कब तक अन्‍धविश्‍वास की बलि चढ़ती रहेंगी महिलाएं 

श्वेता

बीती 7 अगस्त की रात को झारखण्ड के कांझिया माराएतोली गाँव में पाँच महिलाओं को डायन घोषित कर और उन्हें निर्वस्त्र करके बर्बर तरीके से मार दिया गया। गाँव वालों का आरोप था कि ये पाँचों महिलाएँ बच्चों पर काला जादू करती थीं जिससे या तो बच्चे बीमार हो जाते या उनकी मौत हो जाती। हाल ही में गाँव में एक 18 वर्षीय लड़के की मौत के लिए भी इन्हीं पाँच महिलाओं को ज़िम्मेदार ठहराया गया और उसके बाद उनकी हत्या कर दी गयी। सात अगस्त की रात को करीब 100 गाँव वाले हथियार लेकर जबरन इन पाँचों महिलाओं के घरों में घुसे, उन्हें घसीटकर मैदान में ले गए। वहाँ पंचायत बुलाकर उन्हें निर्वस्त्र करके चाकूओं, लाठियों और पत्थरों से तब तक मारते रहे जब तक उन पाँचों महिलाओं की मौत नहीं हो गई। मौत का यह तांडव पाँच घण्टों तक अनवरत जारी रहा। मृतकाओं के परिवार वालों ने पुलिस को बुलाया पर उस दौरान बिना कोई कार्रवाई किये वह वापिस चली गयी।

witchइस तरह की घटना न तो पहली है न ही आखि़री। ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2008-2013 के बीच इसी तरह डायन घोषित करके झारखण्ड में 220 महिलाओं, उड़ीसा में 177 महिलाओं, आंध्रप्रदेश में 143 महिलाओं और हरियाणा में 117 महलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इस दौरान पूरे देश में ऐसी 2,257 हत्याओं को अंजाम दिया गया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यह आँकड़े संपूर्ण वास्तविक तस्वीर को बयान नहीं करते क्योंकि अधिकतर मामले या तो पीड़ित परिवार वाले गुनाहगारों के डर से दर्ज नहीं कराते या फिर पुलिसवाले मामले को दर्ज करने में आनाकानी करते हैं।

अक़सर इस बर्बर कुप्रथा का दंश अकेली रह रही विधवा महिलाओं को झेलना पड़ता है। डायन घोषित करके उन्हें बर्बर तरीके से प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है। निर्वस्त्र करना, सिर मुंडवाना, दाँत तोड़ना, मल-मूत्र खाने और जानवरों का खून पीने को बाध्य किया जाना, जान से मार डालना तो इस बर्बरता के कुछ उदाहरण मात्र है। जिन महिलाओं को मारा नहीं जाता उन्हें गाँव से बेदखल कर जीवन के बुनियादी संसाधनों तक से वंचित करके नए इलाकों में रहने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। वैसे तो कहने के लिए कई राज्यों (झारखंड, छतीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और राजस्थान) में डायन कुप्रथा के खि़लाफ़ कानून भी मौजूद है पर किताबों की शोभा बढा़ने के अलावा उनके अस्तित्व का कोई महत्व नहीं है।

ग़ौर करने लायक तथ्य यह है कि अधिकांश मामलों में इस निरंकुश कुप्रथा की आड़ में ज़मीन हथियाने और ज़मीन संबंधी विवादों को कानूनेतर तरीकों से सुलटाने के इरादों को अंजाम दिया जाता है। अक़सर जब किसी परिवार में पति की मृत्यु के बाद ज़मीन का मालिकाना उसकी स्त्री को हस्तांतरित होता है तब नाते-रिश्तेदार ज़मीन को हथियाने के लिए इस बर्बर कुप्रथा का सहारा लेते हैं। विधवा महिला को डायन घोषित करके तमाम प्रकोपों, आपदाओं-विपदाओं, दुर्घटनाओं, बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर उसकी सामूहिक हत्या कर दी जाती है और इस तरह ज़मीन हथियाने के उनके इरादे पूरे हो जाते हैं। चूँकि भारतीय जनमानस में भी यह अंधविश्वास, कि उनके दुखों और तकलीफ़ों के लिए डायनों द्वारा किया गया काला जादू ज़िम्मेदार है, गहरे तक जड़ जमाये हुए है इसलिए वह डायन घोषित की गई महिलाओं की हत्या को न्यायसंगत ठहराने के साथ ही साथ इन क्रूरतम हत्याओं को अंजाम दिए जाने की बर्बर प्रक्रिया में भी शामिल होता है। निजी संपत्ति पर अधिकार जमाने की भूख को इस बर्बर निरंकुश स्त्री विरोधी कुकर्म से शांत किया जाता है।

प्रश्न तो यह उठता है कि आखि़र वे कौन से कारण हैं जिनके चलते हम इस आदिम कुप्रथा को आधुनिक युग में भी ढ़ोते चले जा रहे हैं। भारतीय पूँजीवाद पश्चिमी यूरोपीय पूँजीवाद की तरह पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रांति की प्रक्रिया से होकर नहीं गुज़रा। पश्चिमी पूँजीवादी समाजों में क्रांतियों ने समाज में मौजूद तमाम पिछड़े, पुरातनपंथी मूल्यों को रैडीकल तरीके से समाज की जड़ों से उखाड़कर उनके स्थान पर तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पताका को लहराने का काम किया। यह बात और है कि आज का पश्चिमी पूँजीवाद भी बीमार और ह्रासमान है और अपनी सारी प्रगतिशीलता खो चुका है, हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं कि एक समय पश्चिमी पूँजीवाद तर्क, विज्ञान, जनवाद, के शानदार मूल्यों का वाहक था। भारतीय समाज इन क्रांतियों की उथल-पुथल से सर्वथा वंचित रह गया। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राक्-औपनिवेशिक भारत में स्वतंत्र पूँजीवादी विकास की जो संभावनाएँ मौजूद थी उसे ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने बाधित कर दिया। भारतीय पूँजीवाद उपनिवेशवाद के गर्भ से पैदा हुआ विकलांग और बौना पूँजीवाद है जिसने अपने अनुरूप संस्कृति निर्मित की है। भारतीय पूँजीवाद ने शताब्दियों से चले आ रहे तमाम निरंकुश, स्त्री विरोधी सड़े-गले मूल्यों, अंधविश्वास आदि को ध्वस्त करने के बजाय अपना लिया और नए के नाम पर जो कुछ स्थापित किया वह भी निरंकुश ही था। यह तमाम पुरातनपंथी मूल्य समाज के पोर-पोर में इस तरह रचे बसे है कि आज भी भारतीय जन जादू-टोना, तन्त्र-मन्त्र, झाड़-फूँक जैसे तमाम अंधविश्वासों में यकीन करता है। प्राकृतिक एवं सामाजिक परिघटनाओं के प्रति वैज्ञानिक नज़रिये का अभाव उन्हें अंधविश्वास की शरण में ले जाता है।

यहाँ हमें यह भी समझना होगा कि आज पूंजीवाद बड़े पैमाने पर निजीकरण का पाटा चलाकर जनता से उसकी बुनियादी सुविधाओं (स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार आदि) को लगातार छीनकर उसे हाशिये पर धकेलने का काम कर रहा है। दरअसल सच्चाई तो यह है कि पूँजी की गति ऐसी ही है कि वह करोड़ों मेहनतकशों को दरिद्रता और तकलीफ़ों के सागर में डुबाकर ही खुद फलती फूलती है। तर्क के अभाव में जनता अपनी विपन्नता के लिए पूँजीवाद को ज़िम्मेदार ठहराने की जगह अलौकिक शक्तियों और भूत-प्रेत, अपने ‘‘पिछले जन्म’’ के कर्म इत्यादि को ज़िम्मेदार ठहराती हैं और इन्हें शांत करने के लिए जादू-टोना, तन्त्र-मन्त्र, ओझा और किस्म-किस्म के बाबाओं का सहारा लेती है। यह अनायास नहीं है कि पूँजीवाद जनता की इसी अज्ञानता का फ़ायदा उठाकर आज अंधविश्वास को बढ़ावा देने की कवायदों में लगा है और उसने इसे एक संगठित उद्योग में बदल दिया है। कुकुरमुत्तों की तरह फैले सैंकड़ों बाबा, ओझा-सोखा और तथाकथित चमत्कारी लॉकेटों के व्यापारी इसका जीता जागता प्रमाण हैं। जनता का अंधविश्वास के भंवर में कैद रहना पूँजीवाद के लिए वरदान और जनता के लिए अभिशाप है।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2015


 

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