Category Archives: संघर्षरत जनता

श्रीराम पिस्टन (भिवाड़ी) के मज़दूरों का संघर्ष जि़न्दाबाद!

श्रीराम पिस्टन फैक्ट्री की यह घटना न सिर्फ हीरो होण्डा, मारुति सुजुकी और ओरिएण्ट क्राफ्ट के मज़दूर संघर्षों की अगली कड़ी है, बल्कि पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल-भिवाड़ी की विशाल औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आबादी के भीतर, और विशेषकर आटोमोबील सेक्टर के मज़दूरों के भीतर सुलग रहे गहरे असन्तोष का एक विस्फोट मात्र है। यह आग तो सतह के नीचे पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के औद्योगिक इलाकों में धधक रही है, जिसमें दिल्ली के भीतर के औद्योगिक क्षेत्रों के अतिरिक्त नोएडा, ग्रेटर नोएडा, साहिबाबाद, गुड़गाँव, फरीदाबाद और सोनीपत के औद्योगिक क्षेत्र भी आते हैं।

कम्बोडिया में मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला

कम्बोडिया का यह मज़दूर उभार उस समय आया है जब विश्व पूँजीवाद भीषण आर्थिक मन्दी का शिकार है। मज़दूरों-मेहनतकशों के श्रम को किसी न किसी तरीक़े से अधिक से अधिक निचोड़कर मन्दी से छुटकारा हासिल करने की कोशिशें हो रही हैं। तेज़ी से बढ़ती महँगाई, महँगाई के मुकाबले मज़दूरी का बहुत कम बढ़ना, यहाँ तक कि वेतनों-भत्तों में कटौती होना, सरकार की तरफ़ से मिलने वाली सहूलियतों पर कटौती आदि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में छाई मन्दी का ही नतीजा हैं। लेकिन जैसे-जैसे मज़दूरों-मेहनतकशों पर मन्दी का बोझ बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे जनाक्रोश भी बढ़ता जा रहा है। दुनिया के हर हिस्से में मज़दूरों-मेहनतकशों के आन्दोलन बढ़ते जा रहे हैं। कम्बोडिया के मज़दूर आन्दोलन का उभार विश्व मज़दूर आन्दोलन की एक नयी प्राप्ति है। यह साफ़ है कि नारकीय जीवन जैसे हालात में धकेल देने वाले पूँजीपति हुक़मरानों को मज़दूर वर्ग चैन की नींद नहीं लेने देगा।

ठेका प्रथा उन्मूलन के वायदे से मुकरी केजरीवाल सरकार!

क्या कारण है कि पूरी दिल्ली के सभी औद्योगिक क्षेत्रों में मालिकों और ठेकेदारों के संघ आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल को खुला समर्थन दे रहे हैं? क्या मज़दूरों का शोषण करने वाली ताक़तें, श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने वाले लुटेरे अचानक सदाचारी और सन्त पुरुष हो गये हैं? जी नहीं साथियो! वास्तव में, अरविन्द केजरीवाल अन्दर ही अन्दर इन्हीं पूँजीपतियों और ठेकेदारों के हितों में काम कर रहा है। केजरीवाल जिस भ्रष्टाचार को दूर करने की बात कर रहा है उससे मालिकों और ठेकेदारों को ही फायदा होगा! वह यह चाहता है कि ठेकेदारों-मालिकों को अपने मुनाफ़े का जो हिस्सा घूस-रिश्वत के तौर पर नौकरशाहों, इंस्पेक्टरों, श्रम विभाग अधिकारियों को देना पड़ता है, वह न देना पड़े! इससे मालिकों के वर्ग का ही लाभ होगा। लेकिन जिस भ्रष्टाचार से मज़दूर पीड़ित है, उसके बारे में केजरीवाल और उसकी आम आदमी पार्टी की सरकार चुप है। और श्रम मन्त्री गिरीश सोनी ने साफ़ तौर पर बोल भी दिया कि केजरीवाल सरकार को ठेकेदारों और मालिकों के हितों की सेवा करनी है, मज़दूरों के लिए ठेका उन्मूलन क़ानून पास करने से उसने सीधे इंकार कर दिया। यानी ठेका उन्मूलन के वायदे से केजरीवाल सरकार खुलेआम मुकर गयी!

लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल की जीत

मज़दूर संगठन की लगातार बढ़ती जा रही ताक़त से मालिक बौखलाहट में हैं। संगठन को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए वह लगातार कोशिशें कर रहे हैं। इस बार की हड़ताल से पहले अग्रणी भूमिका निभाने वाले और मज़दूरों को काम से निकालने की नीति मालिकों ने अपनायी है। सीज़नल काम होने की वजह से संगठन की ताक़त पूरे साल एक जैसी नहीं रहती। मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं और काम कम होने पर गाँव चले जाते हैं। मालिकों ने मन्दी के दिनों में अगुआ और सरगर्म भूमिका निभाने वाले मज़दूरों को काम से निकालना शुरू कर दिया, या गाँव से वापस आने पर उन्हें काम पर नहीं रखा। इस छँटनी को रुकवाने के लिए संगठन के पास अभी संगठित ताक़त की कमी है और आमतौर पर श्रम विभाग में शिकायत दर्ज करवाकर ही गुज़ारा करना पड़ता है। श्रम विभाग और श्रम अदालतों में मज़दूरों के केस लम्बे समय के लिए लटकते रहते हैं और इन्साफ़ नहीं मिलता। जिन कारख़ानों के मज़दूर संगठन के जीवन्त सम्पर्क में नहीं रहते, उन कारख़ानों में छँटनी की यह मुसीबत ज़्यादा आयी है। कारख़ानों से निकाले गये मज़दूर दूसरे इलाक़ों में जाकर काम कर रहे हैं, इससे अन्य इलाक़ों में भी संगठन के फैलाव की सम्भावना बनी है। दूरगामी तौर पर देखा जाये तो मालिकों के हमले के ये लाभ भी हुए हैं।

नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में

वास्तव में नेपाल क्रान्ति की अग्रगति तो उस समय ही रुक गयी थी और उसका वह भविष्य तय हो चुका था (जो आज का वर्तमान है) जब नेपाल की और आज की दुनिया की “ठोस परिस्थितियों” के नाम पर प्रचण्ड ने और उनसे भी आगे बढ़कर भट्टराई ने सर्वहारा अधिनायकत्व के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों को “संशोधित” करते हुए सोवियत सत्ता जैसी किसी प्रणाली के बरक्स बहुदलीय जनतंत्र के मॉडल को प्रस्तुत करना शुरू किया था। फिर उन्होंने जनता के जनवादी गणराज्य के पहले संघात्मक जनवादी गणराज्य जैसी एक और संक्रमणकालिक अवस्था का सिद्धान्त देना शुरू कर दिया ताकि संविधान सभा में अपने समझौतों, जोड़ों-तोड़ों और हर हाल में बने रहने का औचित्य-प्रतिपादन किया जा सके। पार्टी पहली संविधान सभा के मंच का रणकौशल (टेक्टिक्स) के रूप में इस्तेमाल करने की बात करती थी, लेकिन कालांतर में, किसी भी सूरत में संविधान-निर्माण और नये संविधान के तहत चुनाव लड़कर सत्तासीन होना ही उसका मुख्य उद्देश्य हो गया। जनमुक्ति सेना और आधार क्षेत्रों का विघटन-विसर्जन इसका स्पष्ट संकेत था। यानी चुनाव और संसद का इस्तेमाल पार्टी के लिए रणकौशल के बजाय रणनीति (स्‍ट्रैटेजी) का सवाल बन गया। जंगलों-पहाड़ों से चलकर “प्रचण्ड पथ” संसद के गलियारों में खो गया। हर संशोधनवादी पार्टी की तरह नेपाली पार्टी के नेता अलग-अलग बयानों में परस्पर-विरोधी बातें कहते रहे, अन्तरविरोधी बातें कहते रहते और बुनियादी विचारधारात्मक प्रश्नों पर या तो ‘नरो वा कुंजरो’ की भाषा में बात करते रहे, या फिर उनसे कन्नी काटते रहे।

लुधियाना में टेक्सटाइल मज़दूर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर

मज़दूरों ने श्रम विभाग और प्रशासन तक अपनी आवाज़ पहुँचाई है। लेकिन सरकारी मशीनरी मज़दूरों के हक में कोई भी कदम उठाने को तैयार नहीं है। श्रम विभाग कार्यालय में पर्याप्त संख्या में अधिकारी और कर्मचारी ही नहीं हैं और जो हैं भी वो पूँजीपतियों के पक्के सेवक हैं। अन्य क्षेत्रों के कारखानों की तरह टेक्सटाइल कारखानों में भी श्रम कानून लागू नहीं होते हैं। मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं और कुछ महीने मज़दूरों को बेरोज़गारी झेलनी पड़ती है। बाकी समय उन्हें 12-14 घण्टे कमरतोड़ काम करना पड़ता है। देश-विदेश में बिकने वाले शाल व होज़री बनाने वाले इन मज़दूरों को बेहद गरीबी की ज़िन्दगी जीनी पड़ रही है। ‘बिगुल’ द्वारा इन मज़दूरों के बीच किये गये निरन्तर प्रचार-प्रसार और संगठन बनाने की कोशिशों की बदौलत अगस्त 2010 में टेक्सटाइल मज़दूरों के एक हिस्से ने अपना संगठन बनाकर एक नये संघर्ष की शुरुआत की थी। पिछले वर्ष तक इस संघर्ष की बदौलत 38 प्रतिशत पीसरेट/वेतन वृद्धि और ई.एस.आई. की सुविधा हासिल की गयी है। लेकिन लगातार बढ़ती जा रही महँगाई के कारण स्थिति फिर वहीं वापस आ जाती है। मालिकों के मुनाफे तो बढ़ जाते हैं लेकिन वे अपनेआप मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाने, बोनस देने तथा अन्य अधिकार देने को तैयार नहीं होते। एकजुट होकर लड़ाई लड़ने के सिवाय कोई अन्य राह मज़दूरों के पास बचती नहीं है।

लुधियाना के टेक्सटाइल तथा होजरी मज़दूरों ने ‘मज़दूर पंचायत’ बुलाकर अपनी माँगों पर विचार-विमर्श कर माँगपत्रक तैयार किया

यूनियन के नेताओं ने मज़दूर पंचायत के उदेश्य के बारे में बात करते हुए कहा कि संगठन में जनवादी कार्यप्रणाली बहुत जरूरी है तथा संगठन में फैसले समूह की सहमति से लिये जाने चाहिए। इस से मज़दूरों को यह अहसास भी होता है कि यह माँगें-मसले उनके अपने हैं तथा उन्हें ही इस के लिए लड़ना होगा। अपने इस उदेश्य में यूनियन अब तक सफल रही है और यह लगातार तीसरा साल है जब माँगपत्र तैयार करने के लिए मज़दूर पंचायत बुलाई जा रही है। पिछले दो सालों में यूनियन 72 दिनों की हड़ताल भी कामयाबी के साथ चला चुकी है और उसने मालिकों को झुका के ही दम लिया था। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस साल भी मज़दूर पंचायत बुलाई गई है। बड़ी संख्या में मज़दूरों की भागीदारी निश्चित करने के लिए यूनियन ने 24,000 पर्चे लुधियाना के टेक्सटाइल तथा होजरी मज़दूरों में नुक्कड़ सभाएं कर और कमरे-कमरे जाकर बाँटे और उनको मज़दूर पंचायत में आने के लिये प्रेरित किया।

राष्ट्रपति मोर्सी सत्ता से किनारे, मिस्र एक बार फिर से चौराहे पर

इस तरह एक वार फिर, मिस्र की घटनाएँ यह साफ कर रही हैं कि पूँजीपति वर्ग की सत्ता का विकल्‍प मज़दूर वर्ग की सत्ता ही है और पूँजीवाद का विकल्‍प आज भी समाजवाद है। और किसी भी तरीके से पूँजीवाद का विरोध हमें ज़्यादा से ज़्यादा किसी चौराहे पर लाकर ही छोड़ सकता है, रास्ता नहीं दिखा सकता। भविष्य का रास्ता मज़दूर वर्ग की विचारधारा मार्क्सवाद और मार्क्सवादी उसूलों पर गढ़ी तथा जनसंघर्षों-आंदोलनों में तपी-बढ़ी मज़दूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी ही दिखा सकती है। मगर तब भी मिस्र की ताजा घटनाओं का महत्त्व कम नहीं हो जाता, इनसे यह एक बार फिर साबित होता है कि जनता अनंत ऊर्जा का स्रोत है, जनता इतिहास का बहाव मोड़ सकती है, मोड़ती रही है और मोड़ती रहेगी। मिस्र का आगे का रास्ता फिलहाल अँधेरे में डूबा दिखाई दे रहा है, लेकिन यह अकेले मिस्र की होनी नहीं है, तमाम दुनिया में अवाम रास्तों की तलाश कर रहा है।

असंगठित क्षेत्र के बादाम मज़दूरों ने 60 से ज्यादा फ़ैक्ट्रियों में 6 दिन की हड़ताल से मालिकों को झुकाया

पिछली हड़ताल की गलतियों से मज़दूरों ने सीख लिया था कि मज़दूरों की व्यापक एकता और सही नेतृत्व ही उन्हें जीत दिला सकता है। केएमयू की पकड़ मज़दूरों में व्यापक और गहरी हुई थी इसकी वजहें थीं, मज़दूरों के बीच सतत राजनीतिक प्रचार करना, मालिक द्वारा पैसा रोके जाने या पुलिस या दबंगों द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर मज़दूरों को संगठित करके संघर्ष करना। इसके अलावा इलाके में सुधार कार्य करना। इन सब कामों से केएमयू पर मज़दूरों का विश्वास बढ़ा था। इलाके में मौजूद दलाल ट्रेड यूनियन एक्टू का पूरी तरह से सफाया हो जाने का जिसके लोग मज़दूरों में भ्रम फैलाने और दलाली में लगे रहते थे, केएमयू को फायदा हुआ। अन्य पेशे के मज़दूरों जिनमें मुख्य रूप से भवन निर्माण मज़दूर, पेपर प्लेट मज़दूर, वॉकर फैक्ट्री मज़दूर आदि के खुलकर बादाम मज़दूरों के संघर्ष में साथ आने से मज़दूरों की इलाकाई एकता मजबूत हुई है।

इलाहाबाद में फासिस्टों की गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ छात्र सड़कों पर

फासिस्ट ताकतें अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। और भारत में इनके हौसले लगातार बढ़ ही रहे हैं। पिछले दिनों, अंधविश्वास और जादू-टोने के खिलाफ लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र डाभोलकर की हत्या कर दी गयी, फिर पुणे में उनकी श्रद्धांजलि सभा पर एबीवीपी और बजरंग दल के गुंडों ने हमला करके आयोजक छात्रों को घायल कर दिया। इसी तरह, इलाहाबाद में लगायी जाने वाली दो प्रगतिशील दीवार पत्रिकाओं ‘प्रतिरोध’ और ‘संवेग’ को फाड़ने और उन्हें लगाने वाले छात्रों से फोन पर गाली गलौज करने और गुजरात के मुसलमानों की तरह काटकर फेंक देने की धमकी देने का मामला सामने आया है।