यूनियन के पंजीकरण और मन्दी से घबराये मालिकों और दलालों द्वारा यूनियन के ख़िलाफ़ अफ़वाहें फैलाने की मुहिम
अगर छोटे मालिक और ठेकेदार पूँजीवादी मुनाफ़े के खेल को खेलने को तैयार हैं, तो अब रो क्यों रहे हैं? वे चाहते हैं कि उनके माल को विदेशी बाज़ार में मुफ्त एण्ट्री मिले, लेकिन उनके अपने बाज़ार में किसी विदेशी माल को न घुसने दिया जाये? वैसे भी अगर वज़ीरपुर के छोटे मालिकों को कोई बड़ी पूँजी वाला ख़रीद लेता है, तो इससे हम मज़दूरों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। हमें चाहे छोटा मालिक लूटे या बड़ा मालिक लूटे, हमें तो लड़ना ही है! हम छोटे मालिक के दुख से क्यों जज़्बाती हों? उसने हमारे लिए क्या किया है? जब हमने मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ के ख़िलाफ़ जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया था, तो क्या वज़ीरपुर का गरम रोला या ठण्डा रोला का मालिक हमारे साथ आया था? जब हम श्रम क़ानूनों को लागू करने की माँग कर रहे थे तो क्या इन मालिकों और ठेकेदारों ने हमारी माँग मानी थी? जब हमारे भाई इनके कारख़ानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मरते हैं तो क्या ये हमें क़ानूनी मुआवज़ा देते हैं? क्या हमारी मज़दूरी में से काटा जाने वाला ईएसआई-पीएफ़ हमें दिया जाता है? तो फिर इन छोटे मालिकों और बड़े मालिकों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा में हम छोटे मालिकों के मोहरे क्यों बनें? बात जैसे को तैसा की नहीं है बल्कि इसकी वजह यह है कि हमारी बुनियादी माँगों पर ये मालिक हमें नौकरी से निकालने को तैयार रहते हैं और अपने हित साधने के लिए अब हमारी ताक़तवर यूनियन का इस्तेमाल करना चाहते हैं।