सामाजिक-आर्थिक विषमता दूर करने के कांग्रेस के ढपोरशंखी वायदे और मोदी की बौखलाहट
विवेक
जनता से किये गये बड़े-बड़े ढपोरशंखी वायदे भारतीय बुर्जुआ चुनावी राजनीति और सम्भवत: किसी हद तक हर देश में पूँजीवादी राजनीति की चारित्रिक विशेषता है। लेकिन भारत में तो यह ग़ज़ब तरीके से होता है। पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक में हर प्रत्याशी अपने प्रतिद्वन्दी से बढ़कर ही वायदे करता है, चाहे उसका सत्य से कोई लेना-देना हो या न हो। 18वीं लोकसभा के चुनाव में भी इसी परिपाटी का पालन हो रहा है। मज़ेदार बात है कि ऐसे वायदे सत्तासीन पार्टी की तरफ़ से नहीं बल्कि विपक्ष की तरफ़ से ज़्यादा हो रहे हैं। सत्तासीन पार्टी के पास तो 10 साल के कुशासन के बाद किसी ठोस मुद्दे पर कोई ठोस वायदा करने की स्थिति ही नहीं बची है, तो मोदी सरकार बस साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने वाले झूठ और ग़लतबयानियों का सहारा ले रही है। लेकिन ‘इण्डिया’ गठबन्धन ठोस मुद्दों पर बात अवश्य कर रहा है। लेकिन वायदे ऐसे कर रहा है, जो भारतीय पूँजीवाद की आर्थिक सेहत को देखते हुए व्यावहारिक नहीं लगते।
अप्रैल में एक चुनावी सभा में राहुल गाँधी ने बयान दिया था कि देश में आर्थिक असमानता है। वह देश में जातिगत जनगणना के साथ व्यापक आर्थिक सर्वे करवाना चाहते हैं, ताकि यह पता चले कि देश में अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति कैसी है! इसी जानकारी के आधार पर कांग्रेस सरकार (अगर वह सत्ता में आ जाये तो!) “अफ़रमेटिव एक्शन” की रूपरेखा तैयार करेगी, यानी मोटे अर्थो में “उनके हित में क़दम उठायेगी”। वैसे कांग्रेस सत्ता में आकर यह करेगी या नहीं, यह बिल्कुल ही दूसरी बात है। इसका रिश्ता एक व्यक्ति के तौर पर राहुल गाँधी की ईमानदारी या बेईमानी से भी नहीं है। सवाल है कांग्रेस पार्टी व इण्डिया गठबन्धन के दलों और उनकी राजनीति के वर्ग चरित्र का!
अब राहुल गाँधी के इसी बयान को मोदी ने राजस्थान की रैली में यह कहकर पेश किया कि कांग्रेस उनकी सम्पत्ति छीन कर मुसलमानों को दे देगी! इसी भाषण में मोदी ने मुस्लिमों को “घुसपैठिया” और “ज़्यादा बच्चा पैदा करने वाला” भी कहा। अपने झूठे दावों को सही ठहराने के लिए मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वर्ष 2006 के एक बयान को तोड़ मरोड़कर पेश किया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश की सम्पदा पर यहाँ की दमित आबादी जिसमें मुस्लिम आबादी का एक हिस्सा भी शामिल है, उनका भी हक़ है। इसी भाषण में मोदी ने आगे यह भी जोड़ दिया कि कांग्रेस हिन्दू औरतों के ज़ेवर और मंगलसूत्र छीन कर दूसरों को दे देगी! अपनी चुनावी सभाओं में वे यह भी कहते हुए पाये गये कि कांग्रेस आपकी भैंस छीन कर मुसलमानों को बाँट देगी! वैसे मोदी की ऐसी पैंतरेबाज़ी बताती है कि दस वर्ष के शासन काल में भाजपा सरकार हरेक मसले पर इस कदर विफल है कि वह जनता से अपने कामों के आधार पर वोट तक नहीं माँग नहीं सकती है। इसलिए उसे जनता को साम्प्रदायिक आधार पर बाँटने के लिए ऐसे अनर्गल बयानों का सहारा लेना पड़ रहा है, ताकि चुनाव में वह वोटों की फ़सल काट सके।
वैसे हमें यह भी समझना होगा कि कांग्रेस ऐसे वायदों को अपने घोषणापत्र में क्यों शामिल कर रही है? आज देश में ग़ैर-बराबरी आज़ादी के बाद अपने सबसे उच्चतम स्तर पर है। इसे आँकड़ों से भी देखा जा सकता है। वर्ल्ड इनइक़्वालिटी लैब द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग़ैर-बराबरी आज़ादी के बाद अपने सबसे भयंकर रूप में है। वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब के रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2022-2023 के दौरान भारत की ऊपर की 1 प्रतिशत आबादी राष्ट्रीय आय के 22.6 प्रतिशत पर नियंत्रण रखती है। इसके साथ ही अतिधनाढ्य परजीवियों की यह आबादी कुल सम्पत्ति के 40 प्रतिशत पर नियंत्रण रखती है। एक और दूसरी रिपोर्ट जो ऑक्सफेम ने प्रकाशित की है उसके अनुसार पिछले एक दशक में भारत में अरबपतियों की संख्या 271 तक जा पहुँची है। वहीं भारत में ग़रीबी रेखा के नीचे की आबादी 22.8 करोड़ है। एक बात और ग़ौर करने लायक़ है कि कांग्रेस बार-बार जातिगत जनगणना के साथ आर्थिक सर्वे की बात कह रही है। दरअसल यह चुनावी वायदा इसलिए भी किया गया कि आज देश में पिछड़ी, दलित व अनुसूचित जनजातियों को रिझाया जा सके। पिछड़ी, दलित व अनुसूचित जनजातियों की बड़ी आबादी भयंकर ग़रीबी में रहने के लिए अभिशप्त है। वर्ष 2021 में प्रकाशित यूनाइटेड नेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार आज मल्टी डाइमेंशनल पॉवर्टी इण्डेक्स के मुताबिक़ भारत में ग़रीबी रेखा के नीचे आने वाला हर 6 में से 5 व्यक्ति पिछड़ी, दलित या अनुसूचित जनजातियों से सम्बन्ध रखता है।
अव्वल बात तो यह है कि जिसे सम्पत्ति के पुनर्वितरण से जोड़ा जा रहा है, वैसा वायदा कांग्रेस द्वारा अपने मैनीफ़ेस्टो में किया नहीं गया है। कांग्रेस ने अपने मैनीफ़ेस्टो में भारत में व्याप्त ग़ैर-बराबरी को दूर करने के प्रयास का भरोसा दिलाया है। आज जिस ग़ैर-बराबरी की बात कांग्रेस कर रही है, उसे इस स्तर तक पहुँचाने में कांग्रेस की पिछली सरकारों का भी योगदान है। सच्चाई यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत देश में व्याप्त आर्थिक विषमता को दूर कर पाना सम्भव ही नहीं है। पूँजीवाद की नैसर्गिक गतिकी ही ऐसी होती है कि वह आर्थिक विषमता को बढ़ाये। एक वृहत आबादी विपन्नता और बेरोज़गारी से त्रस्त हो ताकि बेरोज़गारों की एक रिज़र्व फ़ौज कम से कम उजरत पर मालिकों के मुनाफ़े के लिए खटने के लिए तैयार हो, यह स्थिति पूँजीवादी व्यवस्था की आन्तरिक आर्थिक गति से ही पैदा होती है। इसलिए पूँजीवादी दायरे में ऐसी खोखली सुधारवादी कल्याणकारी नीतियों की पैबन्दसाजी करके इस समस्या को दूर नहीं किया जा सकता है। फ़ासीवादी सरकार ने पूँजीवादी व्यवस्था के इन सड़े हुए नतीजों को अभूतपूर्व तरीके से बढ़ाने का काम किया है क्योंकि फ़ासीवादी सत्ता पैदाइश ही पूँजीवादी मन्दी की होती है। फ़ासीवादियों को अपने धनबल से सत्ता में पूँजीपति वर्ग पहुँचाता ही इसीलिए है कि वह पूँजीवादी क़ानूनों व जनवादी व संवैधानिक अधिकारों को भी कचरापेटी के हवाले कर मेहनतकश आबादी की नंगी और बर्बर लूट की खुली आज़ादी धन्नासेठों को मुहैया कराये। मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में यही तो किया है! इस मामले में भाजपा देश की अन्य सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से भिन्न है, यह सच है। लेकिन कोई अन्य पूँजीवादी दल या दलों का गठबन्धन भी आज कल्याणकारी वायदों को वाकई पूरा कर पाये, इसकी गुंजाइश बेहद कम है। पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था की सेहत ही ऐसी नहीं है कि कोई पूँजीवादी सरकार यह कर सके।
फ़ासीवादी भाजपा की नव उदारवादी नीतियों का ही यह परिणाम रहा है कि आज भारत दुनिया के आर्थिक रूप से सबसे विषम देशों की फ़ेहरिस्त में शीर्ष स्थानों पर है। भाजपा इसलिए भी कांग्रेस के इस वायदे से असहज महसूस कर रही है कि जिन पिछड़ी, दलित और अनुसूचित जनजातियों से आने वाली आबादी को वह अपने हिन्दुत्व की व्यापक पहचान से जोड़कर अपने लिए पक्का वोटबैंक बनाने का ख़्वाब संजोती है, इण्डिया गठबन्धन के ऐसे वायदों से उसके सपने के बिखर जाने का ख़तरा भी उसे सताता है। दूसरी चीज़ यह कि फ़ासीवादी भाजपा नवउदारवादी नीतियाँ लागू करते हुए उस छोड़ पर जा पहुँची है, जहाँ वह ऐसे खोखले सुधारवादी कल्याणकारी वायदे भी नहीं कर सकती है। अत: बौखलाहट में प्रधानमंत्री मोदी और उनके अन्य सिपहसालार ऐसी हास्यास्पद आलोचनाएँ रख रहे हैं।
आज हमें यह समझना होगा कि आर्थिक और सामाजिक ग़ैर-बराबरी को बुर्जुआ जनवाद के दायरे में सुधारवादी नीतियाँ लागू करके दूर नहीं किया जा सकता है। इस समस्या का समाधान केवल समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। इसलिए इन झूठे चुनावी वायदे के पाश में फँसने के बजाय इन बुर्जुआ दलों की असलियत को समझें! इण्डिया गठबन्धन की सरकार बनने से ज़्यादा से ज़्यादा यह होगा कि नवउदारवादी नीतियों को लागू करने की रफ़्तार, दर और तानाशाहाना तौर-तरीकों में कुछ मात्रात्मक कमी आ सकती है। राजनीतिक तौर पर, देश की क्रान्तिकारी शक्तियों को अपने आपको गोलबन्द और संगठित करने की एक सीमित व तात्कालिक मोहलत मिल सकती है। इससे ज़्यादा उम्मीद लगाकर कोई बैठा है, तो वह पस्तहिम्मती और उदारतापन्थी वायरस का शिकार है।
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