Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

वज़ीरपुर में ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में हड़ताल

गरम रोला मज़दूर एकता समिति को अपने संघर्ष को गरम रोला के मज़दूरों के साथ ठंडा रोला के मज़दूरों, सर्कल के मज़दूरों और पोलिश के मज़दूरों व वजीरपुर इलाके के सभी फ़ैक्टरियों के मज़दूरों के साथ जोड़ना होगा। 700 कारखानों में मज़दूरों की ज़्यादातर माँगें समान हैं। वजीरपुर इलाके के मज़दूर ऊधम सिंह पार्क, शालीमार बाग व सुखदेव नगर की झोपड़पट्टियों में रहते हैं और यहाँ मज़दूरों की आवास, पानी व अन्य साझा माँगें बनती हैं। इन सभी माँगों को समेटने और इस लड़ाई को व्यापक बनाने का काम एक इलाकाई यूनियन ही कर सकती है। इसलिए गरम रोला मज़दूर एक

मज़दूरों की सेहत से खिलवाड़ – आखिर कौन ज़िम्मेदार?

दूसरा, मज़दूर इलाकों में झोला-छाप डाक्टरों की भरमार है। ये झोला-छाप डाक्टर बीमारी और दवाओं की जानकारी न होने के बावजूद सरेआम अपना धन्धा चलाते हैं। इनका हर मरीज़ के लिए पक्का फार्मूला है – ग्लूकोज़ की बोतल लगाना, एक-दो इंजेक्शन लगाना, बहुत ही ख़तरनाक दवा (स्टीरॉयड) की कई डोज़ हर मरीज़ को खिलाना और साथ में दो-चार किस्म की गोली-कैप्सूल थमा देना। छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी ये धन्धेबाज़ मज़दूरों की जेबों से न सिर्फ अच्छे-ख़ासे रुपये निकाल लेते हैं, बल्कि लोगों को बिना ज़रूरत के ख़तरनाक दवाएँ खिलाते हैं। दवाओं की दुकानों वाले कैमिस्ट डाक्टर बने बैठे हैं और अपना धन्धा चलाने के लिए आम लोगों को तरह-तरह की दवाएँ खिलाते-पिलाते हैं। मज़दूर के पास जो थोड़ी-बहुत बचत होती भी है, वो ये झोला-छाप डाक्टर हड़प जाते हैं और बाद में इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो मज़दूर के पास कुछ नहीं बचा होता। नतीजतन, या तो मज़दूर घर भागता है, या फिर बिना इलाज के काम जारी रखता है जिसके नतीजे भयंकर निकलते हैं। सरकार के सेहत विभाग के पास इसकी जानकारी न हो, ये असम्भव है। असल में ये सब सरकारी विभागों-अफसरों की मिली-भगत से चलता है!

मंगोलपुरी की घटना ने फिर साबित किया कि आज न्याय, इंसाफ़ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है!

नगरनिगम, विधानसभा से लेकर संसद तक मौजूदा सरकारें समाज के धनी वर्गों की सेवा करती हैं। अमीरज़ादों के लिए बनाये गये सरकारी और निजी स्कूलों में सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम हैं। जबकि ग़रीबों के बच्चों को बुनियादी सुरक्षा भी स्कूलों में नहीं दी जाती है, कि उनका जीवन सुरक्षित रहे। और तो और, ऐसी किसी घटना के बाद गरीब लोगों को आमतौर पर इंसाफ मिल ही नहीं पाता है। मंगोलपुरी की इस घटना के बाद प्रशासन का जो रवैया रहा उसने यही साबित किया कि मौजूदा व्यवस्था में न्याय, इंसाफ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है; जबकि मज़दूरों के लिए ये सिर्फ कागज़ी बातें है। मेहनतकश लोग अगर सच्चे मायनों में अपने और अपने बच्चों के लिए न्याय, इंसाफ और सुरक्षा चाहते हैं तो उन्हें मुनाफ़े पर टिकी मौजूदा व्यवस्था के ख़ात्मे के बारे में सोचना होगा।

नोएडा के निर्माण मज़दूरों पर बिल्डर माफिया का आतंकी कहर

जिस बस्ती में मज़दूर रहते हैं उसके हालात नरकीय हैं। इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि टिन के शेड से बनी इस अस्थायी बस्ती में मज़दूर कैसे रहते हैं। मुर्गी के दरबों जैसे कमरों में एक साथ कई मज़दूर रहते हैं और उनमें से कई अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। बस्ती में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। मज़दूरों को पानी खरीद कर पीना पड़ता है। बिजली भी लगातार नहीं रहती। शौचालय के प्रबन्ध भी निहायत ही नाकाफी हैं और समूची बस्ती में गन्दगी का बोलबाला है। नाली की कोई व्यवस्था न होने से बस्ती में पानी जमा हो जाता है और बरसात में तो हालत और बदतर हो जाती है। यही नहीं, जैसे ही यह प्रोजेक्ट पूरा हो जायेगा, इस बस्ती को उजाड़ दिया जायेगा और मज़दूरों को इतनी ही ख़राब या इससे भी बदतर किसी और निर्माणाधीन साइट के करीब की मज़दूर बस्ती में जाना होगा।

निर्माण क्षेत्र में मन्दी और ईंट भट्ठा मज़दूर

ईंट उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, 250 लाख टन कोयला की खपत के साथ देश भर में एक साल में लगभग 200 अरब ईंटे बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नारकीय है। भट्ठा मज़दूर सबसे अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। इनमें से अधिकतर मज़दूरों से भट्ठा मालिक गुलामो की तरह काम कराते हैं। देश भर से कईं ऐसी घटनाएँ सामने आयीं हैं जहाँ भट्ठा मालिकों ने मज़दूरों को आग में झोंककर मार दिया। न तो ईंट मज़दूरों के बच्चे पढ़ ही पाते हैं और ज़्यादातर की किस्मत में इसी उद्योग में खपना लिखा होता है। भट्ठों में बिना किसी सुरक्षा साधन या मास्क के 7000-10000 डिग्री तापमान में काम करने से मज़दूर को फेफड़ों से लेकर आँख की बीमारियाँ होती हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर यहाँ बारिश के मौसम को छोड़कर सालभर काम में लगे रहते हैं। बच्चे से लेकर औरतें सभी को ये भट्ठे निगल जाते हैं।

एक मज़दूर की आपबीती

दबी आवाज़ में एक ने कहा भी चलो हम सब मिलकर उससे (ठेकेदार) पूछते है कि ऐसा करने का तुमको क्या अधिकार बनता है? मगर साहस न हुआ किसी को। सब एकदूसरे का मुँह ताक रहे थे कि कोई आगे चल पड़े। किसी की हिम्मत न पड़ी क्योंकि सबको डर था कि कहीं मेहनत का पैसा भी न डूब जाये। और करीब 15-20 मज़दूरों ने तनख्वाह लेकर काम छोड़ दिया; जिसमें एक मैं भी था। फिर कल ठेकेदार सतीश का फोन आया कि आजा काम दबाकर चल रहा है तब मैंने फोन पर अपने दिल की भड़ास निकाली।

समयपुर, लिबासपुर का लेबर चौक

घटनाए और भी बहुत सारी है। मगर समस्या का दुखड़ा रोने से कुछ नहीं होता। मुख्य जड़ तो यही है। कि जब तक हम अपनी ताकत को नहीं पहचानते तब तक कुछ नहीं कर पाएंगे। एक आदमी आऐगा और दो सौ लोगों के बीच किसी में किसी एक मजदूर भाई को पीटकर चला जाऐगा।

भारत की ‘सिलिकन घाटी’ की चमक-दमक की ख़ातिर उजड़ा मेहनतकशों का आशियाना

सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग में काम करने वाली आबादी देश की पूरी श्रमिक आबादी का एक बेहद छोटा हिस्सा है, फ़िर भी चूँकि यह आबादी बाज़ार में उपलब्ध ऐशो-आराम के तमाम साजो समान को खरीदने की कुव्वत रखती है, इसलिए बंगलूरू शहर का पूरा विकास इस छोटी सी आबादी की ज़रूरतों को केन्द्र में रखकर किया जा रहा है। तमाम विज्ञापनों के ज़रिये इस आबादी को अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसी जीवन शैली के सपने दिखाये जाते हैं। वातानुकूलित घरों और कार्यालयों में रहने वाले तथा वातानुकूलित गाड़ियों और शॉपिंग मॉलों में विचरण करने वाली इस आबादी को यह आभास तक नहीं होता कि उनके सपनों की दुनिया का निर्माण करने वाली बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी न सिर्फ़ इन सपनों से वंचित होती जा रही है बल्कि उसकी रही सही दुनिया भी दिन-ब-दिन उजड़ती जा रही है। मुम्बई के गोलीबार और कोलकता के नोनदंगा प्रकरण की तर्ज़ पर बंगलूरू में भी 19-20 जनवरी को इजीपुरा नामक मज़दूर बस्ती को प्रशासन और रियल स्टेट माफिया की मिलीभगत से उजाड़ दिया गया और देखते ही देखते मेहनतकशों के 1500 परिवारों के लगभग 8000 लोग सड़क पर आ गये।

पूँजी की ताकत के आगे हड़ताल के लिए जरूरी है वर्ग एकजुटता!

हड़ताल मजदूर वर्ग का एक ऐसा जबर्दस्त हथियार है जिसकी ताकत के दम पर वह मालिक वर्ग को अपनी व्यवहारिक माँगों को पूरा करने के लिए घुटने टेकने को मजबूर कर देता है। 1990 के दशक से जारी निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के साथ-साथ मालिक वर्ग ने ऐसे एक खास तरीके की रणनीति तैयार की है जिससे कि किसी एक फ़ैक्टरी में हड़ताल होने से उनकी सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। वो तरीका है एक बड़े कारखाने को सौ छोटे कारखानों में बाँट देना। ऐसी ही एक फ़ैक्टरी हड़ताल की घटना हमारे सामने है जो हड़ताल के बारे में कुछ जरूरी सबक देती है।

एक मेहनतकश औरत की कहानी…

इस पूँजी की व्यवस्था में बिना पूँजी के लोगों की ऐसी ही हालत हो जाती है जैसे अभी पूजा की है। एकदम बेजान, चेहरा एकदम सूखा हुआ। 28 साल की उम्र में उसको स्वस्थ और सेहतमन्द होना चाहिए था मगर इस उम्र में जिन्दगी का पहाड़ ढो रही है और दिमागी रुप से असुन्तिल हो गयी है।