अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के 104 वें साल होने के अवसर पर
बहनो! साथियो! नौजवानो! उठो! जागो! आगे बढ़ो!
आवाज दो…..हम एक हैं!!
गुलामी की नींद सोने और किस्मत का रोना रोने का समय बीत चुका है। ज़ोरो-जुल्म के दम घोंटने वाले माहौल के ख़िलाफ़, एकजुट होकर, मुट्ठी तानकर आवाज़ उठाने का समय आ गया है। हम सभी मजदूर बहनों-साथियों को आवाज़ दे रहे हैं-उठो! जागो! हक़ और इंसाफ की नयी लड़ाई में मज़बूती के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ो!
बहनो! साथियो! आज ही के दिन 103 साल पहले दुनिया के कई देशों की मेहनतकश स्त्रियों की नेताओं ने एक सम्मेलन में फैसला किया था कि हर साल 8 मार्च को ‘अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस’ मनाया जायेगा। यह दिन हर साल हमें हक़, इंसाफ और बराबरी की लड़ाई में फौलादी इरादे के साथ शामिल होने की याद दिलाता है। पिछली सदी में दुनिया की औरतों ने संगठित होकर कई अहम हक़ हासिल किये। मजदूरों की हर लड़ाई में औरत भी कन्धे से कन्धा मिलाकर शामिल हुई। रूस-चीन आदि कई देशों में समाजवाद लाने में और भारत जैसे गुलाम देशों को आज़ाद कराने में औरतों की बड़ी हिस्सेदारी थी।
लेकिन गुज़रे बीस-पच्चीस वर्षों में ज़माने की हवा थोड़ी उल्टी चल रही है। अपने देश में और पूरी दुनिया में, लुटेरे कमेरों पर हावी हो गये हैं। लूट-खसोट का बोलाबाला है। मजदूरों ने लम्बी लड़ाई से जो हक़ हासिल किये थे वे सभी छीने जा रहे हैं। कानून बदले जा रहे हैं। पुलिस और फौज-फाटे से हक़ की हर आवाज़ दबा दी जा रही है। मजदूर औरत-मर्द बारह-चौदह घण्टे हाड़ गला कर भी दो जून रोटी, तन ढाँकने को कपड़े, सिर पर छत, दवा-इलाज और बच्चे की पढ़ाई का जुगाड़ नहीं कर पाते। दूसरी तरफ थैलीशाहों, अफ़सरों, नेताओं के भोग-विलास और धन-दौलत का बखान करने के लिए शब्द कम पड़ जायेंगे।
मेहनतकश औरतों की हालत तो नर्क से भी बदतर है। हमारी दिहाड़ी पुरुष मज़दूरों से भी कम होती है जबकि सबसे कठिन और महीन काम हमसे कराये जाते हैं। कानून सब किताबों में धरे रह जाते हैं और हमें कोई हक़ नहीं मिलता। कई फैक्ट्रियों में हमारे लिए अलग शौचालय तक नहीं होते, पालनाघर तो दूर की बात है। दमघोंटू माहौल में दस-दस, बारह-बारह घण्टे खटने के बाद, हर समय काम से हटा दिये जाने का डर। मैनेजरों, सुपरवाइज़रों, फोरमैनों की गन्दी बातों, गन्दी निगाहों और छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। ग़रीबी से घर में जो नर्क का माहौल बना होता है, उसे भी हम औरतें ही सबसे ज़्यादा भुगतती हैं।
बहनो! सोचो ज़रा ! अकेले दिल्ली और नोएडा में लाखों औरतें कारख़ानों में खट रही हैं। अगर हम एका बनाकर मुठ्टी तान दें तो हमारी आवाज़ भला कौन दबा सकता है साथियो! बिना लड़े कुछ नहीं मिलता। मेहनतकशों के बूते ही यह समाज चलता है और उनमें हम औरतें भी शामिल हैं। ग़ुलामी की ज़िन्दगी तो मौत से भी बदतर होती है। हमें उठ खड़ा होना होगा। हमें अपने हक़, इंसाफ़ और बराबरी की लड़ाई की नयी शुरुआत करनी होगी। सबसे पहले हमें थैलीशाहों की चाकरी बजाने वाली सरकार को मजबूर करना होगा कि मज़दूरी की दर, काम के घण्टे, कारखानों में शौचालय, पालनाघर वगैरह के इन्तज़ाम और इलाज वगैरह से सम्बन्धित जो क़ानून पहले से मौजूद हैं, उन्हें वह सख़्ती से लागू करवाये। फिर हमें समान पगार, ठेका प्रथा के ख़ात्मे, गर्भावस्था और बच्चे के लालन-पालन के लिए छुट्टी के इन्तज़ाम, रहने के लिए घर, दवा-इलाज और बच्चों की शिक्षा के हक़ के लिए एक लम्बी, जुझारू लड़ाई लड़नी होगी।
बहनो! साथियो!! हमें मज़दूरों के हक की सभी लड़ाइयों में कन्धा से कन्धा मिलाकर शामिल होना होगा। करावलनगर मजदूर यूनियन इस मकसद से मजदूर मांगपत्रक आन्दोलन के तहत पूरे इलाके में विभिन्न पेशे के मजदूरों के हक़-अधिकारों के लिए संघर्ष की शुरूआत कर रहा है क्योंकि करावलनगर मजदूर यूनियन किसी एक पेशे या फैक्टरी की यूनियन नहीं हैं, बल्कि यह इलाकाई यूनियन हैं जिसका मकसद फैक्टरी कारखाने के संघर्ष से लेकर मज़दूरों के तमाम नागरिक और मानव अधिकारों के संघर्ष को खड़ा करना है।
हमें अपने सीनों में सदियों से दहकते शोलों को हवा देकर बग़ावत की ऐसी आग दहकानी होगी जिसमें यह ज़ालिम हुकूमत और अन्यायी सामाजिक ढाँचा जलकर ख़ाक हो जाये। हम औरतें अगर उठ खड़ी हों तो ज़माने की हवा बदल दें। स्त्री मज़दूर जब पुरुष मज़दूर के साथ मिलकर हक़, इंसाफ, आज़ादी और बराबरी की लड़ाई लड़ना शुरू करेंगी तो समाजवाद की हारी हुई जंग इस सदी में ज़रूर फिर से जीती जायेगी। इसलिए आओ, फौलादी एकता बनायें, देश-दुनिया-समाज के बारे में अपनी समझ बढ़ायें, दिमाग़ी ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ दें और अपने छोटे-छोटे अधिकारों के लिए क़दम-ब-क़दम आगे बढ़ते जायें।
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद ! मेहनतकश स्त्रियों की एकता, ज़िन्दाबाद
बिगुल मजदूर दस्ता
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन