Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

आन्दोलन को थकाकर तोड़ने की पुरानी कहानी फिर दोहरायी जा रही है

मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न की यह सच्चाई उस कम्पनी की है जहाँ एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन साल से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। मज़दूरों के अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस., एटक, सीटू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. से जुड़ी यूनियनें हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कार्रवाइयाँ करके मज़दूरों के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रही हैं। अगर एच.एम.एस. अपने साथ जुड़ी सभी यूनियनों को भी मज़दूरों के साझा सवालों पर एक साथ कार्रवाई करने के लिए लामबन्द नहीं कर सकता तो व्यापक मज़दूर एकता के लिए उससे कुछ करने की उम्मीद करना भी बेकार है।

मज़दूरों में मालिक-भक्ति की बीमारी

मज़दूरों को मालिकों की ऐसी नौटंकियों के झाँसे में नहीं आना चाहिए। मालिक की परख करनी हो तो वेतन बढ़वाने, श्रम कानून लागू करवाने और रिहायशी सुविधाओं के लिए मालिक के मुनाफे में से हिस्सा आदि माँगें मालिक के सामने रखकर देखो। तुरन्त मालिक की अच्छाई और कल्याणकारी प्रवृति पर से मुखौटा उतर जाएगा और पूजा-पाठ करने वाले, देवी-देवताओं के भक्त मालिक के भीतर बैठा जानवर जाग उठेगा और पुलिस-शासन-प्रशासन को साथ लेकर मज़दूरों पर टूट पड़ेगा। मालिक मज़दूर के कल्याण के बारे में कभी नहीं सोच सकता। पँजीवादी व्यवस्था की यही सच्चाई है। मालिक सिर्फ मज़दूरों की एकता के आगे झुकता है। मालिक इसी से डरता है और मज़दूरों को एकता न बनाने देने के लिए और बनी हुई एकता तोड़ने के लिए सभी चालें चलता है। मालिक द्वारा पूजा-पाठ, भण्डारे, जागरण आदि करना भी ऐसी चालों में से एक है।

यहाँ मज़दूर की मेहनत की लूट के साथ ही उसकी आत्मा को भी कुचल दिया जाता है

अगर यहाँ मज़दूरों को कारख़ाना परिसर में दी जाने वाली सुविधाओं की बात करें, तो वे हमारे साथ मज़ाक करती सी लगती हैं। यहाँ हम औरतों की संख्या कोई दो-ढाई हज़ार के आस-पास है। लेकिन शौचालय हैं सिर्फ दो, जिनमें चार-चार टॉयलेट हैं यानि कुल आठ टॉयलेट इतनी औरतों के लिए हैं। इनमें से चार में पानी नहीं आता। इनमें नल को स्थाई रूप से बन्द कर दिया गया है। ये आठों टॉयलेट इतने गन्दे होते हैं कि सड़ाँध मार रहे होते हैं। दोनों शौचालयों के लिए सिर्फ एक-एक टयूब लाइट लगी है। सीलन का साम्राज्य तो, छत, दीवारों को पार करके फर्श तक फैला है। फर्श पर कीचड़ ही कीचड़ होता है। इन कीचड़ भरे, सड़ाँध मारते, सीलन भरे अँधेरे शौचालयों से हम औरतें क्या-क्या बीमारियाँ अपने शरीरों में पाल रही हैं — हमें ख़ुद नहीं पता।

मज़दूरों की असुरक्षा का फ़ायदा उठा रही हैं तरह-तरह की कम्पनियाँ

मालिकों का तो काम ही है लूटना, मगर लगता है जैसे हम मजदूरों ने भी इसी को अपना धर्म मान लिया है कि बाबूजी जो कहें वही सही है। इसके आगे का कोई रास्ता नहीं। आज हर मज़दूर इतना ज्यादा असुरक्षित हो चुका है कि वह अपना अस्तित्व बचाने के लिए तरह-तरह की तीन-तिकड़मों में फँसता चला जा रहा है। तनख्वाह कम होने की वजह से मज़दूरों की सोच में यह बैठ चुका है कि अगर ओवरटाइम, नाइट व डबल डयूटी नहीं लगायेंगे तो गुज़ारा नहीं होगा। और हकीकत भी यह है कि आठ घण्टे काम के लिए 3500-4000 रुपये महीने की तनख्वाह से ज़िन्दगी की गाड़ी रास्ते में ही रुक जायेगी।

मज़दूर कुछ करे तो क़ानून, मालिक लूटें तो कोई क़ानून नहीं

मैं सोचता हूँ कि एक मज़दूर द्वारा एक छोटी सी चोरी करने पर, वह भी पता नहीं किस मज़बूरी में की होगी, पुलिस तुरन्त पहुँच गयी और कानून अपना काम फुर्ती से करने लग पड़ा। जबकि मालिक रोज मज़दूरों को लूटते हैं और गाली-गलौज करते हैं, मज़दूरों को राह में अक्सर लूट लिया जाता है, कारखानों में रोज मालिकों की मुनाफे की हवस के कारण मज़दूरों के हाथ-पैर कट जाते हैं या वे मौत के मुँह में धकेल दिये जाते हैं। मालिक सभी श्रम कानूनों को कुछ नहीं समझते लेकिन पुलिस और कानून कभी किसी मज़दूर की मदद के लिए नहीं आते। अगर कभी मज़दूर शिकायत दर्ज करवाने थाने चले भी जायें तो पुलिस उनकी एक नहीं सुनती और कई बार तो उल्टा मज़दूरों को ही हवालात में बन्द कर दिया जाता है। मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ और रिहायश के इलाके बहुत बुरे हैं लेकिन यह किसी कानून को दिखाई नहीं देता। यह कैसा कानून है जो सिर्फ मज़दूरों पर ही लागू होता है, यह कैसा पुलिस-प्रशासन है जिसे सिर्फ मज़दूरों के गुनाह ही दिखते हैं?

भूख से दम तोड़ते असम के चाय बागान मज़दूर

दुनियाभर में मशहूर असम की चाय तैयार करने वाले असम के चाय बागान मज़दूरों के भयंकर शोषण और संघर्ष की ख़बरें बीच-बीच में आती रही हैं, लेकिन पिछले छह महीने से वहाँ के एक चाय बागान में मज़दूरों के साथ जो हो रहा है वह असम राज्य और देश की शासन-व्यवस्था के लिए बेहद शर्मनाक है। असम के 3000 चाय मज़दूर और उनके परिवार, बागान प्रबन्धन के भयंकर शोषण-उत्पीड़न और सरकारी तन्त्र की घनघोर उपेक्षा की वजह से लगातार भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। अभी तक कम से कम 14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में हो चुकी है। यह बागान असम के कछार ज़िले में भुवन वैली चाय बागान नाम से जाना जाता है जिस पर कोलकाता की एक निजी कम्पनी का मालिकाना है।

घरेलू मज़दूरों के निरंकुश शोषण पर एक नज़र

सम्पन्न व्यक्तियों के घरों में होने वाले किसी भी अपराध के लिए सबसे पहले घरेलू नौकरों या वहाँ काम करने वाले मज़दूरों पर ही शक़ किया जाता है। पुलिस भी उन्हें ही सबसे पहले पकड़ती है और अपराध क़बूलवाने के लिए पुलिस की बर्बर पिटाई से घरेलू मज़दूरों की मौत के अनगिनत उदाहरण हैं। मालिक भी बेख़ौफ़ अपना हक़ समझते हैं कि अपने घर में काम करने वाले कामगारों के साथ मनमाना सुलूक़ करें। कम उम्र के नौकरों को गर्म लोहे से दागने, बुरी तरह मारने-पीटने और स्त्री मज़दूरों के साथ बदसलूक़ी की घटनाएँ बहुत आम हैं। कुछ महीने पहले एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी द्वारा अपने घर में काम करने वाली एक बच्ची को चोरी के शक़ में यातनाएँ देकर मार डालने की बर्बर घटना अख़बारों में आयी थी।

पीसरेट पर काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की अँधेरी ज़िन्दगी

देश की तरक्की के लम्बे-चौड़े दावे किये जा रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी दिखायी जा रही है। मगर इस तरक्की में इन औरतों के श्रम का योगदान किसी को कहीं नहीं दिखायी देता है। अपने सारे घरेलू काम करने के अलावा ये औरतें 10-12 घण्टे काम करती हैं। बेहद कम मज़दूरी पर ये हाड़ गलाकर, आँख फोड़कर दिन-रात सबसे ज़्यादा मेहनत वाले, उबाऊ और थकाऊ कामों में लगी रहती हैं। कई स्त्रियाँ इसलिए भी घर पर काम करती हैं क्योंकि अपने छोटे बच्चों को घर छोड़कर फैक्ट्री में नहीं जा सकती हैं, या फैक्ट्री के माहौल के कारण वहाँ जाकर काम नहीं करना चाहतीं। कुछ महिलाएँ अपने पिछड़ेपन या पति के पिछड़ेपन की वजह से बाहर काम नहीं करना चाहती हैं, और इन वजहों से भी मालिकों की चाँदी हो जाती है। एक तो उन्हें बहुत कम मज़दूरी देनी पड़ती है, दूसरे, जगह के किराये, पानी-बिजली, मशीन-औज़ार, मेण्टेनेंस जैसे ख़र्चों से छुटकारा मिल जाता है। इनका भयंकर शोषण होता है, इन्हें कोई भी सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, कोई श्रम क़ानून इन पर लागू नहीं होता है। किसी भी सरकारी विभाग में इन्हें मज़दूर माना ही नहीं जाता। लेकिन सबसे बुरी बात तो ये है कि ये औरतें ख़ुद को मज़दूर मानती ही नहीं हैं, उन्हें लगता है कि अपने ख़ाली समय में या घर पर बैठे-बैठे थोड़ा-बहुत कमा लेती हैं जिससे बच्चों को थोड़ा बेहतर खाने को मिल जाता है या कर्ज़ का बोझ कुछ कम हो जाता है।

लेबर चौक : मज़दूरों की खुली मण्डी

अगर आपको गाँवों में लगने वाले जानवरों के मेले में कभी जाने का मौका मिला हो तो आप यहाँ के दृश्य का अनुमान लगा सकते हैं। जैसे मेले में बैल की पूँछ उठाकर, कन्धे टटोलकर उसके मेहनती होने की जाँच-पड़ताल की जाती है वैसे ही ‘लेबर चौक’ पर मालिक-ठेकेदार लोग ऑंखों से परखते हैं। कई बेशर्म ठेकेदार तो हाथ से भी जाँचने की कोशिश करते हैं। हमने स्कूल की किताब में पढ़ा था कि बहुत साल पहले ग़ुलामों को चौराहे पर ख़रीदा-बेचा जाता था। दुनिया बदल गयी, इन्सान कहाँ से कहाँ पहुँच गया, लेकिन हम मज़दूर फिर से उसी ग़ुलामी की हालत में धकेल दिये गये हैं।

पहले अद्धा दो फिर होगा इलाज

मैं एक मज़दूर हूँ और लुधियाना में करीब 10-11 साल से काम कर रहा हूँ। मेरा छोटा भाई जगन्नाथ सात-आठ साल से यहाँ काम कर रहा है। पिछले नौ महीने से वह न्यू शन फैक्टरी, फोकल प्वाइण्ट, फेस-8 में काम कर रहा था। इसी वर्ष 21 जनवरी को अचानक काम के दौरान उसके बायें हाथ की एक उँगली टूट गयी। फैक्टरी वाले उसे एक नज़दीकी प्राईवेट अस्पताल में भर्ती करवा दिये। मालिक की इस अस्पताल से साँठ-गाँठ थी। दो दिन तक उसी अस्पताल में इलाज करवाकर उसे छुट्टी दे दी गयी। चार दिन घर पर दवाई हुई। 27 जनवरी को मेरे छोटे भाई का ई.एस.आई. कार्ड बनाया गया लेकिन उसे 30 जनवरी को ही दिया गया। मेरे भाई को कहा गया कि अब वो अपना इलाज ई.एस.आई. से करवाये। ई.एस.आई. डिस्पेंसरी में पर्ची बनवाने के लिए लम्बी लाइन लगी थी। पर्ची बनाने वाला बार-बार उठकर इधर-उधर घूम रहा था। मैंने कहा सर जी जल्दी पर्ची बना दीजिये मेरे छोटे भाई की उँगली बहुत दर्द कर रही है। लेकिन उस समय 1 बज गया था। पर्ची बनाने वाले ने कहा कि अब तो वो खाना खाने जायेगा। वो करीब ढाई बजे आया और बोला अब नहीं बनेगा क्योंकि उनके स्टाफ के किसी व्यक्ति का रिटायरमेंट पार्टी है। तुम लोग अगले दिन आना। मैंने कहा कि सर जी डॉक्टर साहब से मिलना बहुत ज़रूरी है नहीं तो उँगली ख़राब हो जायेगी। करीब 10 मिनट तक हमको रोके रखने के बाद पर्ची बनाने वाले ने कहा कि अगर आज ही पर्ची बनवाना है तो एक अंग्रेजी अधिया लाकर देना होगा। वो पहले ही दारू पी रखा था। मैंने कहा कि आप तो पहले ही पिये हुए हो कल पी लीजियेगा। मेरी बात पर वो गुस्से में बोला कि आज तेरी पर्ची नहीं मिलेगी, कल सुबह आकर ले लेना। हम दोनों अगली सुबह 9 बजे वहाँ पहुँचे। करीब 11 बजे कोई दूसरा व्यक्ति पर्ची बनाने के लिए आया। चार बजे डॉक्टर आया। उसने एक हफ़्ते की दवा लिख दी। ई.एस.आई. स्टोर में दवा लेने गये तो वहाँ हमें पूरी दवा नहीं दी गयी। बाकी दवा हमें बाहर मेडिकल स्टोर से लेने के लिए कहा गया। अब हमें दवाइयाँ बाहर से लेनी पड़ रही हैं और इलाज भी बाहर से कराना पड़ रहा है। हमारा दो हफ्ते में करीब दो हज़ार रुपये खर्चा हो चुका है। जो छुट्टी का पैसा मिलना था उसके लिए आज-कल करके दौड़ाया जा रहा है। लगभग एक महीना होने वाला है लेकिन पैसा नहीं मिल रहा। पूछो तो कहते हैं कि जल्दी है तो पहले दो सौ रुपया महीना देना पड़ेगा। हमने कहा कि हमारे पास तो दवा करवाने के लिए पैसा नहीं है आपको कहाँ से दें। इस बात को सुनकर हमें कहा गया कि यहाँ नेतागिरी नहीं चलेगी। फिर कहा गया कि इलाज यहाँ पर नहीं अब पुलिस चौकी में होगा।