Category Archives: निजीकरण

आगरा में विद्युत वितरण के निजीकरण का अनुभव

उत्तर प्रदेश में मई 2009 में तत्कालीन मायावती सरकार के कार्यकाल में कानपुर और आगरा में बिजली के वितरण के निजीकरण का निर्णय लिया गया था। बिजली कर्मचारियों के विरोध के चलते कानपुर की बिजली वितरण की व्यवस्था निजी हाथों में नहीं सौंपी जा सकी। लेकिन आगरा में यह व्यवस्था लागू कर दी गयी।

उत्तर प्रदेश में बिजली के निजीकरण पर आमादा सरकार

उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों की जुझारू एकजुटता के आगे आख़िरकार योगी सरकार को झुकना पड़ा। गत 6 अक्टूबर को विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति के साथ हुए समझौते में प्रदेश सरकार को पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड का निजीकरण करने की अपनी योजना को तीन महीने के लिए टालने मजबूर होना पड़ा। निश्चित रूप से यह प्रदेश के 15 लाख कर्मचारियों की एकजुटता की शानदार जीत है। लेकिन इस जीत से संतुष्ट होकर सरकार पर दबाव कम करने से बिजली के वितरण प्रक्रिया का निजीकरण करके निजी वितरण कम्पनियों को मुनाफ़े की सौग़ात देने के मंसूबे को पूरा करने में कामयाब हो जायेगी।

‘नयी शिक्षा नीति 2020’ : लफ़्फ़ाज़ि‍यों की आड़ में शिक्षा को आम जन से दूर करने की परियोजना

छात्रों-युवाओं और बुद्धिजीवियों के तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए दिनांक 29 जुलाई के दिन ‘नयी शिक्षा नीति 2020’ को मोदी सरकार के कैबिनेट ने मंज़ूरी दे दी है। यह शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी निवेश को घटायेगी और देशी-विदेशी बड़ी पूँजी के लिए शिक्षा क्षेत्र के दरवाज़े खोलेगी। व्यापक मेहनतकश जनता के बेटे-बेटियों के लिए शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते और भी संकरे हो जायेंगे।

रेलवे की बढ़ती बदहाली और निजीकरण के नये हथकण्डे

एक तरफ़ जहाँ मोदी सरकार देश में बुलेट ट्रेन लाने के शिगूफ़ छोड़ रही है, है वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय रेल बीते 10 सालों में सबसे बुरे दौर में पहुँच गयी है। इस बात की तस्दीक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने की है। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारतीय रेलवे की कमाई बीते दस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है।

मज़दूर-विरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू करने में जुटी मोदी सरकार का पूँजीपतियों को नया तोहफ़ा!

श्रम क़ानूनों पर मोदी सरकार के हमले जारी हैं। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 20 नवम्बर को औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता (लेबर कोड ऑन इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स) को मंज़ूरी दे दी है जिससे अब कम्पनियों को मज़दूरों को किसी भी अवधि के लिए ठेके पर नियुक्त करने का अधिकार मिल गया है। इसे फ़िक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट का नाम दिया गया है।

एक तरफ़ बढ़ती बेरोज़गारी है और दूसरी तरफ़ लाखों शहरी नौजवानों को गुज़ारे के लिए दो-दो जगह काम करना पड़ रहा है

दिन के समय वो एक प्रायवेट अस्पताल में अटेंडेंट का काम करता है और शाम को ओला बाइक चलाता है। प्रायवेट अस्पताल में उसको संडे तक की छुट्टी नहीं मिल पाती और अक्सर इमरजेंसी कहके उसे संडे को भी काम करने बुलाया जाता है। उसे अस्पताल से दस हज़ार रुपये की तनख़्वाह मिलती है और रोज़ सवेरे 8 बजे से शाम 5 बजे तक लगातार काम रहता है । शाम को 5 बजे से रात के 10 बजे तक श्रीकांत ओला बाइक चलाता है जिससे उसे दिन के 300 रुपए तक मिल जाते हैं ।

रेलवे के निजीकरण के ख़िलाफ़ एकजुट संघर्ष के लिए रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा की ओर से व्यापक सम्पर्क अभियान जारी

टुकड़े-टुकड़े में रेलवे के निजीकरण की पिछले ढाई दशक से जारी प्रक्रिया को मोदी सरकार ने बहुत तेज़ कर दिया है और 100 दिन के ऐक्‍शन प्‍लान के तहत अन्‍धाधुन्‍ध रफ़्तार से निजीकरण की पटरी पर गाड़ी दौड़ा दी है। इसे रोकने के लिए सरकार पर धरना-प्रदर्शन, छोटी रैलियों आदि का बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला। सरकार एक लम्बी तैयारी के बाद इन विभागों को निजी हाथों में बेच रही है और भाजपा निजीकरण के लिए हर हथकण्‍डा अपनाने को तैयार है – दमन करने से लेकर फूट डालने तक। इसी वजह से कर्मचारियों का विभिन्न यूनियनों में बँटे रहना सरकार के लिए फ़ायदे की चीज़ है। एक तो इससे कर्मचारियों की ताक़त कमज़ोर हो जाती है, दूसरे, सरकार के लिए दमन का डर पैदा करना आसान हो जाता है व ज़रूरत पड़ने पर धन्‍धेबाज़ यूनियन नेताओं के साथ समझौता कर कुछ आश्‍वासन देकर आन्‍दोलन को ख़त्‍म करने का मौक़ा भी मिल जाता है। तीसरे, रेल का ‘चक्का जाम’ जैसे नारे केवल कहने की बात बन जाते हैं जबकि रेल का ‘चक्का जाम’ जैसे आन्दोलन के जुझारू रूपों को अपनाये बग़ैर निजीकरण की नीतियों के ख़ि‍लाफ़ कोई असरदार लड़ाई लड़ी ही नहीं जा सकती।

पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर में गिरावट रोकने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाती मोदी सरकार

पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर में गिरावट रोकने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाती मोदी सरकार पराग वर्मा कांग्रेस, भाजपा और तमाम संसदीय पार्टियाँ पूँजीपतियों के हितों का प्रतिनिधित्व करती…

मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल : पूँजीपतियों को रिझाने के लिए रहे-सहे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाने की तैयारी

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान पूँजीपति वर्ग के सच्चे सेवक के रूप में काम करते हुए तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ लागू कीं। हालाँकि अपने असली चरित्र को छिपाने और मज़दूर वर्ग की आँखों में धूल झोंकने के लिए नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद को ‘मज़दूर नम्बर वन’ बताया और ‘श्रमेव जयते’ जैसा खोखले जुमले दिये, लेकिन उसकी आड़ में मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों पर डाका डालने का काम बदस्तूर जारी रहा।

चुनाव ख़त्म, मज़दूरों की छँटनी शुरू

“मज़दूर नं. 1” की सरकार दोबारा बनते ही बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छँटनी का सिलसिला शुरू हो गया है। अर्थव्यवस्था का संकट जिस क़दर गहरा है, उसे देखते हुए यह तय लग रहा है कि आने वाले समय में छँटनी की तलवार मज़दूरों की और भी बड़ी आबादी पर गिरेगी। मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से सारी कम्पनियाँ अपनी लागत घटाने के दबाव में हैं, और ज़ाहिर है कि इसका सबसे आसान तरीक़ा है मज़दूरी पर ख़र्च होने वाली लागत में कटौती करना।