दिल्ली के मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन बढ़ाने की घोषणा! भाजपा सरकार द्वारा फेंका गया एक और जुमला !!
भारत
हाल ही में दिल्ली में भाजपा सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोतरी की घोषणा की है। इस बढ़ोतरी को 1 अप्रैल, 2025 से लागू करने की बात की गयी है। दिल्ली में अब अकुशल मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन 18,456 रुपये, अर्ध-कुशल मज़दूर के लिए 20,371 रुपये और कुशल मज़दूरों के लिए 22,411 रुपये होगा। वैसे देखा जाये तो आज जिस हिसाब से महँगाई बढ़ चुकी है, न्यूनतम वेतन 30,000 रुपये मासिक से शुरू होना चाहिए। भाजपा सरकार दावा कर रही है इससे हर मज़दूर को फ़ायदा मिलेगा। दिल्ली के कारख़ानों में काम करने वाला हर मज़दूर जानता है कि न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी सिर्फ़ काग़ज़ों की शोभा बढ़ाने के लिए है। वहीं एक तरफ़ भाजपा सरकार की यह घोषणा है और दूसरी तरफ़ भाजपा के मेहनतकश विरोधी काले क़ारनामे। वेतन बढ़ाने के यह दावे गुलाबी सपनों से अधिक कुछ नहीं है। ज्ञात हो पिछले वर्ष मोदी सरकार ने भी मज़दूरों के वेतन में बढ़ोतरी की थी, पर उसकी सच्चाई सब जानते है कि यह आज तक किसी भी फैक्ट्री में लागू नहीं हुआ। वैसे दिल्ली और देश के मज़दूरों के लिए बने श्रम क़ानून शुरू से ही नाकाफ़ी थे। जो क़ानून थे भी वे असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की विशाल आबादी के लिए शायद ही कभी अमल में आते थे। उनको भी समय-समय पर पूँजीपतियों के पक्ष में बदला जाता रहा है।
अगर सही मायने में दिल्ली में भाजपा सरकार की मंशा “मज़दूरों का भला” करने की होती, तो वह सबसे पहले हर फैक्ट्री में मौजूदा श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का प्रयास करती, परन्तु पंगु बनाये गये श्रम विभाग के ज़रिये यह सम्भव ही नहीं है। दिल्ली के 27 अधिकृत औद्योगिक क्षेत्रों के फैक्ट्रियों और इसके अलावा रिहायशी क्षेत्रों में गैर-क़ानूनी तरीके से चलने वाली फैक्ट्रियों में अपवाद को छोड़कर कहीं भी न्यूनतम वेतन का क़ानून लागू नहीं होता। सामान्यतः दिल्ली की फैक्ट्रियों में महिलाओं को 6000 से 7000 और पुरुषों को 8000 से 10000 वेतन मिलता है। क्या यह बात दिल्ली की मुख्यमन्त्री रेखा गुप्ता को नहीं पता है? उन्हें सब पता है, पर वह कभी पूँजीपतियों का नुक़सान नहीं होने देंगी। लुटेरे मालिकों के वर्ग और भाजपा की मिलीभगत आज किसी से छुपी नहीं है। यही कारण है कि दिल्ली में काम करने वाली मेहनतकश आबादी के बीच न तो इस क़दम की कोई सुगबुगाहट है और न ही कोई आशा है। मज़दूर अपने अनुभव से जानते हैं कि हर साल वेतन में बढ़ोतरी की घोषणाएँ होती हैं, पर असल में उनका वेतन कभी नहीं बढ़ता है। दिल्ली की 65 लाख मज़दूर आबादी जैसे घरेलू कामगारों, डाइवरों, सफ़ाईकर्मियों आदि के लिए क्या न्यूनतम मज़दूरी का संशोधित क़ानून लागू हो पायेगा? 90 प्रतिशत मज़दूर आबादी जो दिहाड़ी, कैजुअल, पीस रेट, ठेके पर काम कर रही है, उसे न्यूनतम मज़दूरी क़ानून के मुताबिक़ मज़दूरी मिल पा रही है या नहीं इसकी कोई भी जानकारी दिल्ली सरकार के पास नहीं है। श्रम विभाग की स्थिति की अगर बात करें तो उसके पास इतने कर्मचारी ही नहीं हैं कि सभी औद्योगिक क्षेत्रों व फैक्ट्रियों की जाँच-पड़ताल की कर सके। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों के पास यह साबित करने का कोई भी तरीक़़ा नहीं है कि वे किस फ़ैक्टरी में काम करते हैं, अगर यह साबित हो जाये तो मालिक अपनी फ़ैक्टरी का नाम बदल देता है और बताता है कि पुरानी फ़ैक्टरी में तो वह मालिक ही नहीं था और इसके बाद श्रम विभाग मज़दूर पर यह जि़म्मेदारी डाल देता है कि वह साबित करे कि मालिक कौन है। निश्चित ही न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी से जिन्हें थोडा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, परन्तु इनकी संख्या लगातार कम ही हो रही है।
यह भी बता दें कि यही “मज़दूर हितैषी” भाजपा सरकार है, जो चार लेबर कोड लेकर आयी है, जिसके लागू होने के बाद न्यूनतम वेतन जैसे क़ानूनों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। मोदी सरकार द्वारा पूँजीपतियों को रहे-सहे श्रम क़ानूनों की अड़चन से मुक्त कर मज़दूरों के बेहिसाब शोषण करने के लिए 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों की जगह चार कोड या संहिताएँ बनायी गयी हैं- मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता। मज़दूरी श्रम संहिता के तहत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम तल-स्तर निर्धारित किया जायेगा। सरकार का कहना है कि एक त्रिपक्षीय समिति इस तल- स्तर का निर्धारण करेगी, मगर इस सरकार के श्रम मन्त्री पहले ही नियोक्ताओं के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए तल-स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर चुके हैं। यानी, मासिक आमदनी होगी महज़ 4,628 रुपये! यह राशि आर्थिक सर्वेक्षण 2017 में सुझाये गये तथा सातवें वेतन आयोग द्वारा तय किये गये न्यूनतम मासिक वेतन 18,000 रुपये का एक-चौथाई मात्र है। यही नहीं पन्द्रहवें राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन (1957) की सिफ़ारिशों (जिसके अनुसार न्यूनतम मज़दूरी, खाना-कपड़ा-मकान आदि बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर तय होनी चाहिए) और सुप्रीम कोर्ट के 1992 के एक निर्णय की अनदेखी करते हुए कैलोरी की ज़रूरी खपत को 2700 की बजाय 2400 पर रखा गया है और तमाम बुनियादी चीज़ों की लागत भी 2012 की क़ीमतों के आधार पर तय की गयी है। इस कोड में ‘रोज़गार सूची’ को हटा दिया गया है, जो श्रमिकों को कुशल, अर्द्धकुशल और अकुशल की श्रेणी में बाँटती थी।
वैसे देखा जाये तो अभी भी 90 फ़ीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के जीवन व काम के हालात नारकीय हैं। अभी भी मौजूद श्रम क़ानून लागू कहीं लागू नहीं किये जाते, लेकिन अभी तक अगर कहीं मज़दूर लेबर कोर्ट का रुख़ करते थे और कुछ मसलों में आन्दोलन की शक्ति के आधार पर क़ानूनी लड़ाई जीत भी लेते थे। लेकिन अब वे क़ानून ही समाप्त हो जायेंगे और जो नयी श्रम संहिताएँ आ रही हैं, उनमें वे अधिकार मज़दूरों को हासिल ही नहीं हैं, जो पहले औपचारिक तौर पर हासिल थे। इन चार श्रम संहिताओं का अर्थ ही है मालिकों, कॉरपोरेट घरानों और पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूरों को जीवनयापन योग्य मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और गरिमामय कार्यस्थितियाँ दिये बग़ैर ही भयंकर शोषण करने की खुली छूट देना। यह हमसे मानवीयता की बाक़ी शर्तों को भी छीन लेगा। यह हमें पाशविकता की ओर धकेल देगा। कुल मिलाकर कहें तो अगर चार लेबर कोड लागू होते है, तो मज़दूर वर्ग को ग़ुलामी जैसे हालात में काम करने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा। यह बात हर मज़दूर को समझ लेना चाहिए कि दिल्ली और केन्द्र में बैठी भाजपा सरकार मज़दूरों की सबसे बड़ी दुश्मन है और इसलिए दिल्ली के मज़दूरों के लिए वेतन बढ़ाने की घोषणा का भी वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह भी तमाम जुमलो की तरह एक जुमला ही है।
न्यूनतम वेतन का सवाल बाज़ार से और अन्ततः इस पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ता है। इस व्यवस्था में मज़दूरों का वेतन असल में मालिक के मुनाफ़़े और मज़दूर की ज़िन्दगी की बेहतरी के लिए संघर्ष का सवाल है। फैक्ट्री में मज़दूर को बस उसके जीवनयापन हेतु वेतन भत्ता दिया जाता है और बाक़ी जो भी मज़दूर पैदा करता है, उसे मालिक अधिशेष के रूप में लूट लेता है। अधिक से अधिक अधिशेष हासिल करने के लिए मालिक वेतन कम करने, काम के घण्टे बढ़ने या श्रम को ज़्यादा सघन बनाने का प्रयास करते हैं और इसके खि़लाफ़ मज़दूर संगठित होकर ही संघर्ष कर सकते हैं। आज हमें वेतन बढ़ोतरी के लिए यूनियनों में संगठित होकर लड़ना ही होगा। हमेशा से मज़दूरों ने एकता के दम पर ही सभी लड़ाइयों को जीता है। श्रम क़ानूनों को भी हम अपनी एकता के दम पर लड़कर ही लागू करवा सकते हैं। दिल्ली में ही आँगनवाडी कर्मियों, वज़ीरपुर के स्टील मज़दूरों, करावल नगर के बादाम मज़दूरों के संघर्षों के उदाहरण हमारे सामने है, जिन्होंने एकजुट होकर हड़ताल के दम पर अपना न्यूनतम वेतन बढ़वाया है।
इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि हमारी लड़ाई महज़ न्यूनतम वेतन बढ़ाने तक करवाने तक सीमित नहीं है। अगर हम अपनी लड़ाई को महज़ न्यूनतम वेतन बढ़ाने तक ही सीमित करेंगे तो गोल-गोल घूमते रह जायेंगे। जब भी महँगाई बढ़ेगी तो उसके अनुसार पहले की बढ़ी हुई मज़दूरी फिर कम होने लगती है। इसलिए हर पाँच साल में दोबारा न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाने के लिए न्यूनतम मज़दूरी आयोग का गठन किया जाता है (चार लेबर कोड आने के बाद यह आयोग भी बन्द हो जायेगा) और नये सर्वे के ज़रिये नये बढ़े हुए वेतन की माँग को लागू करके तात्काालिक तौर पर मेहनतकशों का गुस्सा शान्त किया जाता है। न्यूनतम वेतन बढ़ाने और श्रम क़ानून के लागू करवाने के संघर्ष के साथ-साथ हमें इस पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दियों के बारे में भी जानना होगा और दूरगामी तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की ‘शोषण की व्यवस्था को नाश करने’ के लिए संघर्ष करना होगा। न्यूनतम वेतन बढ़ाने, श्रम क़ानून लागू करवाने की लड़ाई हमारी तात्कालिक लड़ाई है और हमारा दूरगामी लक्ष्य मज़दूरों के शोषण पर आधारित इस पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करना है। इसलिए इस संघर्ष को लड़ने के लिए हमें आज से ही एकजुट होना होगा, तभी हमारा आने वाला भविष्य बेहतर हो सकता है।
मज़दूर बिगुल, मई 2025