Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

मासू इण्टरनेशनल की दास्तान

अगर काम पर 5 मिनट लेट आये तो आधा घण्टे का पैसा कटेगा; अगर 10 मिनट लेट हुए तो एक घण्टे का और अगर 30 मिनट लेट आये तो चार घण्टे का पैसा कटेगा। हर रोज़ सुबह 9 बजे से शाम 7:30 बजे तक काम करना होता है जिसमें से आधा घण्टा लंच की छुट्टी मिलती है। इसके बाद सिंगल रेट पर ओवरटाइम करना चाहें तो आपकी मर्ज़ी, लेकिन दस घण्टे हाड़तोड़ काम करने के बाद शरीर जवाब दे जाता है। हेल्पर की तनख्वाह 4000 रुपये और अनुभवी कारीगरों की तनख्वाह 9000 रुपये से ज्यादा नहीं है। 11 साल पुराने मज़दूर भी अब तक हेल्पर की तनख्वाह ही पाते हैं, और किसी भी हेल्पर को ई.एस.आई., फण्ड, बोनस आदि कुछ नहीं मिलता।

दीप ऑटो के नियम-क़ानून दीप ऑटो प्राइवेट लिमिटेड

जब भी कोई मज़दूर फैक्टरी गेट से बाहर निकलता है, तो हर बार बड़ी मुस्तैदी से तलाशी ली जाती है कि वो कहीं कोई बोल्ट चुराकर न ले जाये। ऐसे जेल जैसे माहौल में गर्दन झुकाकर लगातार काम में लगे रहने के बदले में स्त्री मज़दूर को 8 घण्टे काम के 3200 रुपये महीना और पुरुष मज़दूर को 3500 रुपये महीना मिलते हैं। ओवरटाइम सिंगल रेट से ही मिलता है। अगर मज़दूर तीन-चार साल पुराने हों, तो स्त्री मज़दूर को 3500 रुपये महीना और पुरुष मज़दूर को 4000 रुपये महीना मिलते हैं। ये नियम-क़ानून किसी नोटिस बोर्ड पर नहीं लिखे हैं, मगर ये सभी मज़दूरों को याद रहते हैं। क्योंकि याद नहीं रहने पर ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है।

गुड़गाँव के आटोमोबाइल मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

इन सभी में ठेका मज़दूरों की स्थिति लगभग एक समान है। जाँच-पड़ताल और मज़दूरों से बातचीत करने पर यह जानकारी मिली। सभी में 8-8 घण्टे की तीन पालियों में 24 घण्टे काम होता है। ठेका मज़दूरों के लिए 8 घण्टे काम के बदले महीने में 4850 रुपये का वेतन निर्धारित है, जिसमें 12 प्रतिशत पीएफ और 1.75 प्रतिशत ईएसआई कटने के बाद लगभग 4100 रुपये महीना वेतन मज़दूर को मिलता है। पीएफ की कोई रसीद या ईएसआई कार्ड किसी मज़दूर को नहीं दिया जाता। सिर्फ काम पर आने के लिए एक गेटपास दे दिया जाता है। ज्यादातर मज़दूरों का कहना है कि कम्पनी छोड़ने पर पीएफ या ईएसआई का कोई पैसा कम्पनी नहीं देती, और मज़दूर कुछ समय तक चक्कर लगाने के बाद थक-हार कर छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके पास काम करने का कोई प्रमाण भी नहीं होता। यानी वास्तव में मज़दूरों का कुल वेतन 4100 रुपये ही है। हर जगह ओवरटाइम सिंगल रेट पर दिया जाता है। ऐसे में मज़दूर 12 से 16 घण्टे तक काम करते हैं। 16 घण्टे की डबल शिफ़्ट में काम करने पर मज़दूरों को एक दिन के 180 रुपये अधिक दे दिये जाते हैं। काम पर आने में लेट होने पर आधे दिन का वेतन काट लिया जाता है।

बेकारी के आलम में

मज़दूरों की ज़िन्दगी तबाह और बर्बाद है। बेरोज़गारी का आलम यह है कि लेबर चौक पर सौ में से 10 मज़दूर ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हें महीने भर से काम नहीं मिला। ऐसे में, जब कोई रास्ता नहीं बचता, तो ज़िन्दगी बचाने के लिए वो उल्टे-सीधे रास्ते अपना लेते हैं। ऐसे ही एक तरीक़े के बारे में बताता हूँ — भारत सरकार ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए नसबन्दी अभियान चलाया है। इसी अभियान में लगे दो एजेण्ट यहाँ के लेबर चौक पर लगभग हर रोज़ आते हैं और नसबन्दी कराने पर 1100 रुपये नकद दिलाने का लालच देकर हमेशा कई मज़दूरों को ले जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि भूख से मरते लोग कोई रास्ता नहीं होने पर इसके लिए भी तैयार हो जाते हैं।

इस जानलेवा महँगाई में कैसे जी रहे हैं मज़दूर

टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।

दिहाड़ी मज़दूरों की जिन्दगी!

मैं एक भवन निर्माण मज़दूर हूँ। मैं बिहार प्रदेश से रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आया हूँ। यहाँ मुश्किल से 30 दिनों में 20 दिन ही काम मिल पाता है। जिसमें भी काम करने के बाद पैसे मिलने की कोई गारण्टी नहीं होती है। कहीं मिल भी जाते हैं तो कहीं दिहाड़ी भी मार ली जाती है। कोई-कोई मालिक तो जबरन पूरा काम करवाकर (ज़मींदारी समय के समान) ही पैसे देते हैं और अधिक समय तक काम करने पर उसका अलग से मज़दूरी भी नहीं देते हैं। कई जगह मालिक पैसे के लिए इतना दौड़ाते हैं कि हमें लाचार होकर अपनी दिहाड़ी ही छोड़नी पड़ती है। यहाँ करावल नगर में लेबर चौक भी लगता है। जहाँ न बैठने की जगह है न पानी पीने की। चौक से जबरन कुछ मालिक काम पर ले जाते हैं नहीं जाने पर पिटाई भी कर देते हैं। दूसरी तरफ दिहाड़ी मज़दूरों की बदतर हालात सिर्फ काम की जगह नहीं बल्कि उनकी रहने की जगह पर भी है जहाँ हम तंग कमरे में रहते हैं।

शरीर गलाकर, पेट काटकर जी रहे हैं मज़दूर!

ऊपरी तौर पर देखा जाये तो भले ही मज़दूरों के पास मोबाइल आ गया हो, वे जींस और टीशर्ट पहनने लगे हों, लेकिन उनकी ज़िन्दगी पहले से कहीं ज्यादा कठिन हो गयी है। बहुत से सरकारी आँकड़े भी इस सच्चाई को उजागर कर देते हैं। ‘असंगठित क्षेत्र में उद्यमों के बारे में राष्ट्रीय आयोग’ की 2004-05 की रिपोर्ट के अनुसार करीब 84 करोड़ लोग (यानि आबादी का 77 फीसदी हिस्सा) रोज़ाना 20 रुपये से भी कम पर गुज़ारा करते हैं। इनमें से भी 22 फीसदी लोग रोज़ाना केवल 11.60 रुपये की आमदनी पर, 19 फीसदी लोग रोज़ाना 11.60 रुपये से 15 रुपये के बीच की आमदनी पर और 36 फीसदी लोग रोज़ाना 15-20 रुपये के बीच की आमदनी पर गुज़ारा करते हैं। देश के करीब 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों के मौत के 50 फीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 63 फीसदी भारतीय बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं और 60 फीसदी कुपोषण ग्रस्त हैं। दिल्ली में अन्धाधुन्ध ”विकास” के साथ-साथ झुग्गियों या कच्ची बस्तियों में रहने वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है और लगभग 70 लाख तक पहुँच चुकी है। इन बस्तियों में न तो साफ पीने का पानी है और न शौचालय और सीवर की उचित व्यवस्था है। जगह-जगह गन्दा पानी और कचरा इकट्ठा होकर सड़ता रहता है, और पहले से ही कमज़ोर लोगों के शरीर अनेक बीमारियों का शिकार होते रहते हैं।

हमारी कमज़ोरी का ईनाम है — ग़ालियाँ और मारपीट!

मालिक ने कारीगर को दफ्तर में बुलाया जहाँ माल लेने आयी पार्टी के भी 3-4 लोग बैठे थे। माँ-बहन की गालियाँ देते हुए उसने पूछा कि ये क्या है। कारीगर ने कहा बाबूजी, ज़रा सा पेण्ट छूटा है, अभी सही कर देता हूँ। इस पर मालिक ने पहले तो कान पकड़कर उसे बुरी तरह झिंझोड़ा और फिर दो थप्पड़ भी लगा दिये। फिर सारे मज़दूरों को गालियाँ बकने लगा। मज़दूरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसे निकालना ही था तो मारा क्यों। दो दिन से गालियाँ दे रहे हो, फिर भी हम चुप हैं। इसके जवाब में उसने अगले ही दिन 22 लोगों को बाहर कर दिया। हमें चुपचाप चले आना पड़ा।

मज़दूरों में मालिक-परस्ती कम चेतना का नतीजा है

इन सब स्थितियों के बाद भी मज़दूर कहते हैं, ‘मालिक बहुत दिलदार है।’ इसका कारण यह है कि उन्हें न तो अपने अधिकारों की जानकारी है और न ही इस बात की चेतना है कि इंसाफ और बराबरी किस चिड़िया का नाम है। इसीलिए मालिकों से छोटे-छोटे टुकड़े पाकर ही मज़दूर ख़ुश हो जाते हैं। हमें मज़दूरों में फैली इस सोच के ख़िलाफ भी लड़ना होगा, क्योंकि यह मानसिकता मज़दूरों को संगठित होने में बाधक है।

तनख्वाह उतनी ही, मगर काम दोगुना

मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि एक जगह काम छोड़कर दूसरी जगह काम पकड़ लेने से इस लूट से उनका पीछा नहीं छूटेगा। क्योंकि भारत तो क्या दुनिया भर में कोई कारख़ाना ऐसा नहीं होगा जहाँ पर पूँजीपति मज़दूरों की मेहनत की लूट के लिए ऐसे हथकण्डे न अपनाते हों। और न ही मशीनें ख़राब करने से यह लूट ख़त्म हो सकती है। 200 साल पहले, जब मज़दूर अपने शोषण का कारण नहीं समझ पाते थे तो वे अपना गुस्सा मशीन पर निकालते थे। लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे उनकी हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला। कुछेक मशीनें ख़राब होने से मालिक की सेहत पर ज्यादा असर नहीं होगा और कैमरे आदि के ज़रिए जब कुछ मज़दूर पकड़ लिये जायेंगे तो यह सिलसिला अपने आप ही ख़त्म हो जायेगा।