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रतन टाटा : अच्छे पूँजीवाद का ‘पोस्टर बॉय’
‘कामगार बिगुल’ (मराठी)
मराठी से हिन्दी में अनुवाद : भारत
बीते 9 अक्टूबर को भारत के एक उद्योगपति रतन टाटा का देहान्त हो गया। इस “अच्छे प्रगतिशील पूँजीपति” की मौत पर बहुतेरे प्रगतिशील लोग दहाड़े मार-मार कर रो रहे हैं। आइए विस्तार में जानते हैं पूँजीवाद के इस “नैतिक पूँजीपति” के बारे में!
कोई पूँजीपति कितना “नैतिक” है, इस पर बात करने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि पूँजीवाद स्वयं एक अनैतिक व्यवस्था है। प्रत्येक पूँजीपति का अस्तित्व श्रम के शोषण पर निर्भर करता है और इसलिए उनकी नैतिकता पूँजीवादी नैतिकता है। चाहे टाटा हो, बिड़ला हो, अम्बानी हो, अडानी हो या कोई अन्य छोटे-बड़े पूँजीपति हों, ये सभी मज़दूर वर्ग का शोषण करके ही बड़े हुए हैं और जीवित हैं। मुनाफ़े की बेलगाम चाहत ही ‘मूल पाप’ है जो इस वर्ग को भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, दोहरेपन, क्रूरता की ओर ले जाता है। लेकिन ‘टाटा’ समूह का नाम देश के उदारवादियों की नज़र में एक तावीज़ बन गया है और इस समूह को ईमानदारी, सादगी, नैतिकता, देशभक्ति और पूँजीवाद में “शुद्ध” होने वाली हर चीज़ का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है। यह इस भ्रम को भी बढ़ावा देता है कि अच्छा पूँजीवाद अस्तित्व में आ सकता है। इसलिए टाटा के बारे में फैले इस भ्रम को दूर करना ज़रूरी है। वकीलों, वेतनभोगी पत्रकारों, पी.आर एजेण्टों और बुद्धिजीवियों की एक फ़ौज है जो पूँजीपतियों और पूँजीवादी व्यवस्था की सही छवि बनाने के लिए दिन-रात काम करती है। टाटा समूह इस प्रकार के छवि निर्माण के मानक स्थापित करने में अग्रणी है। सभी मुख्यधारा मीडिया में ‘उद्योगपति’ जे.आर.डी. टाटा और उनके बेटे रतन टाटा की ‘सदाचारी’ छवि लगातार बनायी जाती है। लेकिन टाटा समूह के ‘सरल जीवन शैली’, ‘नैतिक व्यावसायिक व्यवहार’ जैसे दावों के पीछे झूठ, भ्रष्ट सौदे, हत्याएँ, विस्थापन की कई परतें हैं। आइए इन ‘परोपकारी’ टाटाओं के असली चेहरे को समझें।
“स्वदेशी” टाटा ने हमेशा अंग्रेज़ों से हाथ मिलाया!
टाटा के बारे में जनता को जो बताया जाता है वह यह है: एक बार जमशेदजी नुसरवानजी टाटा नाम के एक दूरदर्शी व्यक्ति थे, जिन्होंने एक व्यापारिक कम्पनी (1868) की स्थापना की, फिर नागपुर में एक कपड़ा मिल (1877) की स्थापना की और बाद में उनके समान दूरदर्शी बेटे ने उनकी जगह ली। 19वीं शताब्दी के अन्त में शुरू हुई देशभक्ति की लहर के परिणामस्वरूप ब्रिटिश काल के दौरान ‘देशभक्तिपूर्ण प्रयास’ में टाटा ने साकची (1907) में देश का पहला भारतीय स्वामित्व वाला इस्पात संयन्त्र स्थापित किया। ऐसा कहा जाता है कि टाटा का मानना था कि स्टील भारत की आधुनिकता का प्रतीक होगा और उन्हें विश्वास था कि यह उद्देश्यपूर्ण उद्योग देश में समृद्धि लायेगा और ब्रिटिश युग की शोषणकारी प्रथाओं को उलट देगा। अफ़ीम के व्यापार से और 1857 में ईरान और 1868 में इथियोपिया पर हमले के दौरान ब्रिटिश सेना से कच्चा माल प्राप्त कर टाटा ने कपास निर्यात अनुबन्धों से प्रारम्भिक पूँजी जुटायी। पहली कपास मिल का नाम अलेक्सन्द्रा मिल था, जो ब्रिटिश रानी और भारत की साम्राज्ञी के प्रति “भक्ति” का प्रतीक था!
1890 के दशक के अन्त में, ब्रिटिश सरकार भारत में लोहा और इस्पात संयन्त्र स्थापित करने के लिए उत्सुक थी। चूँकि अमेरिका और जर्मनी इस्पात उत्पादन में ब्रिटेन से आगे थे, इसलिए यह स्पष्ट है कि इस आवश्यकता के पीछे आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य कारण थे। भारत के ब्रिटिश सचिव लॉर्ड हैमिल्टन ने वायसराय लॉर्ड कर्ज़न को चेतावनी दी थी कि जर्मनी और अमेरिका सस्ता और अधिक वैज्ञानिक तरीक़े से स्टील बना रहे हैं और यदि भारत में स्टील उद्योग विकसित नहीं हुआ, तो भारत जल्द ही जर्मन सामानों का बाज़ार बन जायेगा। साथ ही ब्रिटिश व्यापारियों के लिए यह नुक़सानदेह होगा। अंग्रेज़ों को टाटा में वह आदमी मिल गया, जिसकी उन्हें तलाश थी। जब जमशेदजी टाटा ने चिन्ता जतायी, तो हैमिल्टन ने उन्हें ब्रिटिश सरकार के पूर्ण समर्थन का आश्वासन दिया और वादा निभाया। 5 जून 1912 को लिखे एक पत्र में टाटा ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गयी “बहुत उदार रियायतों” के लिए अपना आभार व्यक्त किया। बिहार के साकची में सरकार द्वारा अधिग्रहित भूमि का एक बड़ा हिस्सा टाटा को सौंप दिया गया। रेलवे बोर्ड का काम शुरू होने से पहले स्टील के लिए टिस्को (टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, टिस्को) से माँग रखी गयी। तो यह है टाटा के “राष्ट्रवादी” प्रयास की पृष्ठभूमि, जिसके तहत उन्होंने “एकल-उद्देश्यीय” इस्पात परियोजना स्थापित की और इसके बारे में टाटा के शागिर्द इतिहासकार लिखते ही नहीं। कहा जाता है कि टिस्को ने सभी सरकारी और विदेशी सहायता को अस्वीकार कर दिया था। उसकी पूरी पूँजी 3 महीने के भीतर भारतीयों द्वारा जुटायी गयी थी। यह दावा कि टिस्को ने “सरकारी और विदेशी सहायता को अस्वीकार कर दिया है” बिल्कुल ग़लत है। जब लन्दन में प्रारम्भिक पूँजी जुटाने के प्रयास विफ़ल हो गये, तो प्रारम्भिक पूँजी प्रदान करने वाले भारतीय ज़्यादातर ज़मींदार, व्यापारी और राजनेता थे, जिनमें से एक ग्वालियर के महाराजा भी थे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इन सभी के द्वारा निवेश किया गया पैसा देश की मेहनतकश जनता के शोषण से प्राप्त हुआ था। भारत के वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने 2 जनवरी 1919 को टिस्को के संस्थापक के सम्मान में साकची का नाम बदलकर जमशेदपुर कर दिया। 1922 में जब टिस्को वित्तीय संकट में था, तो ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश राजधानी बड़े पैमाने पर उसके बचाव में आये। इसके बाद वायसराय रीडिंग ने टाटा समूह की ओर से मिलने आये पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास (उस समय भारत के सबसे बड़े पूँजीपतियों में से एक) को बताया कि “सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि जमशेदपुर मिलों की चिमनियाँ नहीं बुझनी चाहिए”, और फिर रुपये प्रदान किये। कम्पनी को संकट से उबारने के लिए बॉण्ड के रूप में 50 लाख रु. मिले। 1910 के दशक से ब्रिटिश शासन के अन्त तक टाटा का अंग्रेज़ों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। कई वर्षों तक टाटा के कुछ निदेशक ब्रिटिश वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे। टाटा समूह को अंग्रेज़ो द्वारा लगाये गये सुरक्षात्मक कराधान प्रणाली और ब्रिटिश नियन्त्रित रेलवे और सार्वजनिक खातों के साथ अनुबन्धों से बहुत लाभ हुआ, जो कुल बिक्री का 9/10 की गारण्टी देता था। इस प्रकार एक महान स्वदेशी उद्योगपति का शोर सिर्फ़ एक खाली बर्तन है, जिसे ज़ोर-ज़ोर से बजाया जाता है।
टाटा समूह के “नैतिक” इतिहास के शर्मनाक पहलू
जब टाटा की तुलना रिलायंस या अडानी से की जाती है तो कई ‘प्रगतिशील’ नाराज़ हो जाते हैं और दावा करते हैं कि टाटा समूह ने अद्वितीय नैतिक मानकों को बनाये रखा है और इसकी तुलना इन भ्रष्ट समूहों से नहीं की जा सकती। या तो ये उदारवादी घोर अज्ञानता में जी रहे होते हैं, या अपने पसन्दीदा ब्राण्डों के कारनामों को भूलने का सचेत प्रयास कर रहे होते हैं। आइए देखते हैं टाटा ग्रुप की कुछ उपलब्धियाँ।
जून 1975 में, तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने देशव्यापी आपातकाल की घोषणा की और फिर सभी राजनीतिक विरोधियों, छात्रों और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं पर क्रूर कार्रवाई शुरू की। जेआरडी टाटा इस फ़ैसले के समर्थक हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, “चीज़े बहुत आगे बढ़ गयी थीं। आप कल्पना नहीं कर सकते कि हमें क्या सहना पड़ा। हड़तालें, बहिष्कार, प्रदर्शन। ऐसे भी दिन थे जब मैं अपने कार्यालय से बाहर नहीं निकल सकता था। संसदीय प्रणाली हमारी आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त नहीं है।” यहाँ टाटा का तात्पर्य यह है कि वह, जी.डी. बिड़ला और उनकी चौकड़ी बॉम्बे योजना के तहत जो नीतियाँ लिख रहे थे, उसमें कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप देश के लोगों के लिए महँगाई-बेरोज़गारी बढ़ी और भोजन की कमी हुई। उनके अनुसार ये मामूली मुद्दे होने चाहिए थे और जनता को विरोध करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए था।
भोपाल गैस त्रासदी में 25,000 लोग मारे गये थे। इसमें अमेरिका के पूर्व आन्तरिक सचिव हेनरी किसिंजर ने भारत सरकार पर अमेरिकी रासायनिक कम्पनी यूनियन कार्बाइड के साथ क़ानूनी समझौता करने और उसे मुक्त करने के लिए दबाव डाला। सूचना की स्वतन्त्रता अधिनियम (भारत के सूचना के अधिकार अधिनियम के समान एक अमेरिकी क़ानून) के तहत प्राप्त एक पत्र से पता चला कि भारत के स्टील टाइकून जे. तृतीय टाटा ने मई 1988 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी को एक पत्र लिखा था, जिसमें पीड़ितों व कम्पनी में समझौता कराने में हो रही देरी पर चिन्ता व्यक्त की थी। भोपाल में कार्यकर्ताओं द्वारा प्राप्त यह पत्र महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पुष्टि करता है कि दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक दुर्घटना के लिए यूनियन कार्बाइड कम्पनी को ज़िम्मेदारी से मुक्त करने में अमेरिकी सरकार और टाटा की मिलीभगत थी। भोपाल त्रासदी के पीड़ितों ने टाटा समूह पर यूनियन कार्बाइड संयन्त्र में अमेरिकी कम्पनी के निवेश के लिए “रास्ता प्रशस्त करने” का आरोप लगाते हुए इस क़दम का कड़ा विरोध किया। ये थी संक्षिप्त में जे.आर.डी. टाटा की कहानी। अब बात करते हैं उनके बेटे रतन टाटा के बारे में।
आइए रतन टाटा के योगदान पर नज़र डालें
सूचना के अधिकार में प्राप्त दस्तावेज़ों के अनुसार, 2007 में रतन टाटा ने डॉव केमिकल्स (जो अब यूनियन कार्बाइड का मालिक है) से एक अनुबन्ध के लिए आवेदन वापस लेने की माँग की और भारत सरकार ने पर्यावरण सुधार लागत के रूप में यूनियन कार्बाइड से 22 मिलियन डॉलर की जमा राशि माँगी थी। अब उस बिन्दु पर आते हैं जहाँ टाटा सबसे अधिक “सफ़ल” रहे हैं, यानी खनन और अन्य “विकास” कार्यों के लिए सस्ती दरों पर भूमि अधिग्रहण करके लोगों को विस्थापित करना। झारखण्ड में पीढ़ियाँ इस विस्थापन की गवाह बनी हैं। टिस्को यानी टाटा स्टील से विस्थापित लोगों की तीसरी या चौथी पीढ़ी समुदाय नोआमुण्डी ब्लॉक में रहती हैं। जब अंग्रेज़ों ने टाटा को ज़मीन सौंपी तो वे अपने गाँवों से विस्थापित हो गये थे। पर्याप्त मुआवज़े के बिना विस्थापन का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस द्वारा गोलीबारी करने और डराने-धमकाने के कई मामले हैं। उदाहरण के लिए, 2000 में उड़ीसा के रायगढ़ जिले में लोग टाटा स्टील की बॉक्साइट खदान के खिलाफ़ शान्तिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, पुलिस ने फायरिंग कर दी, इसमें 3 आदिवासी युवा मारे गये। इनमें से सबसे वीभत्स घटना 2 जनवरी 2006 को कलिंगनगर में हुई, जब पुलिस ने ज़मीन के अनसुलझे मुआवज़े के विवादों को लेकर टाटा स्टील परियोजना के निर्माण का विरोध कर रहे ग्रामीणों पर गोलियाँ चला दीं। इसमें 13 आदिवासी मारे गये। इसके एक साल बाद, कम्पनी ने बिना किसी हिचकिचाहट के जमशेदपुर में 100 साल के इतिहास का “जश्न” मेला आयोजित करके इस्पात उद्योग में अपनी अग्रणी भूमिका का जश्न मनाया। इस क्रूर घटना की यादें आज भी लोगों के मन में ताज़ा हैं और हर साल लोग राज्य सरकार के करतूतों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करते हैं और लोगों को यातना की याद दिलाते हैं। इसके बावजूद, इस क्रूर हमले के लिए कलेक्टर, पुलिस महानिरीक्षक और टाटा अधिकारियों को कभी दण्डित नहीं किया गया या जाँच नहीं की गयी। टाटा समूह द्वारा अत्यधिक खनन या पर्यावरण संरक्षण नियमों के उल्लंघन के बारे में समय-समय पर रिपोर्ट सामने आती रही हैं। उड़ीसा की सुकिंदा घाटी में देश का 95 प्रतिशत क्रोमाइट अयस्क भण्डार है, जिसे पिघलाकर फ़ेरोक्रोमियम बनाया जाता है, जो स्टेनलेस स्टील के उत्पादन में एक महत्वपूर्ण घटक है। 2007 में, एक आरटीआई याचिका से पता चला कि सुकिंडा में टाटा स्टील की खदानों में मानक सीमा से 20 गुना अधिक कैंसरकारी हेक्सावलेण्ट क्रोमियम था। पर्यावरणीय क्षति, हत्या और तमाम तरीक़ों से जबरन भूमि वसूली यही देश की “सबसे प्रतिष्ठित नैतिक कम्पनी” की सच्चाई है।
अडानी-अम्बानी ही नहीं, टाटा ने भी फ़ासिस्टों को पूरा समर्थन दिया है!
मोदी ने 2008 में टाटा के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की, जब उन्होंने पश्चिम बंगाल के सिंगूर में भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर अटके टाटा को अहमदाबाद के साणंद में नैनो की परियोजना स्थापित करने के लिए आमन्त्रित किया। इसके बाद गुजरात सरकार ने तेज़ी से क़दम उठाते हुए टाटा मोटर्स को कई रियायतें दीं। कम्पनी को 350 एकड़ ज़मीन चाहिए थी, उसकी जगह 1,100 एकड़ ज़मीन दे दी और महज़ 0.1 फ़ीसदी ब्याज पर 584.82 करोड़ रुपये का लोन दे दिया। इन पर्याप्त रियायतों के परिणामस्वरूप, रतन टाटा ने मोदी की तुलना एक गतिशील नेता से की, जो “राष्ट्र” की ज़रूरतों को पूरा कर सकता है। वही गतिशील नेता जिसने 2002 में स्वतन्त्र भारत के इतिहास में सबसे बर्बर राज्य-प्रायोजित नरसंहार को अंजाम दिया था। जब 2010-11 में वैश्विक मन्दी के झटकों ने भारत को प्रभावित किया, तो टाटा सहित सभी बड़े समूह, जो उस समय मुनाफ़े की गिरती दर के संकट का सामना कर रहे थे, ने पुरानी वफ़ादार कांग्रेस पार्टी के बजाय कैडर-आधारित फ़ासीवादी भाजपा को अपना समर्थन दिया। यही वह पार्टी थी जो मनमोहन सिंह सरकार की औपचारिक कल्याणकारी नीतियों को दरकिनार कर सकती थी और देश की सम्पत्ति और प्राकृतिक संसाधनों को तेज़ी से बेच सकती थी। मीडिया द्वारा बनायी गयी गुजरात मॉडल की भ्रामक स्वप्न छवि ने भी मोदी को जिताने में काफ़ी मदद पहुँचायी। जिन पूँजीपतियों की सहायता से मोदी 2014 में जीता, उसमें टाटा का भी नाम शामिल था। रतन टाटा ने 2014 में मोदी की जीत के बाद कहा था कि “मोदी को मज़बूत नेतृत्व और विकास और समृद्धि की स्पष्ट नीतियों के लिए देश के लोगों ने वोट दिया है।”
रतन टाटा ने इस दौरान लगातार नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की, और उस “नये भारत” की प्रशंसा की, जिसे मोदी लोगों तक पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं। बताते चलें कि टाटा समूह द्वारा नियन्त्रित यह प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट ही था, जिसमें अकेले टाटा ने 2018-19 में भाजपा को 356 करोड़ रुपये का चन्दा दिया। यह इस दौरान किसी भी कॉर्पोरेट समूह द्वारा किसी भी पार्टी को दिया गया सबसे बड़ा सार्वजनिक चन्दा था। रतन टाटा ने नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय का भी दौरा किया था। उन्होंने संघ जैसे संगठन को जीवन भर समर्थन दिया। एक कम्पनी जो “इस्पात से भी अधिक मज़बूत मूल्यों” का समर्थन करती है, उसका बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव, नागरिक और जनवादी अधिकारों पर क्रूर हमले और देश भर में बढ़ती साम्प्रदायिक नफ़रत की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं गया। यह स्पष्ट है कि किसी भी अन्य पूँजीपति की तरह, टाटा को भी सबसे अधिक मुनाफ़ा ही पसन्द था। इस संक्षिप्त लेख में हमने जो कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वे टाटा समूह के कामकाज में तथाकथित नैतिकता, मूल्यों, निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता की असलियत को दर्शाते हैं।
“अच्छा पूँजीपति”: एक हास्यास्पद विचार
हमें बताया जाता है कि यदि आप पर्याप्त प्रयास और मेहनत करते हैं, तो आप सफ़ल हो सकते हैं। यह झूठा प्रचार लगातार हमारे बीच में किया जाता है कि पूँजीपति वर्ग ख़ुद “धन-दौलत का निर्माता” (वास्तव मेहनत और कुदरत के लुटेरे), है, “राष्ट्र-निर्माता” है आदि। पूँजीवादी व्यवस्था में जनता का विश्वास बनाये रखने के लिए मेहनतकश जनता के बीच टाटा जैसे समूहों का उदाहरण पेश किया जाता है। लेकिन जब इस पर्दे को थोड़ा ही हटाओ तो पता चलता है कि सभी पूँजीपतियों के हाथ मेहनतकशों के ख़ून से ही रंगे होते हैं। “अच्छा पूँजीपति” एक हास्यास्पद धारणा है और पूँजीपतियों का दान केवल एक पर्दा है। हम मज़दूरों को यह समझ लेना चाहिए कि एक अच्छे पूँजीपति, बुरे पूँजीपति, साठगाँठ वाले पूँजीपति, ये सभी निरर्थक शब्द हैं। यह व्यवस्था मज़दूरों के शोषण से ही चल रही है और सभी पूँजीपति मज़दूरों-मेहनतकशों का शोषण कर और उनकी श्रम शक्ति को लूट कर ही मुनाफ़ा पैदा करते हैं। आज जिस व्यवस्था में बहुसंख्यकों को जीवित रहने के लिए अपनी श्रम शक्ति बेचने और प्रतिदिन 12-15 घण्टे काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, उस व्यवस्था में नैतिकता, मूल्य, ईमानदारी आदि सब अर्थहीन हैं। ऐसी व्यवस्था को अपने समर्थन के लिए लगातार वैचारिक भ्रम, आभासी सच्चाइयों का निर्माण करना पड़ता है ताकि जनता विद्रोह न कर सके। टाटा ऐसी व्यवस्था के सबसे चालाक मास्टरमाइण्डों में से एक था।
“जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फ़ासीवाद का विरोध करते हैं, जो महज़ उस बर्बरता पर दुखी होते हैं जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वे ऐसे लोगों के समान हैं जो बकरे को जिबह किये बिना ही मांस खाना चाहते हैं। वे बकरे को खाने के इच्छुक हैं लेकिन उन्हें ख़ून देखना नापसन्द है। वे आसानी से सन्तुष्ट हो जाते हैं अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है। वे उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ़ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं, वे केवल अपने आप में बर्बरता के ख़िलाफ़ हैं।”
– बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
छत्तीसगढ़ के लाखों विस्थापित आदिवासियों से पूछिए “महान परोपकारी” टाटा के कारनामे
(वरिष्ठ पत्रकार आनन्द स्वरूप वर्मा की फ़ेसबुक वॉल से साभार)
यहाँ मैं 2008 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी उस रिपोर्ट का जिक्र करना चाहूँगा जिसका शीर्षक है ‘कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस ऐंड अनफिनिश्ड टॉस्क ऑफ लैंड रिफ़ॉर्म्स’।
इसकी अध्यक्षता केन्द्रीय ग्राम विकास मंत्री ने की। 15 सदस्यों वाली इस समिति में अनेक राज्यों के सचिव और विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान तथा कुछ अवकाशप्राप्त प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि विकास परियोजनाओं के नाम पर कितने बड़े पैमाने पर उपजाऊ जमीन और वन क्षेत्र को उद्योगपतियों को दिया गया।
मैं इस रिपोर्ट के एक अंश पर ध्यान दिलाना चाहूँगा। ‘आदिवासियों की जमीन हड़पने की कोलम्बस के बाद की सबसे बड़ी कार्रवाई’ उपशीर्षक के अन्तर्गत भारत सरकार की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि –
“छत्तीसगढ़ के तीन दक्षिणी जिलों बस्तर, दाँतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। यहाँ एक तरफ तो आदिवासी पुरुषों और महिलाओं के हथियारबन्द दस्ते हैं जो पहले पीपुल्स वॉर ग्रुप में थे और अब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ जुड़े हैं तथा दूसरी तरफ सरकार द्वारा प्रोत्साहित सलवा जुडुम के हथियारबन्द आदिवासी लड़ाकू हैं जिनको आधुनिक हथियारों और केन्द्रीय पुलिस बल के तमाम संगठनों का समर्थन प्राप्त है। यहाँ जमीन हड़पने की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई चल रही है और जो पटकथा तैयार की गयी है वह अगर इसी तरह आगे बढ़ती रही तो यह युद्ध लम्बे समय तक जारी रहेगा। इस पटकथा को तैयार किया है टाटा स्टील और एस्सार स्टील ने जो सात गाँवों पर और आसपास के इलाकों पर क़ब्ज़ा करना चाहते थे ताकि भारत के समृद्धतम लौह भण्डार का खनन कर सकें।
“शुरू में ज़मीन अधिग्रहण और विस्थापन का आदिवासियों ने प्रतिरोध किया। प्रतिरोध इतना तीव्र था कि राज्य को अपनी योजना से हाथ खींचना पड़ा… सलवा जुडुम के साथ नये सिरे से काम शुरू हुआ। अजीब विडम्बना है कि कांग्रेसी विधायक और सदन में विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा ने इसकी शुरुआत की लेकिन भाजपा शासित सरकार से इसे भरपूर समर्थन मिला… इस अभियान के पीछे व्यापारी, ठेकेदार और खानों की खुदाई के कारोबार में लगे लोग हैं जो अपनी इस रणनीति के सफल नतीजे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सलवा जुडुम शुरू करने के लिए पैसे मुहैया करने का काम टाटा और एस्सार ग्रुप ने किया क्योंकि वे ‘शान्ति’ की तलाश में थे…सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 640 गाँव ख़ाली करा दिये गये, इन गाँवों के मकानों को ढाह दिया गया और बन्दूक की नोक पर तथा राज्य के आशीर्वाद से लोगों को इलाके से बेदखल कर दिया गया। साढ़े तीन लाख आदिवासी, जो दाँतेवाड़ा ज़िले की आधी आबादी के बराबर हैं, विस्थापित हुए, उनकी औरतें बलात्कार की शिकार हुईं, उनकी बेटियाँ मारी गयीं और उनके युवकों को विकलांग बना दिया गया। जो भागकर जंगल तक नहीं जा पाये उन्हें झुण्ड के झुण्ड में विस्थापितों के लिए बने शिविरों में डाल दिया गया जिनका संचालन सलवा जुडुम द्वारा किया जाता है। जो बच रहे वे छुपते छुपाते जंगलों में भाग गये या उन्होंने पड़ोस के महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और उड़ीसा में जाकर शरण ली।
“640 गाँव खाली हो चुके हैं। हज़ारों लाखों टन लोहे के ऊपर बैठे इन गाँवों से लोगों को भगा दिया गया है और अब ये गाँव सबसे ऊँची बोली बोलने वाले के लिए तैयार बैठे हैं। ताज़ा जानकारी के अुनसार टाटा स्टील और एस्सार स्टील दोनों इस इलाके पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं ताकि वहाँ की खदानें इनके पास आ जायें।” (पृ. 160-161)
(यह रिपोर्ट अभी भी मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है पर उसमें न तो यह हिस्सा है और न ही टाटा या एस्सार का कहीं नाम है। हालाँकि उस वक़्त के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इस पर रिपोर्टें प्रकाशित हुई थीं जिन्हें देखा जा सकता है।)
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2024
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