उत्तर प्रदेश में बिजली विभाग को निजी हाथों में सौंपने पर आमादा योगी सरकार
अमित
उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के ढाई दशक बाद इनका कहर देश की मेहनतकश जनता के ऊपर सबसे बर्बर रूप में बरपा हो रहा है। देश की सत्ता में बैठी फ़ासीवादी भाजपा सरकार इन नीतियों को लागू करने के मामले में हर दिन नया रिकॉर्ड बना रही है। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में बिजली का वितरण करने वाले दो निगमों के निजीकरण का फ़ैसला लिया गया है। बिजली विभाग के घाटे में होने का हवाला देकर सरकार इसे अपने आका पूँजीपतियों को औने-पौने दामों पर बेचने की तैयारी कर चुकी है। पूर्वांचल और दक्षिणांचल के विद्युत वितरण निगमों से इसे लागू करने की योजना बनायी गयी है। आगे इसी मॉडल को अन्य जगहों पर भी लागू किया जायेगा।
वास्तव में सत्ता में आने के बाद से ही योगी सरकार किसी-न-किसी बहाने से बिजली विभाग को निजी हाथों में सौंपने की पूरी कोशिश में जुटी हुई है। इसके पहले कर्मचारियों ने जुझारू आन्दोलन के दम पर सरकार को पीछे हटने के लिए बाध्य किया था। लेकिन सत्ताधारी योगी सरकार अपने द्वारा ही किये गये समझौते से मुकरते हुए कर्मचारियों के साथ धोखेबाजी पर उतर आयी है।
बिजली विभाग के घाटे में होने की वजह सरकारी कर्मचारी नहीं सरकार की नीतियाँ हैं!
निजीकरण करने के पीछे बिजली विभाग के घाटे में होने का हवाला दिया जा रहा है लेकिन सच यह है कि बिजली विभाग के घाटे में होने के लिए सरकार की नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं। उत्तर प्रदेश में निजी कम्पनियों से ऊँची दरों पर बिजली ख़रीदी जा रही है, जिसकी वजह से बिजली विभाग लगातार घाटे में जा रहा है। जाहिर है कि योगी सरकार की मंशा अपने आका पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाना है जिसके लिए वह उनकी कम्पनियों से ऊँचे दामों पर बिजली ख़रीद रही है और अब बिजली के वितरण की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं को सौंप कर जनता को लूटने की खुली छूट दे रही है। उत्तर प्रदेश में सबसे सस्ती बिजली राज्य सरकार की कम्पनियों से ख़रीदी जाती है जो लगभग 1 रुपये प्रति यूनिट की दर से मिलती है और सबसे महँगी बिजली प्राइवेट कम्पनियों से जो लगभग 6 रुपये प्रति यूनिट की दर से मिलती है! साफ़ है कि अगर सरकारी बिजली कम्पनियों को बढ़ावा दिया जाये और सरकारी विभागों को दुरुस्त किया जाये तो बिजली की लागत को बहुत कम किया जा सकता है और बिजली विभाग के घाटे को कम या बिलकुल समाप्त किया जा सकता है।
इसके अलावा निजी कम्पनियों को बिजली देने से बिजली विभाग फ़ायदे में चला जायेगा, यह भी पूरी तरह से झूठ है। उड़ीसा में भी बिजली विभाग के घाटे में होने का हवाला देकर विभाग का निजीकरण किया गया था, लेकिन निजी कम्पनी के कई गुना घाटे में चले जाने के कारण इसे वापस लेना पड़ा। वर्ष 2015 में उड़ीसा विद्युत नियामक आयोग ने इसी वजह से रिलायंस के सभी लाइसेंस रद्द कर दिये थे।
इसके पहले भी बिजली विभाग के घाटे में होने का हवाला देकर वर्ष 2000 में विद्युत परिषद का विघटन कर दिया गया था। लेकिन उस समय 77 करोड़ प्रतिवर्ष का घाटा आज 24 साल बाद बढ़कर 1 लाख 10 हज़ार करोड़ पहुँच गया है। उस समय भी सरकार द्वारा इस फ़ैसले की समीक्षा करने और इसके कारगर न होने पर इसे वापस लेने की बात कही थी। लेकिन आज जब निजी कम्पनियों के कारण हालात और अधिक बिगड़ चुके हैं, इस फ़ैसले को वापस लेने की बजाय सरकार और आगे बढ़ते हुए पूरे विभाग को ही निजी हाथों में सौंपने जा रही है। ज़ाहिर है कि विभागों को विघटित करने और अब उसे निजी हाथों में सौंपने की यह क़वायद बिजली विभाग को घाटे से फ़ायदे में पहुँचाने के लिए नहीं बल्कि अपने आका पूँजीपतियों की जेब में पहुँचाने के लिए की जा रही है।
निजीकरण आम जनता के लिए क्यों ख़तरनाक है?
देश के जिन भी राज्यों में प्राइवेट कम्पनियों को बिजली सौंपी गयी है, वहाँ जनता को अधिक दाम पर बिजली ख़रीदनी पड़ती है। इतना ही नहीं, बिजली की क़ीमतें बढ़ने से उन सभी चीज़ों की क़ीमतें भी बढ़ जायेंगी जिनको बनाने में बिजली का इस्तेमाल किया जाता है। मतलब साफ़ है कि निजीकरण पूँजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए आम जनता की जेब से पाई-पाई वसूलने की योजना है। यानि पब्लिक के पैसे से खड़े किये गये सरकारी विभागों को प्राइवेट कम्पनियों को बेचने और पब्लिक की जेब खाली करके पूँजीपतियों की तिजोरी भरने की स्कीम। इसी को सरकार पीपीपी मॉडल का नाम देती है – पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप।
दूसरी बात यह भी है कि आम घरों से आने वाले जिन लोगों को सरकारी विभागों में पक्की नौकरियाँ मिलती थीं, बिजली समेत तमाम विभागों के प्राइवेट हाथों में बेचे जाने से यह सारे अवसर समाप्त हो जायेंगे। पूर्वांचल और दक्षिणांचल के जिन वितरण निगमों को प्राइवेट हाथों में देने की योजना बनायी गयी है, उनमें 27,000 से अधिक कर्मचारी काम कर रहे हैं। बिजली विभाग के निजीकरण के बाद इन कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या को काम से बाहर और पदावनत कर दिया जायेगा। इसके अलावा इन विभागों में पहले ही एक बड़ी संख्या को परमानेण्ट नौकरी की बजाय ठेके या संविदा पर काम करना पड़ता है। बिजली के निजीकरण की बाद जो थोड़े-बहुत परमानेण्ट भर्तियों के अवसर बचे भी थे, वह भी समाप्त हो जायेंगे। छात्रों-युवाओं की एक बड़ी आबादी जो बनारस, इलाहाबाद, दिल्ली, पटना जैसी जगहों पर जाकर सरकारी नौकरियों की तैयारी करती है, उनके ऊपर यह एक भयंकर कुठाराघात होगा। इससे स्पष्ट है निजीकरण केवल कर्मचारियों के लिए ही नहीं बल्कि आम जनता के हर हिस्से के लिए बहुत घातक है।
वास्तव में भारत सहित आज पूरी दुनिया का पूँजीपति मुनाफ़े की गिरती हुई दर के भयंकर संकट से त्रस्त हैं। यही वजह है कि दुनिया भर में ऐसी फ़ासीवादी, तानाशाही, धुर दक्षिणपन्थी ताक़तें सत्ता में आ रही हैं जो किसी भी तरह से जनता के हक़ों-अधिकारों को छीनकर, उनको मिलने वाली हर सुविधा में कटौती करके पूँजीपतियों को इस संकट से उबार सकें। हमारे देश में सत्तासीन भाजपा भी एक फ़ासीवादी पार्टी है जो एक तरफ़ जनता को मिलने वाली हर सुविधा में कटौती करके पूँजीपतियों की जेबें भरने पर आमादा है, दूसरी तरफ़ जनता के असन्तोष को भटकाने के लिए हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्ज़िद के नाम पर पूरे देश को साम्प्रदायिक आग में झोंक रही है।
बिजली विभाग के निजीकरण से पहले भी सभी श्रम क़ानूनों को एक-एक करके समाप्त कर देने, आईटी सेक्टर में 14 घण्टे तक काम करने का नियम लागू करने, पक्की नौकरियों को समाप्त करके हर विभाग में ठेका-संविदा की प्रथा लागू करने के मामले में भाजपा सरकार ने पिछली सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है।
असल में राष्ट्रवाद और देशभक्ति की माला जपने का काम करने वाली भाजपा के लिए देश का मतलब देश के पूँजीपति हैं। इनका राष्ट्रवाद इन पूँजीपतियों की थैली की रक्षा करना है। आम जनता को निचोड़ना और देश की हर सम्पदा को पूँजीपतियों के हवस की भट्टी में झोंक देना ही इनके लिए असली देशभक्ति और राष्ट्रवाद है। यही वह सच्चाई है जिसको छिपाने के लिए सम्भल से लेकर बहराइच तक में साम्प्रदायिक दंगों की आग भड़कायी जाती है। हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे का दुश्मन बता दिया जाता है ताकि वो अपने असली दुश्मन यानि इन फ़ासिस्टों और इनके आका धनपशुओं को पहचान न सकें।
ऐसे में न केवल इन फ़ासिस्टों की असली सच्चाई को लोगों के बीच लेकर जाने की ज़रूरत है बल्कि निजीकरण के पक्ष में किये जा रहे हर तरह के झूठे प्रचार की कलई खोलने की ज़रूरत है। मज़दूरों-कर्मचारियों-छात्रों की व्यापक एकजुटता के दम पर ही इस फ़ासीवादी हमले का मुक़ाबला किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2024 – जनवरी 2025
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