कश्मीर : आओ देखो गलियों में बहता लहू
श्वेता कौल
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘देश काग़ज़ पर बना कोई नक्शा नहीं होता’ की ये पंक्तियाँ कश्मीर में पिछले कई दशकों से मौजूद नारकीय हालात और कश्मीरी जनता के प्रति खाये-पीये-अघाये मध्यवर्ग की बेरुखी को काफ़ी हद तक बयान कर देती हैं। यह वह वर्ग है जो ”देशभक्ति” और ”राष्ट्रवाद” के नाम पर बहाई जा रही आँधी में ज़ोर-शोर से मदमस्त हुआ जा रहा है। उसके लिए कश्मीर का मतलब भारत के नक्शे के ‘ताज’ से अधिक कुछ नहीं। कश्मीर की जनता किस प्रकार पिछले ढ़ाई दशकों से सशस्त्र बलों की मौजूदगी में रोज़-रोज़ तिल-तिलकर मर रही है, इससे इस वर्ग को कोई फर्क नहीं पड़ता। बहरहाल अपवादों को छोड़कर संपूर्णता में इस वर्ग से तो यूं भी जन-सरोकारों की उम्मीद करना बेवकूफ़ी होगी लेकिन हम मेहनतकशों को कश्मीर में मौजूद हालात, कश्मीरी जनता की आकांक्षाओं और भारतीय राज्य से उसके अलगाव के कारणों को तो जानना-समझना ही होगा और साथ ही इस समस्या के प्रति एक सही नज़रिया भी विकसित करना होगा।
हम हालिया घटनाक्रम से अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं। बीती 16 अप्रैल को कश्मीर के कुपवाड़ा जि़ला के हंदवारा इलाके में एक सैन्यकर्मी ने 16 वर्षीय छात्रा के साथ छेड़छाड़ की। बाद में सैन्य बलों ने इस घटना का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों पर फायरिंग की जिसमें पांच लोगों की जान चली गयी। यही नहीं पुलिस ने पीडित छात्रा और उसके पिता पर दबाव बनाने के लिए उन्हें हिरासत में लिया। पीडिता पर दबाव डाला गया कि वह सैन्यकर्मी के खि़लाफ़ दिए अपने बयान को वापस ले ले।
कश्मीर में सैन्य दलों द्वारा स्थानीय लोगों पर ढाए जाने वाले ज़ुल्मो–सितम की न तो यह पहली घटना है न ही आखिरी। उनके वहशियाना हरकतों की फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है। फरवरी 1991 में कुपवाड़ा जि़ले के ही कुनन-पोशपोरा गाँव में पहले गाँव के पुरुषों को हिरासत में लिया गया, यातनाएँ दी गयीं और बाद में राजपूताना राइफलस के सैन्यकर्मियों द्वारा गाँव की अनेक महिलाओं का उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने बलात्कार किया गया। (अनेक स्रोत इनकी संख्या 23 बताते हैं लेकिन प्रतिष्ठित अन्तरराष्ट्रीय संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ सहित कई मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह संख्या 100 तक हो सकती है।) वर्ष 2009 में सशस्त्र बल द्वारा शोपियां जि़ले में दो महिलाओं का बलात्कार करके उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। बढ़ते जनदबाव के बाद कहीं जाकर राज्य पुलिस ने एफ़.आई.आर. दर्ज की। सी.बी.आई. को जांच के आदेश दिये गये और बेशर्मी का परिचय देते हुए उसने सैनिकों द्वारा महिलाओं के साथ किये गये बलात्कार और हत्या की बात को ही ख़ारिज कर दिया। यही नहीं जनवरी 1990 में गावकदल में पैरामिलीट्री बलों द्वारा 52 प्रदर्शनकारियों की निर्मम हत्या, 2000 में छत्तीसिंहपुरा, पथरीबल, बराकपुर और 2010 की माछिल फर्जी मुठभेड़ों और वर्ष 2010 में ही तुफैल मट्टू की सेना की गोलाबारी में हुई मौत के बाद पूरी कश्मीर घाटी में उठे व्यापक जनउभार में सैन्य बल द्वारा अपनी गोलियों से 100 से अधिक युवाओं, किशोरों और बच्चों की जान लिये जाने की घटनाएँ आम तौर पर प्रश्नों से परे समझे जाने वाली सेना पर और साथ ही साथ जनवाद का ढ़ोंग करने वाले राज्य पर भी कई प्रश्न चिह्न खड़े करती है। अगर आँकड़ों की बात करें तो जनवरी 1989 से लेकर मार्च 31, 2016 तक करीब 94,332 कश्मीरियों की हत्या की गयी है जिसमें 7,043 हत्याएँ हिरासत में हुई हैं। एक लाख से अधिक कश्मीरी जेल की सलाखों के पीछे हैं। दस हज़ार से अधिक महिलाओं का सेना द्वारा बलात्कार किया गया है। कई रिपोर्टें और अदालतों में दाखिल दस्तावेज़ इसकी पुष्टि करते हैं।
ग़ौरतलब है कि भारतीय राज्य द्वारा सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी आफ्सपा (AFSPA) कानून 1958 में बनाया गया। आफ्सपा और कुछ नहीं राज्यसत्ता द्वारा जनता के दमन और उत्पीड़न का एक ऐसा औज़ार है जो जनवाद की चादर ओढ़े इस पूँजीवादी निज़ाम की हकीकत को तार-तार कर देता है। आफ्सपा कानून को उत्तर-पूर्वी राज्यों और पंजाब के बाद 1990 में आतंकवाद का बहाना बनाकर कश्मीर में लागू किया गया जिसके तहत सेना को असीमित अधिकार दिए गये। इस कानून के तहत सेना महज़ शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकती है, किसी भी इमारत को तबाह कर सकती है। आज जब कश्मीर में आतंकवाद नगण्य होने की कगार पर है तब भी इस कानून और सशस्त्र सुरक्षा बल की लाखों की तादाद में मौजूदगी एक सवालिया निशान छोड़ देती है। सेना की गैर-ज़रूरी मौजूदगी को कश्मीरी जनता भारतीय राज्यसत्ता द्वारा उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा समझती है और इसलिए भारतीय राज्यसत्ता के हर प्रतीक से वह तहेदिल से नफ़रत करती है। भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीर की जनता के दमन, उत्पीड़न और ऐतिहासिक विश्वासघात का एक लम्बा इतिहास है जिसे कश्मीरी वाम की आने वाली पीढि़याँ कभी नहीं भूलेंगी। कश्मीरी जनता जिस भी हद तक संभव है उस हद तक भारतीय राज्यसत्ता की बेशर्म कारगुज़रियों का विरोध भी कर रही है और आगे भी करती रहेगी।
अगर हम इतिहास मे थोड़ा पीछे की ओर मुडें तो हमें भारतीय राज्यसत्ता के प्रति कश्मीरी जनता में मौजूद नफ़रत और अलगाव के कारणों को पता चलेगा। अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद होने के समय जम्मू और कश्मीर उन 562 रियासतों में से एक था जो अंग्रेजी राज्य के अधीन था। आज़ादी के बाद हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू–कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी रियासतों के राजे-रजवाड़ों ने या तो भारत या फिर पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला लिया। हैदराबाद का निज़ाम एक स्वतंत्र राष्ट्र के सपने देख रहा था और जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था। इन दोनों रियासतों के विलय के संदर्भ में भारतीय राज्यसत्ता ने दलील दी कि उनके विलय से संबंधित फैसले का अधिकार उन रियासतों के शासकों को नहीं बल्कि वहाँ की जनता को हासिल होगा। इसके मद्देनज़र जूनागढ़ में आत्मनिर्णय का अधिकार दिया गया और जनमत संग्रह कराया गया। अन्तत: दोनों ही रियासतें भारत में शामिल हुई।
अंग्रेज़ी गुलामी से आज़ादी के बाद भी कश्मीर में हरी सिंह अपने वंश के शासन को बरकरार रखने के लिए भारत और पाकिस्तान में विलय की अपेक्षा एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाना चाहता था। कश्मीरी जनता में आज़ादी की लड़ाई के दौर से ही जिस नेता की सबसे अधिक साख़ थी वे थे शेख अब्दुल्लाह। शेख अब्दुल्लाह सांप्रदायिक आधार पर पाकिस्तान में शामिल होने के हिमायती नहीं थे। आज़ादी के तुरंत बाद पाकिस्तान द्वारा समर्थित कबायली हमले के बाद तो शेख अब्दुल्लाह पाकिस्तान में शामिल होने के विरोधी हो गये, हालाँकि वे भारतीय राज्य में शामिल होने को लेकर भी काफ़ी सशंकित थे। वर्ष 1947 से 1953 तक शेख अब्दुल्लाह कश्मीर के पाकिस्तान में विलय और जनमत संग्रह की अपेक्षा स्वायत्ता के पक्षधर थे। अपनी राष्ट्रीय असमिता के प्रति सचेत कश्मीरी जनता भी किसी शर्त को सामने रखे बगैर भारत में शामिल होने को लेकर दुविधा में थी। आखि़रकार काफ़ी राजनीतिक मंथन के बाद कश्मीर इस शर्त पर भारत में शामिल हुआ कि विदेशी मामलों, मुद्रा चलन और सुरक्षा मसलों के अतिरिक्त भारतीय राज्य कश्मीर के मामलों में दख़ल नहीं देगा। इसी आधार पर संविधान में धारा 370 को शामिल किया गया। कश्मीर के भारत में शामिल होने पर कश्मीरी जनता से भविष्य में जनमत संग्रह कराने का वायदा किया गया था जो कभी पूरा नहीं किया गया। नेहरू का तर्क था कि पाकिस्तान समर्थित हमले के बाद जब पाकिस्तान कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी हिस्से से अपनी सेना वापस बुला लेगा तब जनमत संग्रह कराया जाएगा। पाकिस्तानी हुक़्मरानों ने अपना कब्ज़ा छोड़ा नहीं और इस प्रकार भारतीय राज्यसत्ता ने जनमत संग्रह से इंकार कर दिया।
इधर दूसरी ओर जम्मू में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ द्वारा समर्थित प्रजा परिषद आंदोलन के बाद कश्मीर समस्या का तेज़ी से सांप्रदायिकीकरण ह़ुआ। इसका नतीजा़ था कि कश्मीरी जनता का भारत से अलगाव बढ़ने लगा और साथ ही साथ शेख अब्दुल्लाह अब भारतीय राज्य के भीतर कश्मीर की स्वायत्ता की बजाय कश्मीर की आज़ादी के बारे में विचारने लगे। इसके बाद नेहरू और शेख अब्दुल्लाह के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी और अन्तत: 1953 में नेहरू ने शेख अब्दुल्लाह की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर दिया। शेख अब्दुल्लाह की जगह भारतीय राज्य ने अपने पिट्ठू बख़्शी गुलाम मोहम्मद को जम्मू-कश्मीर का जि़म्मा सौंप दिया। इसके बाद तो नेहरू कश्मीर में जनमत संग्रह के अपने वायदे से पूरी तरह मुकर गये। 1964 में शेख अब्दुल्लाह जब रिहा हुए तब तक कश्मीर के जनमत संग्रह और स्वायत्तता के मसले पर उनका रुख काफ़ी समझौता परस्त हो चुका था। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद उन्होने भारत सरकार के सामने अपने घ़ुटने पूरी तरह टेक दिए। 1975 में इंदिरा गाँधी-शेख अब्दुल्लाह के बीच हुए समझौते के तहत शेख अब्दुल्लाह ने धारा 370 की प्रभावहीनता को भी मंज़ूरी दे दी।
इस ऐतिहासिक विश्वासघात ने कश्मीर की जनता में अलगाव को और अधिक बढ़ाया। बहरहाल इस पूरे दौर में कश्मीर में जनमत संग्रह और स्वायत्तता की माँग को लेकर अलग-अलग संगठन कश्मीरी जनता के बीच सक्रिय रहे। यही वह दौर भी था जब पाकिस्तान ने कश्मीर में आतंकवाद को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया। 1989 से लेकर 1991-92 के बीच कई हज़ार कश्मीरियों ने आतंकवाद और भारतीय राज्यसत्ता के आपसी टकरावों की कीमत चुकायी। भारतीय राज्यसत्ता के विश्वासघात और सेना द्वारा कश्मीरी जनता पर ढाये जाने वाले दमन और बर्बरता ने वह ज़मीन काफ़ी पहले तैयार की थी जिसकी एक प्रतिक्रिया के तौर पर कश्मीरी नौजवान बड़ी तादाद में आतंकवाद और धार्मिक कट्टरपंथ के रास्ते पर आगे बढ़ने लगे। 1989 से भारतीय राज्य ने आतंकवाद के खिलाफ़ बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान चलाया और इसी दौर में कुख्यात कानून आफ्सपा भी लागू किया गया। इस दौरान आतंकवाद का मुकाबला करने के नाम पर सेना ने कश्मीरी जनता का बर्बर दमन और उत्पीड़न किया जो कि आज तक बदस्तूर जारी है। आतंकवाद के काफ़ी हद तक कुचल दिए जाने के बावजूद सैन्य उपस्थिति को भारतीय राज्यसत्ता एक हज़ार एक बहानों से जायज़ ठहराकर जनमानस को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रही है।
पिछले लगभग छ: दशकों से भी अधिक समय के दौरान भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी से उसकी आज़ादी की आकांक्षाएँ और प्रबल हुई है और साथ ही भारतीय राज्यसत्ता से उसका अलगाव भी बढ़ता रहा है। बहरहाल सैन्य दमन के बावजूद कश्मीरी जनता की स्वायत्तता और आत्मनिर्णय की माँग कभी भी दबाई नहीं जा सकती। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि पूँजीवाद के भीतर यह माँग कभी पूरी भी नहीं होगी। भारतीय शासक वर्ग अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाते हुए कश्मीर पर अपने अधिकार को बनाये रखेगा। भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक वर्ग अपने हितों को साधने के नज़रिये से कश्मीर को राष्ट्रीय शान का प्रश्न बनाए रखेंगे।
कश्मीर के आवाम की महत्वकांक्षा की पूर्ति तो एक समाजवादी समाज में ही संभव है जहाँ कश्मीर सहित अन्य दमित राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय का पूरा अधिकार हासिल होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि कश्मीर और अन्य राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का संघर्ष समाजवाद के लिए सर्वहारा क्रांति के संघर्ष के साथ जुड़ा है।
मज़दूर बिगुल, मई 2016
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