ौरन बाद उसका पेपर रद्द हो गया। इतना ही नहीं इसके बाद सीएसआईआर नेट और नीट (पीजी) की भी परीक्षाओं की तारीख़ बढ़ा दी गयी। आज कोई भी अख़बार, टीवी चैनल या सोशल मीडिया इस ख़बर से अछूता नहीं रह गया है।
जहाँ एक ओर जनदबाव की वजह से भाजपा के नाम का भोंपू बजाने वाली गोदी मीडिया भी एक हद तक इस धाँधली की आंशिक सच्चाई दिखाने को मज़बूर हो गयी है, वहीं दूसरी ओर आम छात्र आबादी के बीच इस बात को लेकर ज़बरदस्त आक्रोश है। कई जगहों पर तो छात्रों ने इसके ख़िलाफ़ अपना विरोध भी दर्ज़ कराया है, लेकिन इस फ़ासीवादी हुकूमत ने एनटीए के ख़िलाफ़ उठने वाले हर तरह के प्रतिरोध को पुलिस के डण्डों के तले दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
एनटीए: “नो ट्रस्ट एजेंसी” की धाँधली का इतिहास
ग़ौरतलब है कि 2018 में एनटीए के आधिकारिक रूप से कार्यरत होने के तुरन्त बाद से ही परीक्षाओं पर सन्देह उठने शुरू हो गये थे। वर्ष 2020 में नीट (UG) की परीक्षा के नतीजे में मध्य प्रदेश की एक छात्रा विधि सूर्यवंशी के केवल 6 अंक आये, जिसके बाद वह खुदकुशी करने पर मजबूर हो गयी। बाद में इसपर जब सवाल उठने शुरू हुए तो यह पता चला कि उसने 590 अंक हासिल किये थे। उसी साल मृदुल रावत नाम के एक छात्र को नीट (UG) की परीक्षा में 320 अंक आये, लेकिन इसपर सवाल खड़ा करने पर यह पता चला कि उसने अनुसूचित जनजाति श्रेणी में पूरे भारत में टॉप किया था। बाद में एनटीए ने अपने ग़लती मानने के बजाय उल्टा इस पूरे मसले पर ही लीपापोती करने की कोशिश की। वर्ष 2022 में जेईई (मेन) के जनवरी व अप्रैल दोनों महीनों की परीक्षाओं में तकनीकी ख़राबी की वजह से परीक्षाएँ काफ़ी देरी से शुरू हुईं। इतना ही नहीं कई छात्रों की उत्तरपुस्तिकाओं में भी काफ़ी गड़बड़ी देखने को मिली थी। उसके बाद अब नीट, नेट, सीएसआईआर व अन्य परीक्षाओं में इतने बड़े पैमाने पर हुई धाँधली के बाद एनटीए की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करना लाज़िमी है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले परीक्षाओं में धाँधली नहीं हुई थी। इससे पहले तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं में पर्चा लीक समेत परीक्षाओं के रद्द होने की कई ख़बरें आ चुकी हैं। लेकिन यूजीसी नेट, नीट जैसी परीक्षाओं का पेपर लीक या इसमें इस स्तर पर तकनीकी गड़बड़ी पहले कभी नहीं हुई थी। बाक़ी परीक्षाओं की धाँधली को रोकने के बजाय मोदी सरकार के कार्यकाल में उन परीक्षाओं में भी गड़बड़ी शुरू हो गयी, जिनमें गड़बड़ी की ख़बरें पहले कभी नहीं आयी थीं।
एक अनुमान के मुताबिक़ पिछले सात सालों में पर्चा लीक और परीक्षाओं में धाँधली की वजह से 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा छात्र प्रभावित हुए हैं और कई छात्र अवसाद और निराशा में आत्महत्या तक के क़दम उठा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर हो रही धाँधली के बाद अब तक मोदी सरकार और इसकी तमाम एजेंसियों ने जाँच के नाम पर केवल लीपापोती ही की है। हर बार ऐसी घटनाओं के बाद बयानबाज़ी और लफ्फाज़ी का दौर शुरू होता है। कुछ छोटे-मोटे कर्मचारियों, कुछ छात्रों को इसका ज़िम्मेदार ठहराकर पूरे मामले को ठिकाने लगा दिया जाता है और बहुत सफ़ाई के साथ असली अपराधियों को बचा लिया जाता है। यही वजह है कि मोदी सरकार के शासनकाल में अब तक इस मामले में न तो कोई बड़ी गिरफ़्तारी हुई है और न ही कोई कार्रवाई हुई है।
आज लगातार हो रहे पेपर लीक व परीक्षाओं के रद्द होने की वजह से आम छात्र आबादी अवसाद के अन्धेरे में जी रही है। आप खुद सोचिए, नीट और नेट जैसी परीक्षाओं में बेहतर अंक लाने के लिए ये छात्र कितना समय, ऊर्जा और पैसे खर्च करते हैं, और परीक्षा के बाद इसके रद्द होने की ख़बर आती है। ऐसे में आम छात्र क्या अवसाद का शिकार नहीं होंगे? क्या इसकी वजह से जिन छात्रों ने आत्महत्याएँ की या फिर जो अवसादग्रस्त हो गये, उसके लिए क्या यह सरकार ज़िम्मेदार नहीं है? इस सरकार की लापरवाही और अनदेखी ने आज देश में कई नौजावनों की जानें ले ली है। आँकड़े बताते हैं कि देश में पिछले दो दशकों में आत्महत्या की दर 7.9 प्रति लाख से बढ़कर 12.14 प्रति लाख हो गयी है। देश में कुल आत्महत्या करने वालों में से 40.77 फ़ीसदी 30 साल से कम उम्र के हैं। 2022 में हर घण्टे तीन स्वरोज़गारशुदा नौजवान, दो बेरोज़गार और हर 2 घण्टे में तीन छात्रों ने आत्महत्या की। ये आँकड़े उन घटनाओं के आधार पर हैं जो मीडिया में ख़बर बनीं। इससे कई गुना ज़्यादा घटनाएँ ऐसी हैं जो मीडिया तक पहुँच ही नहीं पाती हैं।
विश्वविद्यालय नहीं “शॉपिंग मॉल” में बिकती शिक्षा
पिछले साल दिल्ली विश्वविद्यालय ने सलाना फ़ीस में 46% कई बढ़ोतरी की थी। डीयू में बी. टेक कार्यक्रम की फीस 5000 रुपये से लेकर 14,000 रुपये तक है। बीएससी की फीस 8000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये तक है। दिल्ली विश्वविद्यालय एलएलएम की फीस लगभग 13,730 रुपये है।
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय (रोहतक) ने बीकॉम और बीएससी की फीस 8592 से 40,660 रुपये व बीए कोर्स की फीस 8522 रुपये से 30,660 रुपये कर दी है। यह फीस वृद्धि के नाम पर विद्यार्थियों से खुली लूट है। यह एक तरह से विश्वविद्यालय के दरवाजे आम परिवारों के बच्चों के लिए बन्द करने का फ़रमान है। यह फीस वृद्धि निसन्देह ग़रीब और मध्यम वर्ग के छात्रों के शिक्षा के अधिकार छीन रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लागू कर स्नातक को तीन साल से बढ़ाकर चार साल कर दिया गया है।
2022 वर्ष में जामिया मिलिया इस्लामिया द्वारा पेश किये जाने वाले बीए, बीए हिस्ट्री ऑनर्स, बीए इंग्लिश ऑनर्स सहित अधिकांश अण्डरग्रेजुएट कोर्सेज की फीस 20,000 रुपये से 22,000 रुपये तक है जबकि बीए भूगोल ऑनर्स 23,400 रुपये है। बीटेक और बीए एलएलबी कोर्सेज 50000 रुपये से 2 लाख रुपये तक कर दी गयी है।
कुल मिलाकर बात की जाये तो आम -मेहनतकश आबादी और निम्न-मध्यम वर्ग की पहुँच से शिक्षा को दूर किया जा रहा है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों को सरकार ने शॉपिंग मॉल तब्दील कर दिया है, जिसके कारण शिक्षा पर एक खास घराने का कब्ज़ा होता जा रहा है। परीक्षाओं में भी जो घपले किये जा रहे हैं, उसका एक लक्ष्य सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को तबाह कर निजी विश्वविद्यालयों को फ़ायदा पहुँचाना है।
हर परीक्षा में भ्रष्टाचार, कौन है इसका ज़िम्मेदार?
भविष्य की अनिश्चितता के कारण छात्र-युवा और अभिभावक हर क़ीमत पर अपने भविष्य को सुरक्षित कर लेना चाहते हैं। इसी बढ़ती असुरक्षा का फ़ायदा शिक्षा माफ़िया उठाते हैं और शासन में अपनी पकड़ का इस्तेमाल कर छात्रों के भविष्य का सौदा कर करोड़ों रुपये बना रहे हैं। पर्चा लीक या धाँधली आम छात्रों के बस की बात नहीं है। सच्चाई यह है कि बिना नेताओं, अधिकारियों, शिक्षा माफ़ियाओं की मिलीभगत के इस तरह का कोई भ्रष्टाचार तन्त्र पनप ही नहीं सकता। एनटीए देशभर में तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं को आयोजित कराने वाली संस्था है। एनटीए द्वारा परीक्षा कराने के लिए पेपर छापने से लेकर परीक्षा के सेण्टर तक कई निजी कम्पनियों को ठेका दिया जाता है। अक्सर ये कम्पनियाँ शिक्षा माफ़ियाओं, नौकरशाहों और नेताओं की शह पर ही पेपर लीक करने का काम करती हैं। अब इसके कई प्रमाण भी हमारे सामने हैं। 2017 में हुए सीबीएसई पेपर लीक में कोचिंग संचालक और एबीवीपी के संयोजक सहित 15 लोग शामिल थे। व्यापम घोटाले का सच शायद ही किसी से छुपा होगा जब मध्य प्रदेश में तत्कालीन भाजपा की सरकार और शिवराज सिंह चौहान के शासनकाल में सभी गवाह सन्देहपूर्ण परिस्थितिओं में मारे गये। यह बात अब दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि परीक्षाओं में धाँधली सरकार की मिलीभगत के बिना सम्भव नहीं है। और इस मामले में भाजपाइयों की केन्द्रीय सरकार और उनकी राज्य सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचारी सरकारें भारत के इतिहास में नहीं आयी हैं।
पिछले 10 सालों में भाजपा द्वारा तमाम शैक्षणिक संस्थानों के भीतर घुसपैठ से हम सब भली-भाँति वाक़िफ़ हैं। साथ ही हमें यह भी पता है कि फ़ासीवादी विचारधारा के आधार पर हुई तत्कालीन भर्तियों में कितने “योग्य” लोग ऊँचे पदों पर बैठे हैं! इसका ही नतीजा है कि आज तमाम शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक संस्थानों में फ़ासीवादी हस्तक्षेप के बाद वे फिसड्डी साबित हुए हैं। तो अब सवाल यही उठता है कि क्या हम इस फ़ासीवादी निज़ाम को अपने भविष्य के साथ खेलने देंगे? क्या हम यह मानकर बैठ जायेंगे कि इसकी वजह से जिन छात्रों की जानें गयी, उसमें सरकार को कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी? क्या हज़ारों छात्रों को अवसाद के अन्धेरे में जाता देख हमारा खून नहीं खौलता?
आम घरों के बच्चे डॉक्टर, इन्जीनियर बनने का सपना तक नहीं देख सकते। पेपर पैटर्न से लेकर भारी फ़ीस के बोझ के कारण शिक्षण संस्थानों तक आम मेहनतकश जनता को दूर कर दिया जाता है और मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच एक अभेदीय दीवार खड़ी दी जाती है। जो मज़दूर अपनी हाड़-तोड़ मेहनत के दम पर विश्वविद्यालय, कॉलेज तमाम चीजें खड़ी करता है, वह ताउम्र उससे वंचित रहता है। सीधी-सी बात है सरकारी शिक्षण संस्थानों में लगातार घटती सीटों और बढ़ती फीसों से शिक्षा सिर्फ़ एक वर्ग तक सीमित कर दिया है। वैसे तो अनुच्छेद 21 के अनुसार सबको जीने का अधिकार है लेकिन एक बात समझने की है कि जब आपके पास शिक्षा और रोज़गार का अधिकार ही ना हो तो जीने का क्या मतलब! आज भी युवा लाइब्रेरी में दिन रात परीक्षाओं की तैयारी कर अपनी ज़िन्दगी खपा रहे हैं, लेकिन पेपर अक्सर लीक करा दिये जाते है जिसके कारण अवसाद में आकर आत्महत्या जैसी घटनाएँ बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। मध्यवर्ग के विवेकवान लोगों को भी समझना होगा कि फ़ासीवादी मोदी सरकार और उसके द्वारा धड़ल्ले से लागू की गयी पूँजीवादी नीतियों का निशाना अब वह भी बन रहा है, उसके बच्चे भी बन रहे हैं। पूँजीपरस्त नीतियों और फ़ासीवादियों के नंगे भ्रष्टाचार का यह नतीजा तो होना ही था। कम-से-कम अब उन्हें समझ जाना चाहिए कि दुश्मन कोई बाबर-अकबर या कोई विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय नहीं बल्कि देश के पूँजीपति, भूस्वामी, दलाल, बड़े व्यापारी, कुलक-फार्मर व उनकी नुमाइन्दगी करने वाली फ़ासीवादी मोदी सरकार व अन्य पूँजीवादी दलों की सरकारें हैं।
शिक्षा और रोज़गार के हक़ के लिए मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसान वर्ग, निम्न-मध्यवर्ग व मध्यम मध्यवर्ग को एकजुट होना होगा। इस सवाल पर एक व्यापक जुझारू जनान्दोलन खड़ा करना तात्कालिक लक्ष्य बनता है।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2024
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