घरेलू कामगार स्त्रियाँ: हक से वंचित एक बड़ी आबादी
शाकम्भरी
घरों में काम करने वाली महिलाओं, लड़कियों पर अत्याचार, शोषण की घटनाएँ हमें आये दिन देखने और सुनने को मिलती है। मध्यवर्गीय परिवारों, नौकरीशुदा स्त्रियों के घरों में घरेलू काम में “सहायक” के तौर पर काम करने वाली रखी जाती हैं। अपनी जीविका चलाने के लिए ये दूसरों के घरों में काम करने के लिए मजबूर हैं। उनका सिर्फ आर्थिक शोषण ही नहीं होता। उनके साथ होने वाली हिंसा, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, अमानवीयता की ख़बरें जितनी सामने आती हैं, उससे सैकड़ों गुना ज़्यादा वास्तव में होती हैं।
देश में लाखों घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है। हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को बेनाम और न दिखाई पड़ने वाला, गैर उत्पादक की श्रेणी में रखा जाता है। सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता है। उसे एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो मूल कार्य नहीं करता बल्कि मूल कार्य पूरा करने में किन्हीं तरीकों से मदद करता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब मेहनताना ही तय नहीं होता। मालिकों की मर्ज़ी से बख्शीश ज़रूर दी जाती है। यह मनमर्ज़ी का मामला होता है अधिकार का नहीं। मन हुआ या खुश हुए तो ज़्यादा दे दिया और नहीं तो बासी सड़ा भोजन, फटे-पुराने कपड़े, जूते, चप्पल दे दिया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता। उल्टे इनको आलसी, कामचोर, बेईमान, गैर-ज़िम्मेदार और फ़ायदा उठाने वाला समझा जाता है।
घरों में काम करने वाली महिलाओं की श्रमशक्ति की एक बड़ी आबादी बिना कामगार का दर्जा पाये काम करने के लिए मजबूर है। काम से जुड़े उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई भी क़ानून नहीं है और जो भी थोड़ा-बहुत है भी तो वह लागू नहीं होता। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार जीविका के लिए भारत में दूसरे घरों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या एक करोड़ के आसपास है। इनकी संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है। संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं। एक व्यक्ति की आय से घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है, पति-पत्नी दोनों के ही बाहर काम करने की वजह से बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल के लिए परिवार के सदस्य मौजूद नहीं होते। ऐसे में इनकी देखभाल के लिए भी घरेलू कामगारों को काम पर रखने की ज़रूरत पड़ती है। और मध्यवर्ग का एक तबका ऐसा भी है जिन्हें अपने स्टेट्स सिंबल और अपनी काहिली की वजह से भी इन्हें काम पर लगाना होता है।
नौकर नहीं कामगार का दर्जा मिलना चाहिए
कामगार होने के बावजूद औपचारिक रूप से क़ानूनी हक से वंचित श्रमशक्ति की यह बड़ी संख्या कई चुनौतियों को झेल रही है। संगठन के अभाव में इनकी माँगें सार्वजनिक नहीं हो पातीं। काम के लिए मोलभाव करने की ख़ास ताकत अगर कामगार होने की एक पहचान है तो यह इस ताकत से भी वंचित हैं। काम के दौरान जोखिम से गुज़रती इन स्त्रियों को अपने काम से जुड़ी क़ानूनी सुरक्षा, छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बच्चों का पालनाघर, बीमारी की दशा में उपचार जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं हो पाती।
क़ानूनी सुरक्षा के अभाव में 6 से 10-12 घण्टे तक खटते हुए वह जीविका की असुरक्षा से भी गुजरती हैं। इतना ही नहीं ये स्त्रियाँ ज़्यादातर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित समुदाय की होती हैं। उनकी यह सामाजिक हैसियत उनके लिए और भी अपमानजनक स्थितियाँ पैदा कर देती है। यौन उत्पीड़न, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या घर के अन्दर शौचालय आदि का प्रयोग न करने देना एक आम बात है।
घरेलू कामगारों की हितों की सुरक्षा के लिए कई साल पहले सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने मिलकर ‘घरेलू कामगार विधेयक’ का ख़ाका बनाया था। इस विधेयक पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी स्वीकृति देकर सरकार के पास भेज दिया था पर अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। महिलाओं के लिए संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए हर साल होहल्ला मचाने वाली पार्टियों ने इतनी बड़ी आबादी को बुनियादी अधिकार दिलाने वाले इस विधेयक को पारित करने के सवाल पर कभी कोई आवाज़ नहीं उठायी। इस विधेयक में कामगार का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की गयी है – “ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किये जाने वाले भुगतान के बदल किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी/अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जायेगा।” इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है। महाराष्ट्र और केरल जैसे कुछ राज्यों में घरेलू कामगारों के लिए क़ानून बनने से उनकी स्थिति में एक हद तक सुधार हुआ है। लेकिन बाकी राज्यों में अभी कोई क़ानून नहीं है।
अगर क़ानून बनेगा तो घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मज़दूरी का भी सवाल उठेगा इसलिए सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है। इनकी सुरक्षा और न्यूनतम मज़दूरी को सुनिश्चित करने के लिए क़ानून बनना तो तात्कालिक समाधान है। घरेलू कामगारों को अपने हक़ की लड़ाई के लिए संगठित होना होगा और मज़दूरों के व्यापक संघर्ष के साथ अपने को जोड़ना होगा। उनकी वास्तविक मुक्ति तो तभी सम्भव होगी जब एक ऐसा समाज बनेगा जिसमें मालिक और नौकर का भेद ही ख़त्म हो जायेगा।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2014
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