Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न इलाक़ों में चुनावी राजनीति का भण्डाफोड़ अभियान

अभियान के दौरान कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पिछले 62 वर्ष से जारी चुनावी तमाशे का पर्दाफ़ाश करते हुए बड़े पैमाने पर बाँटे जा रहे विभिन्न पर्चों, नुक्कड़ सभाओं, कार्टूनों और पोस्टरों की प्रदर्शनियों तथा नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये लोगों को बता रही हैं कि दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों, अशिक्षितों व बेरोज़गारों वाले हमारे देश में कुपोषण, बेरोज़गारी, महँगाई, मज़दूरों का भयंकर शोषण या भुखमरी कोई मुद्दा ही नहीं है! आज विश्व पूँजीवादी व्यवस्था गहराते आर्थिक संकट तले कराह रही है। ऐसे में किसी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिए कोई ठोस मुद्दा नहीं है। सब जानते हैं कि सत्ता में आने के बाद उन्हें जनता को बुरी तरह निचोड़कर अपने देशी-विदेशी पूँजीपति आकाओं के संकट को हल करने में अपनी सेवा देनी है। सभी पार्टियों में अपने आपको पूँजीपतियों का सबसे वफ़ादार सेवक साबित करने की होड़ मची हुई है।

सी.सी. टीवी से मज़दूरों पर निगरानी

फैक्ट्री में ईवा कम्पनी का चप्पल एवं जूता बनता है, जिसमें काफी प्रदूषण होता है, जिससे मज़दूर टीबी एवं दमा के शिकार हो जातेे हैं। 2007 में एक मज़दूर का हाथ कट गया था, उस मज़दूर का ई.एस.आई. लगवाकर छोड़ दिया गया और काम से भी निकाल दिया गया। फैक्ट्री में इतनी कड़ाई है कि एक लेबर दूसरे से बात नहीं कर सकता है। फैक्ट्री में तो मालिक ने सीसीटीवी भी लगा रखा है जिससे वह मज़दूरों पर हर समय नज़र रखता है। ऐसा लगता है कि हम एक कैदखाने में काम करते हैं, ज़रा नज़रें उठायीं तो गाली-गलौज सुनो!

मैट्रिक्स क्लोथिंग, गुड़गाँव में मजदूरों के हालात!

कहने को इस कम्पनी मे जगह-जगह बोर्ड लगे हुए हैं। जो कि मज़दूरों को उनके श्रम कानूनों, उनके यूनियन बनाने के अधिकार से परचित कराते रहते हैं। मगर सारे श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ती रहती हैं। और रही बात यूनियन बनाने की तो ब्रम्हा जी भी वहाँ यूनियन नहीं बना सकते। श्रम कानूनों मे से एक श्रम कानून का बोर्ड हमको यह बताता है। कि आपसे (किसी भी वर्कर से) एक हफ्ते मे 60 घण्टे से ज्यादा कोई काम नहीं ले सकता और ओवरटाइम का दोगुने रेट से भुगतान होगा। इसके उलट व्यवहार मे कम्पनी का नियम यह है कि ओवरटाइम लगाने से कोई मना नहीं कर सकता अगर सण्डे को कम्पनी खुली है तो भी आना पड़ेगा। कम्पनी की इसी मनमानी के चलते अधिकतर मज़दूर काम छोड़ते रहते हैं। और जो नही छोड़ते वो बीमार होकर मजबूरी मे गाँव की राह देखते हैं (सितम्बर 2013 मे 3 मज़दूरों ने छाती दर्द) की वजह से गाँव जाने की छुट्टी ली। अक्टूबर मे 5 नए मज़दूरों ने काम छोड़ दिया। उनकी तबीयत नहीं साथ दे रही थी। जिसमे एक को तो टायफाइड हो गया और एक यह बता रहा था। कि फैक्ट्री के अन्दर जाते हैं तो चक्कर सा आने लगता है व उल्टी सी होने लगती है। खैर ये आँकड़े तो आँखों देखे व कानों सुने हैं, असल हकीकत तो इससे भी भयंकर है ।

आपस की बात

‘‘पार्टी आप’’ ‘‘पार्टी आप’’
डाल माल प्रवचन सुनाये
गाल बजाये तोंद फुलाये
बुद्धि के ठेकेदार
ढंग कुढंगी बेढब संगी
चोली दामन का साथ।
जेपी लोहिया की कब्र उखाड़
टेम्प्रेचर का लेकर नाप
क्रान्ति होगी मोमबत्ती छाप

हमें मज़दूर बिगुल क्यों पढ़ना चाहिए?

आज भारत की 88 प्रतिशत मेहनतकश आबादी जो हर चीज अपनी मेहनत से पैदा करती है जिसके दम पर यह सारी शानौ-शौकत है वो खुद जानवरों सी जिन्‍दगी जीने को मजबूर है। आये दिन कारखानों में मज़दूरों के साथ दुर्घटनाएँ होती रहती हैं और कई बार तो इन हादसों में मज़दूरों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी है, पर किसी भी दैनिक अखबार में इन हादसों को लेकर कोई भी खबर नही छपती है। अगर कोई इक्का-दुक्का अखबार इन खबरों को छाप भी दे तो वह भी इसे महज एक हादसा बता अपना पल्ला झाड़ लेता है जबकि यह कोई हादसे नहीं है बल्कि मालिकों द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने की हवस मे मज़दूरों की लगातार की जा रही निर्मम हत्याएँ हैं। दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और इन जैसे ही अन्य अखबार कभी भी मज़दूरों कि माँगों और उनके मुद्दों से संबंधित ख़बरें नही छापेंगे क्योंकि यह सब पूँजीपतियों के पैसे से निकलने वाले अखबार है और यह हमेशा मालिकों का ही पक्ष लेगे। मज़दूरों की माँगो, मुद्दों और उनके संघर्षों से जुड़ी ख़बरे तो एक क्रान्तिकारी मज़दूर अखबार में ही छप सकती हैं और ऐसा ही प्रयास मज़दूर बिगुल का भी है जो मज़दूरों के लिए मज़दूरों के अपने पैसे से निकलने वाला हमारा अपना अखबार है, जिसका मुख्य उद्देश्य मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी प्रचार प्रसार करते हुए उन्हे संगठित करना है।

शहरी ग़रीबों में बीमारियों और कुपोषण की स्थिति चिन्तनीय

शहरी ग़रीबों की भारी आबादी आज बीमारियों, कुपोषण तथा इलाज के अभाव की शिकार है। राजधानी दिल्ली के लाखों मज़दूर कमरतोड़ काम करने के बाद भी स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। स्त्रियों में ख़ून की कमी तथा बच्चों में कुपोषण से पैदा होने वाले रोगों की स्थिति चिन्तनीय है और पुरुषों में भी विभिन्न प्रकार के रोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है। स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच मुश्किल और महँगी होती जा रही है। ऊपर से सरकारी अस्पतालों में भारी भीड़, दवाओं के न मिलने तथा खाने-पीने की चीज़ों की भीषण महँगाई ने मेहनतकश आबादी के बीच स्वास्थ्य की समस्या को और भी गम्भीर बना दिया है।

कैसी ख़ुशियाँ, आज़ादी का कैसा शोर? राज कर रहे कफ़नखसोट मुर्दाखोर!

तमिलनाडु के वेदर्नयम इलाक़े में सड़क से काफ़ी दूर आदिवासी कालोनी में 200 से भी ज़्यादा परिवार हैं, जो नमक की डलियाँ बनाने का काम करते हैं। समुद्री पानी से भी तीन गुना खारे (नमकीन) पानी में खड़े रहकर नमक को इकट्ठा करते हैं, छानते हैं, फिर सूखने पर उसे प्लास्टिक के पैकेट में पैक करते हैं। दिनभर नमक के दलदलों में 45-50 डिग्री तापमान की चमड़ी झुलसा देने वाली धूप में कमरतोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें एक दिन का सिर्फ़ 50-100 रुपया मिलता है, जो न्यूनतम मज़दूरी से भी काफ़ी कम है। ज़्यादातर मज़दूर ठेकेदारों द्वारा दिहाड़ी पर रखे जाते हैं और उनके लिए सुरक्षा और स्वास्थ्य का कोई इन्तज़ाम नहीं है।

पीड़ा के समुद्र और भ्रम के जाल में पीरागढ़ी के मज़दूर

जूते-चप्पल की इन फैक्‍टरियों में ज्यादातर काम ठेके पर होता है। मालिक किसी भी तरह की मुसीबत से बचने के लिए और बैठे-बैठे आराम से मुनाफ़ा कमाने के लिए काम को ठेके पर दे देता है। जूते-चप्पल के काम में अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग ठेकेदार को ठेका दिया जाता है। जैसे जूते की सिलाई के लिए एक या दो ठेकेदार को दे दिया गया, जूता से तल्ला (shole) चिपकाने के लिए भी कई ठेकेदार या एक ही ठेकेदार को उसके बाद पैकिंग के लिए भी एक या दो ठेकेदार को काम दे दिया जाता है। इसके अलावा अगर जूता या चप्पल में पेंटिग का काम है तो इस काम को भी एक पेंटिग के ठेकेदार को ठेके पर दे दिया जाता है। इन ठेकेदार से मालिक एक जोड़ी चप्पल या जूता सिलाई या पैकिंग का रेट तय करता है। अधिकांश फैक्टरियों में पुरूष मज़दूर (हेल्पर) को आठ घण्टे के लिए 3800 से 4500 रूपये मिलते है, महिला मज़दूर (हेल्पर) को 3000 से 3500 रूपये मिलते है और अर्द्धकुशल मज़दूर को 5000 से 6000 रूपया प्रति माह मिलता है जो कि दिल्ली सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन का लगभग आधा है। इसके अलावा ठेकेदार जिस रेट से काम मालिक से लेता है उससे कम रेट पर अपने अर्द्धकुशल कारीगर से पीस रेट पर काम करवाता है। ठेकेदार ज्यादातर अपने गांव , क्षेत्र, धर्म के आदमी को साथ रखता है ताकि मज़दूरों को ‘अपना आदमी’ का भ्रम रहे। मज़दूर सोचता है कि ठेकेदार अपने क्षेत्र, धर्म का या रिश्तेदार है और जो मिल रहा है उसे रख लिया जाय। जबकि ठेकेदार ‘अपने’ क्षेत्र या धर्म के मज़दूर के सर पर बैठकर काम करवाता है, मज़दूरों की कम चेतना का फायदा उठता है उनसे अश्लील बातें करता है और किसी दिन कुछ खिला-पिला देता है। इन सबके बीच मज़दूर अपने हक अधिकार को भूल जाता है जिसका फायदा मालिक और ठेकेदार को ही होता है।

गुड़गाँव के “मल्टीब्राण्ड” शॉपिंग सेन्टरों की चकाचौंध में गुम होते दुकान मज़दूर

आम तौर पर लोगों का ध्यान इन कामों में लगे मज़दूरों के काम और जिन्दगी के हालात पर नहीं जाता। वास्तव में इन मज़दूरों की स्थिति भी कम्पनियों में 12 से 16 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही है। इन सभी सेण्टरों में काम करने वाले यूपी-उत्तराखण्ड-बिहार-बंगाल-उड़ीसा-राजस्थान जैसे कई राज्यों से आने वाले लाखों प्रवासी मज़दूर दो तरह की तानाशाही के बीच काम करते हैं। एक ओर काम को लेकर मैनेजर या मालिक का दबाव लगातार इनके ऊपर बना रहता है और दूसरा जिस मध्य-वर्ग की सेवा के लिये उन्हें काम पर रखा जाता है उसका अमानवीय व्यवहार भी इन्हें ही झेलना पड़ता हैं। दुकानों और रेस्तराँ में ये मज़दूर लगातार काम के दबाव में रहते हैं, लेकिन ग्राहकों के सामने बनावटी खुशी और सेवक के रूप में जाने की इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है। ये मज़दूर सिर्फ शारीरिक श्रम ही नहीं बेचते बल्कि मानसिक रूप से अपने व्यक्तित्व और अपनी मानवीय अनुभूतियों को भी पूँजी की भेंट चढ़ाने को मजबूर होते हैं। “आजाद” देश के इन सभी मज़दूरों को जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि किसी मालिक के मुनाफे के लिये मज़दूरी करें।

कुत्ते और भेड़िये, और हमारी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र

मैं इन सुपरवाइज़रों की कुत्ता-वृत्ति और भेड़िया-वृत्ति को पता नहीं
शब्दों में बाँध भी पा रही हूँ
कि नहीं
इनकी भौं-भौं और इनकी गुर्र-गुर्र
इनका विमानवीकरण
इनके दाँतों और नाख़ूनों में लगा
हमारी दम तोड़ती इच्छाओं और स्वाभिमान का ख़ून और ख़ाल