Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

गुड़गाँव के “मल्टीब्राण्ड” शॉपिंग सेन्टरों की चकाचौंध में गुम होते दुकान मज़दूर

आम तौर पर लोगों का ध्यान इन कामों में लगे मज़दूरों के काम और जिन्दगी के हालात पर नहीं जाता। वास्तव में इन मज़दूरों की स्थिति भी कम्पनियों में 12 से 16 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही है। इन सभी सेण्टरों में काम करने वाले यूपी-उत्तराखण्ड-बिहार-बंगाल-उड़ीसा-राजस्थान जैसे कई राज्यों से आने वाले लाखों प्रवासी मज़दूर दो तरह की तानाशाही के बीच काम करते हैं। एक ओर काम को लेकर मैनेजर या मालिक का दबाव लगातार इनके ऊपर बना रहता है और दूसरा जिस मध्य-वर्ग की सेवा के लिये उन्हें काम पर रखा जाता है उसका अमानवीय व्यवहार भी इन्हें ही झेलना पड़ता हैं। दुकानों और रेस्तराँ में ये मज़दूर लगातार काम के दबाव में रहते हैं, लेकिन ग्राहकों के सामने बनावटी खुशी और सेवक के रूप में जाने की इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है। ये मज़दूर सिर्फ शारीरिक श्रम ही नहीं बेचते बल्कि मानसिक रूप से अपने व्यक्तित्व और अपनी मानवीय अनुभूतियों को भी पूँजी की भेंट चढ़ाने को मजबूर होते हैं। “आजाद” देश के इन सभी मज़दूरों को जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि किसी मालिक के मुनाफे के लिये मज़दूरी करें।

कुत्ते और भेड़िये, और हमारी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र

मैं इन सुपरवाइज़रों की कुत्ता-वृत्ति और भेड़िया-वृत्ति को पता नहीं
शब्दों में बाँध भी पा रही हूँ
कि नहीं
इनकी भौं-भौं और इनकी गुर्र-गुर्र
इनका विमानवीकरण
इनके दाँतों और नाख़ूनों में लगा
हमारी दम तोड़ती इच्छाओं और स्वाभिमान का ख़ून और ख़ाल

ऑटो सेक्टर की ‘रिको फैक्ट्री’ के मज़दूर से बातचीत

मज़दूर- आप खुशहाली की बात करते हैं। मुझे दस साल हो गये हैं, रिको कम्पनी मे काम करते हुए और अभी तक हम (कैजुअल) अस्थाई मज़दूर की हैसियत से काम कर रहे हैं। हमारी कम्पनी ने नियम बना लिया है कि किसी को (परमानेन्ट) स्थाई मज़दूर नहीं करेंगे। 2/3 से ज्यादा मज़दूर तो कैजुअल, अप्रैन्टिस, ट्रेनी, व ठेकेदार की तरफ से लगे हुए हैं। ऊपर से मालिक हर साल एक नई जगह (जैसे- सिड़कुल, धारूहेड़ा, दादरी) मे फैक्ट्री खोल लेता है। और एक जगह प्रोडक्सन (उत्पादन)कम करवाकर यह दिखाने की कोशिश करता है कि कम्पनी के पास आर्डर कम है। जिससे कि हम मज़दूर डर जाते हैं कि काम कम है तो अब छँटनी होगी और हर आदमी अपनी नौकरी बचाने के चक्कर मे ऐसा कोई काम नहीं करता कि मैनेजमेन्ट को कहने का मौका मिले। और अनिश्चित कालीन एक सरदर्द जिन्दगी मे बना रहता है कि कहीं नौकरी न चली जाये। दस हजार की तनख्वाह मे आदमी की जिन्दगी मे क्या खुशहाली होगी?

लुधियाना में टेक्सटाइल मज़दूर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर

मज़दूरों ने श्रम विभाग और प्रशासन तक अपनी आवाज़ पहुँचाई है। लेकिन सरकारी मशीनरी मज़दूरों के हक में कोई भी कदम उठाने को तैयार नहीं है। श्रम विभाग कार्यालय में पर्याप्त संख्या में अधिकारी और कर्मचारी ही नहीं हैं और जो हैं भी वो पूँजीपतियों के पक्के सेवक हैं। अन्य क्षेत्रों के कारखानों की तरह टेक्सटाइल कारखानों में भी श्रम कानून लागू नहीं होते हैं। मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं और कुछ महीने मज़दूरों को बेरोज़गारी झेलनी पड़ती है। बाकी समय उन्हें 12-14 घण्टे कमरतोड़ काम करना पड़ता है। देश-विदेश में बिकने वाले शाल व होज़री बनाने वाले इन मज़दूरों को बेहद गरीबी की ज़िन्दगी जीनी पड़ रही है। ‘बिगुल’ द्वारा इन मज़दूरों के बीच किये गये निरन्तर प्रचार-प्रसार और संगठन बनाने की कोशिशों की बदौलत अगस्त 2010 में टेक्सटाइल मज़दूरों के एक हिस्से ने अपना संगठन बनाकर एक नये संघर्ष की शुरुआत की थी। पिछले वर्ष तक इस संघर्ष की बदौलत 38 प्रतिशत पीसरेट/वेतन वृद्धि और ई.एस.आई. की सुविधा हासिल की गयी है। लेकिन लगातार बढ़ती जा रही महँगाई के कारण स्थिति फिर वहीं वापस आ जाती है। मालिकों के मुनाफे तो बढ़ जाते हैं लेकिन वे अपनेआप मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाने, बोनस देने तथा अन्य अधिकार देने को तैयार नहीं होते। एकजुट होकर लड़ाई लड़ने के सिवाय कोई अन्य राह मज़दूरों के पास बचती नहीं है।

रहे-सहे श्रम अधिकारों के सफ़ाये की तेज़ होती कोशिशें

पूँजीपति अपने रास्ते से सारी अड़चनें हटा देना चाहते हैं। उन्हें कागजों पर रह गए श्रम कानून भी चुभ रहे हैं। आज देश के कोने-कोने से मज़दूरों द्वारा श्रम कानून लागू करने की आवाज उठ रही है हालांकि संगठित ताकत की कमी के कारण मज़दूर मालिकों और सरकारी ढाँचें पर पर्याप्त दबाव नहीं बना पाते। पूँजीपतियों को श्रम विभागों और श्रम न्यायालयों में मज़दूरों द्वारा की जाने वाली शिकायतों और केसों के कारण कुछ परेशानी झेलनी पड़ती है। इन कारणों से पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के कानूनी श्रम अधिकारों का ही सफाया कर देना चाहता है।

मेट्रो मज़दूर उमाशंकर – हादसे का शिकार या मुनाफ़े की हवस का

ठेका कम्पनियों के प्रति डी.एम.आर.सी. की वफ़ादारी जगजाहिर है तभी इन कम्पनियों द्वारा खुलेआम श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के बावजूद इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है। वैसे भी ठेका कम्पनियों का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है, सामाजिक ज़िम्मेदारी से इनका कोई सरोकार नहीं है। यही वजह है कि मेट्रो की कार्य संस्कृति भी सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर है। तभी तो मज़दूर के शरीर पर लांचर गिरे, पुल टूटकर मज़दूर को दफनाये या ज़िन्दा मजदूर मिट्टी में दफन हो जाये, लेकिन मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

ख़ामोशियों को तोड़िये, आवाज़ दीजिये

‘इस हैबते हालात पे कुछ ग़ौर कीजिये, अब भी तो ख़ौफ़ छोड़िये आवाज़ दीजिये।
ग़म की नहीं ग़ुस्से की सदा बनके मेरे दोस्त, ख़ामोशियों को तोड़िये, आवाज़ दीजिये।’

एक मज़दूर की मौत!

उसकी माँ ने मौत के मुआवजे़ के लिए बहुत दौड़ लगायी मगर कम्पनी मैनजमेंट को ज़रा भी तरस नहीं आया। उसकी माँ ने कम्पनी मैनेजेण्ट से अपील की और पुलिस से गुहार लगायी। कम्पनी में पुलिस आयी भी मगर कोई कुछ भी नहीं बोला और कोई सुराग भी हाथ नहीं लगा। क्योंकि उसकी मौत के अगले दिन ही उसकी हाज़िरी के सात दिन की उपस्थिति ग़ायब कर दी गयी। और बहुत ही सख़्ती के साथ मैनेजर ने अपने आफिस में लाइन मास्टरों, सुपरवाइज़रों, ठेकेदारों से लेकर सिक्योरिटी अफसरों तक को यह हिदायत दे दी कि अगर उसकी मौत के बारे में किसी ने उसके पक्ष एक बात भी कही तो उसके लिए इस कम्पनी से बुरा कोई नहीं होगा। और इस तरह ऊपर से लेकर नीचे एक-एक हेल्पर व सभी कर्मचारियों तक मैनेजर की यह चेतावनी पहुँच गयी। और पूरी कम्पनी से कोई कुछ नहीं बोला। उसकी माँ सात दिन तक गेट के बाहर आती रही, लगातार रोती रही। मगर हम मज़दूरों में कोई यूनियन न होने की वजह से हम सब मजबूर थे। और आज मैं भी यह सोच रहा हूँ कि मेरे साथ भी अगर कोई हादसा होगा तो मेरे घरवालों के साथ भी यही हाल होगा।

नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं गुड़गाँव में काम करने वाले सफाई कर्मचारी, गार्ड और अन्य मज़दूर

श्रम कानूनों के अनुसार सबसे पहले तो ठेका प्रथा ही गैर-कानूनी है, दूसरी बात यह है कि अगर आपको किसी कम्पनी में काम करते हुए एक साल या उससे अधिक समय हो चुका है तो आप उस कम्पनी के नियमित कर्मचारी हो जाते है। जिसके अनुसार जो सुविधाएँ बाकी नियमित कर्मचारियों को प्राप्त है जैसे कि ईएसआई कार्ड, मेडिकल बीमा, वार्षिक वेतन वृद्धि आदि वह सब सुविधाएँ उसे भी मिलनी चाहिए परन्तु इनमें से कोई भी सुविधा उन लोगो को प्राप्त नहीं हैं जबकि कानूनन हम इसके हक़दार है। ऐसी स्थिति के पीछे जो सबसे प्रमुख कारण है वह यह है कि हमे अपने अधिकारों का ज्ञान ही नही है और जब तक हम अपने अधिकारों को जानेंगे नही तब तक हम यूँ ही धोखे खाते रहेंगे।

नमक की दलदलों में

नमक की दलदलो में 50 डिग्री तापमान में झुलसाती हुयी धूप में मज़दूर घंटो काम करते हैं। काम के आदिम रूप की कल्पना इस से ही की जा सकती है कि एक परिवार को दुसरे परिवार को सन्देश देने के लिए शीशे (रोशनी से) का इस्तेमाल करना पड़ता है। नमक की दलदल नुमा खेत मज़दूरों के तलवों, एडियो, और हथेलियों को छिल देते हैं जिससे नमक मांस में और खून में मिल जाता है। जो नमक मज़दूर अपनी मेहनत से पैदा करते हैं वही उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। अगरिया मज़दूरों में कहावत है कि उनकी मौत तीन तरह यानी गार्गरिन, टीबी या अंधेपन (नमक के कारण) से होती है। कईं मज़दूर कैंसर या ब्लड प्रेशर की बीमारी से मर जाते हैं। कईं अगरिया मज़दूर जवानी में मर जाते हैं- कच्छ के खरघोडा गाँव की 12000 की आबादी में 500 विधवाएं हैं! नमक के खेतों से मज़दूरों को पीने का पानी लेने के लिए 15-20 किलोमीटर साईकिल चला कर जाना पड़ता है। मौत के बाद भी यह नमक मज़दूरों का पीछा नहीं छोडता है क्योंकि हाथ और पैरों में घूस जाने के कारण मज़दूरों के अंतिम संस्कार के दौरान उनके हाथ और पैर नहीं जलते हैं। इन्हें नमक की ज़मीन में ही दफ़न किया जाता है।