Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

आवाज़ निकालोगे तो काम से छुट्टी

फैक्ट्री मज़दूरों के लिए जेल की तरह है। फैक्ट्री पहुँचते ही हम लोगों के अन्दर अजीब किस्म का डर-सहम घुसने लगता है और हमारे सिर मुजरिमों की तरह झुक जाते हैं। काम करते हुए बार-बार हम समय देखते हैं कि कब बारह घण्टे खत्म हों, कब मुक्ति मिले। मगर ये मुक्ति ज्यादा देर नहीं रहती। अगली सुबह फिर जेल। अपराधियों को बड़े-बड़े जुर्म के लिए भी दस-बीस साल की जेल होती है, लेकिन हम लोगों की पूरी ज़िन्दगी इन जेलों में निकल जाती है जिन्हें लोग फैक्ट्री कहते हैं, और वह भी बिना किसी गुनाह के!

“ठेकेदार अपना आदमी है!”

मज़दूर ये नहीं समझते कि अगर वो अपना आदमी है तो क्या उसको हमारे अधिकार छीनने चाहिए यदि वो अपना आदमी है तो उसे तो हमारा ज़्यादा ख़्याल रखना चाहिए था, मगर वो तो बाकी सभी ठेकेदारों की तरह ही हमारी लूट कर रहा है। अगर उसको हमारा रिश्तेदार या गाँव का आदमी होकर भी हमारी लूट करने में थोड़ी-सी शर्म नहीं है, तो हम लोग अपना अधिकार माँगने में इतना क्यों शर्माते हैं मेरे विचार से तो इस मुनाफे की दौड़ में कोई अपना-पराया नहीं होता। अगर ठेकेदार ज़्यादा कमाई करने के लिए अपने रिश्तेदारों या गाँव-देहात के लोगों का ख़ून चूसने में संकोच नहीं करता तो हमें भी उससे अपने अधिकार लेने में हिचक नहीं दिखानी चाहिए।

ये कहानी नहीं बल्कि सच्चाई है

अपनी ज़ि‍न्दगी के अनुभव से मुझे विश्वास हो गया है कि सभी पूँजीपति एक जैसे ही होते हैं और जब तक यह व्यवस्था क़ायम रहेगी तब तक हम मज़दूरों को दर-दर भटकना पड़ेगा, गालियाँ, डण्डे खाने पड़ेंगे और जान भी गँवानी पड़ेगी। इसलिए जितनी जल्दी हो इस व्यवस्था को बदल दो। पूँजीवाद मुर्दाबाद!

आपस की बात

पिछले कई वर्षों से मैं मज़दूर बिगुल पढ़ रहा हूँ। और भी बहुत सारे मज़दूर यह अख़बार पढ़ते हैं। मज़दूरों में यह चेतना आयी है कि इन मालिकों को अगर झुकाना है को एक अपना संगठन बनाना पड़ेगा। हम मज़दूरों ने इस बात को समझकर सन 2010 में टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का गठन किया। न्यू शक्तिनगर, गौशाला, माधोपुरी, कशमीर नगर, टिब्बा रोड, गीता नगर, महावीर कालोनी, हीरा नगर, मोतीनगर, कृपाल नगर, सैनिक कालोनी, भगतसिंह नगर, और मेहरबान के हम मज़दूरों ने आवाज़ उठायी और एक न्यायपूर्ण संघर्ष लड़ा और जीता भी। पिछले करीब 20 वर्षों से हम मज़दूरों को मालिकों की मर्ज़ी से काम करना पड़ता था और मालिक जब चाहे काम पर रखते थे और जब मर्ज़ी आये तो काम से निकाल देते थे। गाली-गलौज और मार-पीट आम बात थी। अब एकता बनाकर हम मज़दूर मालिकों के सामने अपने हक़ की बात सर ऊँचा उठाकर करते हैं। अगर हम पूरे देश और पूरी दुनिया के मज़दूर मिलकर एक हो जाएँ तो देश-दुनिया के सारे मालिकों को झुका सकते हैं।

हमारी बस्तियाँ इंसानों के रहने लायक नहीं

सरकार और प्रशासन अमीरों के लिए हर सुख-सुविधा, ऐशो-आराम की व्यवस्था कर सकता है तो हम ग़रीबों की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी क्यों नहीं करता? हमारी मेहनत की कमाई से ही सरकार का ख़ज़ाना भरता है। हम लोग बाज़ार से ख़रीदी हर चीज़ पर सरकार को टैक्स देते हैं। अमीर लोग भी सरकार को जो टैक्स देते हैं वो पैसा भी हमारी मेहनत की लूट से ही जाता है।

हज़ारों कारख़ाने, लाखों मज़दूर, मगर शोषण जारी बदस्तूर

कुकर की घिसाई (बफिंग) के कारण बहुत ज़्यादा गर्दा उड़ता है। हमने सुना है कि प्रदूषण वाली फ़ैक्‍ट्री में हर मज़दूर को रोज़ाना 100 ग्राम गुड़ व 250 मिली दूध देने का क़ानून है। मगर यहाँ तो ड्यूटी के समय में किसी को एक कप चाय तक नहीं मिलती। रोज़ कम-से-कम दो घण्टा ओवरटाइम लगाना ज़रूरी है जिसका पैसा सिंगल रेट से ही मिलता है। मैंने पिछले महीने काम छोड़ दिया क्योंकि प्रदूषण बहुत ज़्यादा होता है। मुझे लगातार खाँसी आने लगी थी। 50 से ऊपर की उम्र में मेरे लिए इस तरह का काम करना कठिन हो रहा था। मैंने ठेकेदार से हिसाब करने को कहा तो कहता है कि जो हमें खड़े-खड़े जवाब देता है, उसके लिए यही नियम है कि हिसाब अगले महीने लेना। यानी अपनी महीने भर की मज़दूरी लेने के लिए भी मुझे चक्कर लगाने पड़ेंगे। लेकिन इस इलाके में सभी मज़दूरों के साथ ऐसा ही होता है। कोई एकजुट होकर बोलता नहीं है इसलिए मालिकों और ठेकेदारों की मनमानी पर कोई रोक-टोक नहीं है।

पूर्व श्रम मन्‍त्री की फ़ैक्‍ट्री में श्रम क़ानून ठेंगे पर!

दाल मिल होने के कारण कारख़ाने में चारों तरफ फैली धूल से दमघोंटू माहौल हो जाता है और भयंकर गर्मी होती है। लेकिन न तो पर्याप्त मात्रा में एग्ज़ास्ट पंखे चलाये जाते हैं और न ही मज़दूरों को मास्क आदि दिये जाते हैं। मज़दूर ख़ुद ही मुँह पर कपड़ा लपेटकर काम करते हैं। मज़दूरों को ई.एस.आई., पीएफ़ जॉब कार्ड आदि कुछ भी नहीं मिलता। कुछ बोलो तो सुपरवाइज़र सीधे धमकाते हैं कि जानते नहीं हो, लेबर मिनिस्टर की फ़ैक्‍ट्री है! वैसे तो सभी कारख़ाना मालिक श्रम विभाग को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं लेकिन जब मामला पूर्व श्रम मन्‍त्री की फ़ैक्‍ट्री का हो तो उधर भला कौन देखने की जुर्रत करेगा?

करावलनगर की वॉकर फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरों के हालात

मालिक द्वारा गाली-गलौज आम बात है। कभी-कभी तो कुछ मज़दूरों की पिटाई भी मालिकों के हाथों हुई है। आपस में कोई एकता न होने से मज़दूर कुछ कर नहीं पाते हैं। मज़दूरों के बीच से ही कुछ मज़दूरों को नाम भर का ठेकेदार बनाकर और फिर इन ‘मज़दूर ठेकेदारों’ की आपस में होड़ करवाकर मालिक अपनेआप को हर तरह की ज़िम्मेदारी से बरी कर लेता है और फिर बेगारी भी करवाता है। कुशल मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि कुशल मज़दूरों को अर्द्धकुशल मज़दूर या अकुशल मज़दूर को साथ में लेकर ही अपना अधिकार मिल सकता है। मालिक जानबूझकर सभी काम ठेके पर करवाना चाहता है ताकि मज़दूरों को ज़्यादा अच्छी तरह निचोड़ सके और उसे कोई दिक्कत भी न हो।

मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर

अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं, जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया। लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते। चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।

कड़वे बादाम : दिल्ली के बादाम उद्योग में मज़दूरों का शोषण

बादाम से छिलका उतारने का काम बेहद कठिन और जोखिमभरा होता है। बादाम निकालने के लिए जो खोल तोड़ा जाता है वह काफ़ी सख्त होता है और उसे नरम बनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह पूरा काम नंगे हाथों से किया जाता है और लम्बे समय तक काम करने से लगभग सभी मज़दूरों की उँगलियों के पोरों पर घाव हो जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं जिनमें सर्दियों में बहुत अधिक दर्द होता है। ये घाव खोल के खुरदुरेपन और/या रसायनों के प्रभाव, दोनों ही वजहों से हो सकते हैं। हड़ताल के दौरान भी हम जितने मज़दूरों से मिले, उनमें से अधिकांश के हाथें और उंगलियों में घाव के निशान थे। उनके हाथों में ये घाव बादाम तोड़ते समय पडे थे। ये मज़दूर लगभग एक हफ्ते से काम पर नहीं गये थे फिर भी उनके ये घाव बहुत पीड़ादायी बने हुए थे।