नोएडा में मज़दूरों का आक्रोश सड़कों पर फूटा
प्रमोद, नोएडा
नोएडा का औद्योगिक इलाका गत 20-21 फरवरी को मीडिया में राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में था। वजह थी मज़दूरों के आक्रोश का सड़कों पर फूटना। पूँजीवादी ख़बरिया चैनल और अख़बार मज़दूरों को गुण्डा, अपराधी और बल्बाई घोषित कर रहे थे। मगर यही मीडिया मज़दूरों के ऊपर होने वाले रोज़-रोज़ के अन्याय और ज़ोर-ज़ुल्म पर चुप्पी साधे रहता है। देश के अन्य औद्योगिक इलाकों की तरह नोएडा के कम्पनी मालिक श्रम क़ानूनों का खुले आम उल्लंघन करते हैं, यह तो किसी से छुपा नहीं है, मगर अब तो पूरी की पूरी तनख़्वाह भी मार ली जा रही है। नोएडा में ऐसे हज़ारों मज़दूर मिल जायेंगे जिनकी एक-एक दो-दो महीने की तनख़्वाह कोई न कोई बहाना बनाकर मार ली गई है। इनमें से ज़्यादातर मामलों में मालिकों मैनेजरों और तथाकथित ठेकेदारों की मिलीभगत होती है। ऐसी ही एक घटना 20 वर्षीय मज़दूर विकास व उसके साथी मज़दूरों के साथ हुई। विकास के अनुसार वह डी – 125/63, नोएडा में हेल्पर के रूप में काम करता था।
कम्पनी ने कोई बोर्ड नहीं लगाया था। वहाँ ज़्यादातर काम ठेके पर होता था और छोटे-मोटे कई ठेकेदार थे। उसके ठेकेदार के तहत कारीगर और हेल्पर कुल मिलाकर 40 लोग काम करते थे जिसमें औरतें भी शामिल थीं। मेन ठेकेदार का नाम मानदास था जो कभी कभार चार पहिया गाड़ी से आता था। साइट का पूरा काम उसका एक जूनियर पार्टनर मनोज तिवारी देखता था। एक दिन तिवारी आकर बोला कि यहाँ का ठेका टूट गया है और कल से यहाँ कोई काम नहीं होगा और तुम लोग अब कुछ दिन आराम करो। जब नये साइट पर काम मिल जायेगा तो वहाँ काम होगा। बीच-बीच में फोन करते रहना और जब चेक मिल जायेगा तब इस कम्पनी के काम का पैसा ले जाना। चार-पाँच दिन बाद तिवारी आया और उसने बोला कि एक नये साइट पर काम मिल गया है जो डी – 31/63 में है और तुम लोग वहाँ चलो काम करो। पुराने काम का पैसा माँगने पर वह बोला कि अभी वो पैसा नहीं मिला है। सारे मज़दूर मज़बूरन वहाँ काम करने चले गये। कुछ दिनों बाद नये कम्पनी के इंचार्ज अनूप और ठेकेदार तिवारी ने कहा कि यहाँ काम ख़त्म हो गया है और तुम लोग 10 मई को आकर हिसाब कर लेना। जब सभी मज़दूर 10 मई को वहाँ पहुँचे तो वह जगह खाली हो चुकी थी। वह बिल्डिंग किराये पर थी। तिवारी कई दिनों तक मज़दूरों को दौड़ाता रहा और एक दिन वह भी गायब हो गया और मोबाइल भी स्विच ऑफ कर दिया। जब मज़दूर मेन ठेकेदार मानदास के पास गये तो वह बोला कि मैं क्या जानूँ, जिसने तुमसे काम करवाया है उसके पास जाओ। उन लोगों ने मान लिया कि दूसरी जगह का पैसा तो डूबा ही समझो, लेकिन पहली वाली जगह डी – 125/63 में तो कम्पनी अभी भी मौजूद है। उन्होंने वहाँ के मालिक से मिलने का फैसला किया। मालिक ने साफ़ कह दिया कि मैं क्या जानूँ तुम लोगों को, मैं तो ठेकेदार को जानता हूँ, उसे बुलाकर लाओ तभी हिसाब होगा।
सभी मज़दूर पार्क में इकट्ठा हुए। वे दुखी और आक्रोश में थे। वे आपस में राय करने लगे कि अब क्या किया जाये। एक मज़दूर ने कहा कि अब कुछ भी करने से कोई फ़ायदा नहीं। 20-25 दिन की तनख़्वाह के चक्कर में 10 दिन तो पहले ही दौड़ चुके हैं, अब ज़्यादा दौड़ने से भी लग नहीं रहा कि पैसा मिल जायेगा। कोर्ट कचहरी में जायेंगे तो वहाँ समय और पैसा दोनों बर्बाद होगा, यानी नौ की लकड़ी, नब्बे ख़र्च हो जायेंगे। सभी लोगों को उस मज़दूर की बात जँचने लगी। मगर अपना ख़ून जलाकर कमाया पैसा डूबते देखना और वह भी उस समय जब उन्हें पैसे की सख़्त ज़रूरत थी (मकान मालिक किराया और दुकानदार राशन का पैसा माँग रहे थे।) उनके लिए आसान नहीं था। कोई कह रहा था कि मैं तिवारी का सिर फोड़ दूँगा तो कोई कह रहा था कि मैं मानदास को गाड़ी सहित जला दूँगा। कोई कह रहा था कि मैं तिवारी को उसके गाँव से पकड़ कर लाउँगा और यह सब कहते हुए वे मज़दूर धीरे-धीरे अपने-अपने घर चले गये और अलग-अलग कम्पनियों में बिखर गये।
मज़दूर बिगुल, जून 2013
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन