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सलवा जुडूम का नया संस्करण

सलवा जुडूम के इन सभी रूपों को सरकारी संरक्षण के अलावा उद्योगपतियों, स्थानीय ठेकेदारों की सरपरस्ती भी प्राप्त है। यह अनायास नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की संख्या 21 कम्पनी और बढ़ायी गयी है। सरकारें विकास के नाम पर जितने बड़े पैमाने पर लोगों को जगह-ज़मीन से उजाड़ रही है उसके परिणामस्वरूप उठने वाले जन असन्तोषों से निपटने की तैयारी के लिए ही लगातार पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में भी बढ़ोतरी की कवायदें की जा रही हैं। दांतेवाड़ा में अर्द्धसैनिक बलों की हालिया बढ़ोतरी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अमेरिका के फ़ास्ट फ़ूड कामगारों का संघर्ष

‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ आन्दोलन की नींव वर्ष 2012 में तब पड़ी जब नवम्बर माह में मैकडॉनल्ड, सबवे, बर्गर किंग, केएफ़सी जैसी बड़ी फ़ास्ट फ़ूड कम्पनियों के कामगारों ने अपनी माँगों को लेकर न्यूयॉर्क शहर में विरोध प्रदर्शन एवं हड़तालें संगठित कीं। धीरे-धीरे वह आन्दोलन गति पकड़ता हुआ अमेरिका के 200 अन्य शहरों में फैल गया। नतीजतन बीती 15 अप्रैल को अलग-अलग पेशों के क़रीब 60,000 कामगार ‘फ़ाइट फ़ॉर 15 डॉलर’ के बैनर तले विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए

समाजवादी चीन ने स्त्रियों की गुलामी की बेड़ियों को कैसे तोड़ा

समाजवादी चीन (1949-1976) ने महिला मुक्ति के मोर्चे पर जो कुछ भी हासिल किया था उसके मूल में कानूनी परिवर्तन नहीं बल्कि वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन थे जिन्हें क्रान्ति ने सम्पन्न किया था। यूँ तो पूँजीवादी समाजों में भी महिलाओं के लिए कानून बनाये जाते हैं, लेकिन इन कानूनों से मिलने वाले लाभ पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की वजह से निष्प्रभावी हो जाते हैं और इस तरह पूँजीवाद में कानून होने के बावजूद स्त्रियों की दासता बनी रहती है और स्त्री-पुरुष समानता दूर की कड़ी नज़र आती है।

पुलिसकर्मियों में व्याप्त घनघोर स्त्री-विरोधी विचार

समाज में स्त्री विरोधी विचार वैसे तो हमेशा ही मौजूद रहते हैं, पर कभी-कभी वे भद्दे और वीभत्स रूप में अभिव्यक्त हो जाते हैं। यही कृष्ण बलदेव की अभिव्यक्तियों में दिखा। इन महोदय के अनुसार – “आजकल की लड़कियाँ बिगड़ रही हैं, फ़िल्में देखने जाती हैं।” आगे उसने कहा – “यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामले तो फ़र्जी होते हैं, महिलाओं द्वारा लगाये गये अधिकतर आरोप तो बेबुनियाद होते हैं और इनसे हमारा काम बढ़ जाता है।” एक केस पर चर्चा के दौरान इन जनाब का कहना था, “इस महिला के चारित्रिक पतन की हद देखिये, देवता तुल्य अपने ससुर पर मनगढ़न्त आरोप लगाकर उन्हें परेशान कर रही है, बेचारे रोज़ चौकी के चक्कर काट रहे हैं।”

आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग की मुक्ति असम्भव है

चूँकि महिलाओं की श्रमशक्ति सस्ती क़ीमत पर उपलब्ध होती है, इसलिए पूँजीवाद अपने मुनाफ़े की दरों को बढ़ाने के लिए महिलाओं को घर की चौहद्दियों से निकालकर कारख़ानों का हिस्सा बनाता है। पूँजीवाद महिलाओं की मुक्ति के नज़रिये से नहीं बल्कि पूँजी के हितों की रक्षा के लिए यह क़दम उठाता है। हालाँकि पूँजीवाद द्वारा उठाये गये इस क़दम की तार्किक परिणति यह होती है कि वह महिलाओं को उजरती श्रम का हिस्सा बनाकर मज़दूर वर्ग की ताक़त को बढ़ाता है। यही मज़दूर वर्ग पूँजीवाद की कब्र खोदने का काम करता है। इस लिहाज़ से देखा जाये तो महिलाओं का घर की चौहद्दियों से बाहर निकलकर सामूहिक उत्पादन जगत का हिस्सा बनना एक सकारात्मक क़दम है।

निठारी काण्ड का फैसला: पूँजीवादी व्यवस्था में ग़रीबों-मेहनतकशों को इंसाफ़ मिल ही नहीं सकता

एक बार फिर ‘‘न्याय’’ का तराजू अमीरों के पक्ष में झुक गया। भारतीय न्यायपालिका ने रईसों के प्रति अपनी पक्षधरता को जाहिर करते हुए एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता के लिए इस न्याय व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है, न्यायपालिका की निष्पक्षता की तमाम लच्छेदार बातें महज़ एक भ्रम है और न्यायपालिका अन्य संस्थाओं की ही तरह देशी-विदेशी पूँजी एवं उसके चाटुकारों की सेवा में पूरी तरह सन्नद्ध है।

माइकल ब्राउन हत्याकाण्ड: एक शोकगीत जिसका अन्त निश्चित है

अमेरिकी पुलिस द्वारा इतने बड़े पैमाने पर अश्वेत आबादी की नृशंस हत्या को अंजाम दिए जाने का एक कारण तो श्वेत आबादी के दिलों में बरसों से अश्वेतों के प्रति पैठी गहरी घृणा भावना है। दूसरा, अमेरिका में अश्वेत आबादी के सामाजिक-आर्थिक हालात ने उनके बीच जिस असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है उससे उनके दिलों में असंतोष की चिंगारी सुलग रही है। इस असंतोष की बारीक से बारीक अभिव्यक्ति को अमेरिकी शासकों द्वारा बन्दूक की नोक से शांत किया जाता रहा है। अगर अकेले फ़र्ग्यूसन शहर की बात करें तो 21,000 की आबादी वाले इस शहर में 67 प्रतिशत अश्वेत आबादी रहती है। इनमें बेरोज़गारी की दर 13 प्रतिशत है और यहाँ हर चार में से एक अश्वेत ग़रीब है।

पूँजीवादी पाशविकता की बलि चढ़ते मासूम बच्चे

इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चों के खिलाफ़ होने वाले अपराधों का शिकार आमतौर से गरीब परिवारों और निम्न मध्‍यम वर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे होते हैं। अक्सर ही ऐसे परिवारों में गुजर बसर के लिए स्‍त्री और पुरूष दोनों को ही मेहनत मज़दूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालाँकि 12-14 घंटे लगातार अपना हाड़-मांस गलाने के बावजूद उन्हें इतनी कम मज़दूरी मिलती है कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता है। ऐसे हालात में बच्चे घरों में अकेले रह जाते हैं, वे असुरक्षित होते हैं इसलिए तमाम अपराधियों का आसानी से शिकार बनते हैं।