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दूसरा उत्तराखंड बनने की राह पर हैं हिमाचल प्रदेश
हिमाचल प्रदेश में चल रही विभिन्न पन-बिजली परियोजनाओं के कारण पैदा हो रहे खतरों पर एक रिपोर्ट
मनन
भारत के उत्तरी भाग में स्थित हिमाचल प्रदेश मुख्यतया एक पर्वतीय राज्य है, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए देश-विदेश में विख्यात है। एक तरफ तो यहाँ की मनोरम वादियाँ दुनियाभर के प्रकृति प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, वहीं दूसरी तरफ़ यहाँ उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर कई बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों ने अपनी गिद्धदृष्टि जमा रखी है। देश के बाकी अन्य राज्यों की ही तरह हिमाचल प्रदेश में भी विकास और नौजवानों को रोजगार के अवसर प्रदान करने के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों और पन-बिजली परियोजनाओं का जाल बिछाया जा रहा हैं। हिमाचल प्रदेश की कुल जल विद्युत क्षमता 23,000 मेगावाट है, जिसमें से इस समय प्रदेश में चल रही विभिन्न परियोजनाओं के द्वारा 8,432 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा रहा हैं। जबकि ध्यान देने योग्य बात है कि इस समय हिमाचल प्रदेश को अपनी तमाम जरुरतें पूरी करने के लिए केवल 1200 मेगावाट बिजली की आवश्यकता है, परंतु सरकार फिर भी उत्पादन क्षमता को लगातार बढ़ाने की बात कर रही है। इस पर सरकार का तर्क है कि इन तमाम परियोजनाओं से पैदा होने वाली अतिरिक्त उर्जा को बेचने से जो आय प्राप्त होगी उसे विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं में लगाया जा सकेगा, जिससे हिमाचल प्रदेश के लोगों के जीवन में खुशहाली आयेगी। परंतु असलियत तो यह है कि इस समय देश की विभिन्न उर्जा वितरण कंपनियाँ घाटे में चल रही हैं, तथा वे इस अवस्था में ही नहीं हैं कि वो इन निजी कंपनियों द्वारा उत्पादित महंगी बिजली खरीद सके।
इसी के चलते आज हिमाचल प्रदेश सरकार को उत्पादन लागत से काफी कम कीमत पर बिजली बेचने को मजबूर होना पड़ रहा हैं, जिस कारण उसे करोड़ों का घाटा हो रहा है। परंतु इसके बावजूद भी सरकार लगातार देशी-विदेशी पूँजीपतियों के साथ अनुबंधों पर हस्ताक्षर करती जा रही है, ज़ाहिर है इसके पीछे सरकार की असली मंशा जनकल्याण के नाम पर उदारीकरण तथा निजीकरण की नीतियों को जारी रखना है।
पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन जनता के कल्याण के लिए न हो निजी मुनाफे के लिए किया जाता है, यही कारण है कि इतनी प्रचुर मात्रा में बिजली होने के बावजूद आज भी देश के कई इलाके शाम होते ही अंधकार में डूब जाते हैं। जहाँ तक विकास का सवाल है तो इन परियोजनाओं से ‘विकास’ तो नहीं पर हाँ ‘विनाश’ जरूर हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप आज यहाँ का भौगोलिक तथा जलवायु संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है, जिससे आने वाले समय में यहाँ के निवासियों को भयंकर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पूँजीवादी व्यवस्था में विकास के नाम पर लगातार जारी प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट और उससे पैदा होने वाले भयंकर दुष्परिणामों की एक झलक हमें पिछले साल उत्तराखंड में देखने को मिली, जहाँ बाढ़, बादल फटने, तथा जमीन धंसने जैसी घटनाओं के कारण हज़ारों लोग असमय काल के ग्रास में समा गये। हालाँकि, शुरुआत में सरकार ने इसे एक दैवीय प्रकोप बता अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश की, परंतु कई सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों द्वारा जारी की गई रिपोर्टों से अब यह बात साफ़ हो गई है कि इस भयंकर तबाही का असली कारण लूट-खसोट पर टिकी मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था थी।
वैसे तो हिमाचल प्रदेश में बहने वाली चारों बड़ी नदियों सतलुज, रावी, ब्यास, और चेनाब पर बड़े-बड़े बाँध बनाने का काम भाखड़ा-नंगल बाँध बनने के बाद से ही शुरू हो गया था। परंतु 1991 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा उदारीकरण तथा निजीकरण की नीतियाँ लागू करने के बाद से इन नदियों पर प्रस्तावित तथा चल रही पनबिजली परियोजनाओं की संख्या में कई गुना वृद्धि दर्ज की गई है। आज हालत यह है कि अगर आप हिमाचल प्रदेश के किसी भी गाँव में चले जायें तो वहा आपको स्कूल, अस्पताल भले ही दिखाई न दे, परंतु हर 1-1.5 किलोमीटर के फासले पर कोई न कोई छोटी-बड़ी एक पनबिजली परियोजना जरूर नजर आ जायेगी। हिमाचल प्रदेश की अपार वन संपदा तथा नदियाँ न सिर्फ यहाँ के जलवायु को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, परंतु इसके अतिरिक्त वह यहाँ के निवासियों, और खासकर दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले लोगो के लिए जीवनयापन के साधन भी उपलब्ध करवाते हैं। परंतु सरकार जनता द्वारा किये जा रहे भारी विरोध के बावजूद यहाँ मौजूद वन संपदा तथा नदियाँ पूँजीपतियों को औने-पौने दामों पर बेची जा रही हैं।
स्थिती कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सन 1981 से 2012 के बीच हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा लगभग 10,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र जलविद्युत, खनन, तथा सड़क निर्माण से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं के लिए पूँजीपतियों को आंवटित किये जा चुके हैं। जहाँ एक तरफ तो प्रदेश सरकार कहती है कि स्थानीय लोग वनों का दुरुपयोग करते हैं जिस के कारण पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है, परंतु वहीं दूसरी तरफ वह लगातार बड़ी-बड़ी विद्युत परियोजनाओं को मंजूरी देती जा रही है जो पर्यावरण को कई हज़ार गुना ज्यादा नुकसान पहुँचाती हैं। इन तमाम परियोजनाओं में से अधिकतर किन्नौर, लाहौल-स्पीति जैसे दुर्गम तथा भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील इलाको में प्रस्तावित हैं। अकेले लाहौल-स्पीति में ही 20 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, जिसमें रिलायंस, टाटा पावर, डीसीएम श्रीराम, तथा एल एंड टी जैसी अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के करोड़ों रुपये दाँव पर लगे हुए हैं। इनमें से अधिकतर सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाएँ है, जिनमें बाँध बनाने के स्थान पर बड़ी-बडी सुरंगों के द्वारा नदी के बहाव को मोड़ बिजली उत्पादित की जाती हैं। ज़्यादा से ज़्यादा बिजली उत्पादन करने के लिए कंपनियों द्वारा कई किलोमीटर लंबी सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा हैं, जिसके चलते एक तरफ तो नदियां सूखती जा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ पहाड़ों के खोखला हो जाने के कारण भूस्खलन जैसी घटनाएँ भी लगातार बढ़ रही हैं। इसके अलावा, सुरंग बनाने के लिए किये जाने वाले धमाकों के कारण लोगों के घरों को भयंकर नुकसान पहुँच रहा है, तथा कई गाँव तो अब बिल्कुल नष्ट होने के कगार पर पहुँच चुके हैं।
इनसे पैदा होने वाले दुष्प्रभावों के कारण इन तमाम परियोजनाओं के खिलाफ जनता का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है तथा वह रह-रह कर सड़कों पर उतर रही है, परंतु एक सही राजनीतिक लाइन न होने के कारण ये तमाम आंदोलन व्यापक रूप धारण नहीं कर पा रहे हैं। जिसका एक प्रमुख कारण हैं कि इनका नेतृत्व एन.जी.ओ. तथा पर्यावरणवादियों के हाथ में है, जो सिर्फ पर्यावरण को इनसे होने वाले नुकसान की बात करते हैं, परंतु पूँजीवादी व्यवस्था पर कोई सवाल खड़ा नहीं करते जो कि इस तबाही का मूल कारण है। इस बात में कोई शक नहीं है कि मनुष्य ने अब तक जो भी विकास किया है वह प्रकृति पर विजय प्राप्त किये बिना संभव नहीं हो सकता था। हाँ, इतना जरूर है कि ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने की अंधी हवस के चलते पूँजीपतियों ने धरती के अस्तित्व पर ही गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि पर्यावरण को बचाने के नाम पर आधुनिक तकनीक तथा उद्योगों को ही तिलाँजलि दे दी जाये, बल्कि इसका असली समाधान तो एक समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है, जहाँ उत्पादन के संसाधनों पर समस्त जनता का अधिकार होगा। केवल तभी पर्यावरण की हिफ़ाज़त और मनुष्यता के लिए ज़रूरी विकास के बीच सही सन्तुलन कायम किया जा सकेगा। अतः अगर हम इस पृथ्वी को विनाश से बचाना चाहते है तो सिर्फ पर्यावरण दिवस पर फ़ूल-पौधे लगाने से काम नहीं चलेगा, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंककर एक समतापूर्ण व्यवस्था का निर्माण करने के लिए जनता को लामबंद करने के काम को मुख्य एजेंडे पर रखना होगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2015
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