राम मन्दिर से अपेक्षित साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करने में असफल मोदी सरकार अब काशी-मथुरा के नाम पर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की फ़िराक़ में
सम्पादकीय अग्रलेख
22 जनवरी को राम मन्दिर के उद्घाटन के ज़रिये देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने और तनाव फैलाने का काम भाजपा और मोदी सरकार अपेक्षित तरीके से नहीं कर पाये। जिस प्रकार का साम्प्रदायिक माहौल और लहर बनाने की उम्मीद संघ परिवार के नेतृत्व को थी, वैसी नहीं बनी। सच है कि जनता के विचारणीय हिस्से के लिए यह एक और छुट्टी का दिन था। उत्तर प्रदेश में तो योगी सरकार ने बाक़ायदा सरकारी छुट्टी की घोषणा कर दी थी। सच है कि संघ परिवार के तमाम संगठनों द्वारा गली-मुहल्लों में जा-जाकर राम मन्दिर के झण्डे घरों, दुकानों आदि पर लगाये गये थे और आंशिक रूप से अपनी आस्था के कारण और विशेष तौर पर मोदी सरकार और योगी सरकार व अन्य भाजपा राज्य सरकारों द्वारा पैदा किये गये भय के माहौल के कारण उस पर किसी ने आपत्ति भी नहीं की (कर भी नहीं सकता था!)। कई इलाकों में भड़काऊ कार्रवाई के तौर पर मुसलमानों के घरों या उनकी दुकानों पर भी संघी लम्पटों ने राम मन्दिर के झण्डे लगा दिये। इन सबसे जो दृश्य पैदा हुआ उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि लोगों में इसका काफ़ी असर है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस दृश्य का ज़्यादा हिस्सा संघ परिवार व उसके अनुषंगी संगठनों द्वारा प्रायोजित था, जनता ने स्वत:सफूर्त ढंग से ऐसा कोई दृश्य नहीं पैदा किया था। इस बात को संघ परिवार भी समझ रहा था।
राम मन्दिर के उद्घाटन के जश्न के नाम पर देश के अलग-अलग इलाकों में बजरंग दल, विहिप, अभाविप जैसे संघी गुण्डा गिरोहों के टुटपुँजिया तत्वों, प्रापर्टी डीलरों, ठेकेदारों, जॉबरों, व्यापारियों, दलालों ने अपनी डेढ़-दो सौ सीसी की बाइकों, कारों, जीपों आदि पर जो लम्पटई और गुण्डागर्दी की उसके बारे में ज़्यादा बताने की आवश्यकता नहीं है। फ़ासीवादियों की “मर्यादा”, धार्मिकता, और “चाल-चेहरा-चरित्र” ऐसी हरक़तों से अच्छी तरह से उजागर हुआ। ऐसे माहौल के बारे में आप विश्वस्नीय जानकारी चाहते हैं, तो समाज के दमित तबकों से बात करें, जैसे कि आम मेहनतकश लोग, दलित, स्त्रियाँ, आदि। धर्मध्वजाधारियों द्वारा ऐसी धार्मिक लम्पटई के प्रदर्शन के दौरान वे कैसा महसूस करते हैं? आपको इस धार्मिकता की, नैतिकता की दुहाई की और इनके राष्ट्रवाद की असलियत पता चल जायेगी।
देश में कोई भारी लहर है और देश में माहौल “राममय” हो गया है, ऐसा विचार जनता में बिठाने में गोदी मीडिया के सारे चैनल नंगई, बेशर्मी और दंगाई तरीके से लगे हुए थे। एक चैनल ने तो अपनी गाड़ी पर लिख रखा था : ‘मन्दिर वहीं बनाया है।’ यानी, वह भाजपा का प्रवक्ता बना बैठा था। देश का न्यायालय सबकुछ चुपचाप देख रहा था। बाकी मीडिया घरानों का भी उन्नीस-बीस से ऐसा ही हाल था। लेकिन भूखे आदमी को कितने भी धार्मिक तरीके से बताया जाय कि भूख मिथ्या है, माया है, वह मान नहीं पाता क्योंकि यह कम्बख़्त भूख बड़ी ठोस और ज़िद्दी चीज़ होती है। जैसा कि प्रसिद्ध लोकोक्ति में कहा गया है : भूखे भजन न होय गोपाला, ले तेरी कण्ठी ले तेरी माला।
बहरहाल, हज़ारों करोड़ रुपये बहाकर संघ परिवार, भाजपा और मोदी सरकार राम मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा पर जैसा माहौल बनाना चाहते थे, वह बन नहीं सका। इसीलिए तो फ़ौरन संघ परिवार का नेतृत्व ज्ञानवापी के मसले को गरमाने में लग गया। साथ ही, हल्द्वानी से लेकर दिल्ली, उन्नाव, मुम्बई और धारवाड़ तक में दंगे भड़काने की कोशिशें जारी हो गयीं। इसी बीच, उत्तराखण्ड में धामी सरकार ने ‘यूनीफ़ॉर्म सिविल कोड’ के नाम पर एक साम्प्रदायिक कोड लाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जो सीधे-सीधे धार्मिक अल्पसंख्यकों और विशेष तौर पर मुसलमानों के प्रति भेदभाव का रवैया रखता है। अमित शाह ने इसी बीच एलान कर दिया कि अप्रैल में लोकसभा चुनावों के पहले ही नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.) लागू कर दिया जायेगा। इसके अलावा, विपक्षी पूँजीवादी पार्टी के नेताओं को डरा-धमकाकर जेल या भाजपा में डालने का काम भी पहले से कहीं ज़्यादा ज़ोर-शोर से मोदी सरकार ने शुरू कर दिया। माने कि राम मन्दिर के उद्घाटन को लेकर मचाये गये शोर-गुल के बावजूद भाजपा सन्तुष्ट नहीं हो पा रही है और एक भय उसको सता रहा है।
भाजपा और संघ परिवार इस बात से भी परेशान हैं कि ईवीएम धाँधली पर पहली बार ऐसा शोर मच रहा है। सुप्रीम कोर्ट के वकीलों से लेकर नामी-गिरामी पत्रकारों, इन्जीनियरों, बुद्धिजीवियों ने ईवीएम धाँधली की सच्चाई को जनता के सामने लाना शुरू किया है, चुनाव आयोग की असलियत जनता के सामने इस सवाल पर बिल्कुल नंगई के साथ सामने आ रही है। निश्चित तौर पर, इस पर यदि कोई जुझारू जनान्दोलन नहीं खड़ा होता, या समूचा पूँजीवादी विपक्ष एकजुट होकर ईवीएम हटाने की माँग को लेकर चुनावों के बहिष्कार का फैसला नहीं लेता (जिसकी हिम्मत विपक्षी गठबन्धन जुटा नहीं पा रहा है) तो चुनाव फिर से ईवीएम से ही होंगे और ‘आयेगा तो मोदी ही’! लेकिन मोदी सरकार और संघ परिवार जानते हैं कि एक बार जनता के बहुलांश का भरोसा इससे उठ गया तो उनके फ़ासीवादी शासन के वर्चस्व में कमी आयेगी और वह ज़्यादा क्षणभंगुर और कमज़ोर बनेगा। इसके अलावा, शासक वर्ग के बीच के धड़ों के बीच जारी विवाद, यानी खेतिहर पूँजीपति वर्ग और औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के बीच मौजूद विवाद के कारण भी पूँजीवादी चुनावी राजनीति के दायरे के भीतर मोदी सरकार के सामने एक दुविधा है।
इन चुनौतियों के जवाब में भाजपा वही कर रही है जो वह कर सकती है। वह देश में साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद की लहर को हवा देने की कोशिशों में है। नरेन्द्र मोदी को इस साम्प्रदायिक लहर और अन्धराष्ट्रवाद के नायक के तौर पर पेश करने के लिए कारपोरेट घरानों की मदद से भाजपा और मोदी सरकार हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च कर रही है। इसके साथ, ख़ैराती कल्याणवाद की कुछ नीतियों को भी लागू किया जा रहा है, हालाँकि उनका प्रचार उनके लागू किये जाने के असर से कहीं ज़्यादा किया जा रहा है। इसके साथ ही, ई.डी., सी.बी.आई. आदि एजेन्सियों का इस्तेमाल कर विपक्षी पार्टियों को तोड़ना, उनके प्रमुख नेताओं को ख़रीद लेना, उन्हें जेल या भाजपा में डालने की धमकी से डराना-धमकाना यह पहले हमेशा से ज़्यादा ज़ोर-शोर से मोदी सरकार आज कर रही है।
इन सारे कुकर्मों में राज्यसत्ता के समूचे ढाँचे के भीतर, यानी पुलिस, सेना, नौकरशाही, न्यायपालिका, चुनाव आयोग आदि के भीतर, संघी हाफ़पैण्टियों की दशकों के दौरान की गयी घुसपैठ भाजपा के सबसे ज़्यादा काम आ रही है। ज़रा सोचिये। एक तथाकथित सेक्युलर देश का प्रधानमन्त्री एक मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा में मुख्य यजमान के तौर पर विराजमान होता है, लेकिन उस पर देश का सुप्रीम कोर्ट चुप रहता है; ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर के भीतर एक स्थानीय कोर्ट पूजा की आज्ञा दे देता है और उस पर देश की न्यायपालिका वादियों को एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े घुमाने का काम करती रहती है। देश का पुरातात्विक विभाग अपनी पुरातात्विक जाँच के नतीजे संघ परिवार के नेतृत्व के इशारों पर तय करता है। चण्डीगढ़ के मेयर के चुनावों में कैमरे पर धाँधली होती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट फटकार लगाने के अलावा कोई बड़ी कार्यकारी कार्रवाई अभी तक नहीं कर पाया है। उच्च न्यायलय में प्रक्रिया चल रही है। अगर मसला जनता का हो तो न्यायालय में ‘प्रक्रिया चल रही है’ वाक्यांश पढ़ते ही, हमारे सिर के कुछ बाल तो यूँ ही सफ़ेद हो जाते हैं! ख़ैर, यह सब सबके सामने खुलेआम होता है और साथ में हमें बताया जाता है कि देश में लोकतन्त्र है, सरकार सेक्युलर है, इत्यादि। इसी दौरान, क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के भीतर कुछ न करने के कार्यस्थगन प्रस्ताव को हाथ में लिये बैठे कुछ कौमवादी मूर्ख कहते हैं, कि अभी फ़ासीवाद नहीं आया है; अभी वो आयेगा और जब वह आयेगा, तब वे देख लेंगे!
इसके अलावा मीडिया की भूमिका की हम विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि वह लिखने वाले और पढ़ने वाले, दोनों के ही लिए एक उबकाई लाने वाली कवायद हो सकती है। समूचा कारपोरेट मीडिया खुलेआम दंगाई की शर्मनाक भूमिका में है। न्यायपालिका का चरित्र यहाँ भी नंगा हो जाता है। खुलेआम दंगा फैलाने वाली झूठी कवरेज करने वाले मीडिया पर भी वह कुछ नहीं बोलता। लेकिन बिल्कुल झूठे आरोपों पर जनपक्षधर पत्रकारों को जेलों में ठूँस दिये जाने पर वह “नियम और कानून” से प्रक्रिया चलाने के नाम पर उन्हें जेलों में सड़ाता रहता है। जनता के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले जननेताओं व व्यक्तियों को जेल में सड़ा दिया जाता है, जेल में ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, उन्हें यातनाएँ दी जातीं हैं, उस पर न्यायपालिका “कानून के पालन और प्रक्रिया” का हवाला देकर कोई कदम नहीं उठाती। एक और वाक्य है, जो जनता को हमेशा उसके मसलों के न्यायाधीन होने पर बताया जाता है: ‘कानून अपना काम कर रहा है’। फिर कानून काम करता ही जाता है, करता ही जाता है, पर काम पूरा होने से पहले अक्सर वादी मर जाता है! हाँ, अगर मसला किसी पूँजीपति के हित का हो, तो सुप्रीम कोर्ट आधी रात में सुनवाई कर उसके पक्ष में फैसला दे देता है। “राष्ट्रहित” का सवाल जो ठहरा! विधायिका, कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक का भीतर से हो रहा फ़ासीवादी ‘टेकओवर’ जिसको नहीं दिखायी दे रहा, उसकी राजनीतिक रतौंधी का कोई इलाज नहीं है।
लेकिन इन सबके बावजूद फ़ासीवादी हुक्मरान भयाक्रान्त ही हैं। क्यों? क्योंकि देश की आम मेहनतकश जनता में गुस्सा है; बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार और दमन के विरुद्ध उनके अन्दर एक सुलगता हुआ असन्तोष है। चूँकि यह असन्तोष एक क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में सुसंगत राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं हासिल कर पा रहा है, इसलिए कई बार वह आकारहीन और अन्धा होता है और ऐसी सूरत में कई बार उसे साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघ परिवार एक नकली दुश्मन देकर साम्प्रदायिक उन्माद में तब्दील करने में कामयाब हो जाता है। लेकिन यह भी सच है कि हर बार यह मुमकिन नहीं होता, संघ परिवार की इस साज़िश की कामयाबी बहुत-सी अन्य शर्तों पर भी निर्भर करती है। ऐसे में पूँजीवादी विपक्ष के नाकारे और दन्त-नखविहीन होने की सूरत में भी जनता का असन्तोष किसी सरकार के लिए ख़तरनाक हो सकता है। और अभी देश में ऐसी स्थितियाँ हैं, कि अपनी सारी तरकीबों और साज़िशों के बावजूद मोदी सरकार के लिए भविष्य परेशानियों और दिक्कतों से भरा हो सकता है। सिर्फ चुनाव जीत जाना ही इस आशंका को दूर नहीं कर सकता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट के कारण मोदी सरकार के लिए जनविरोधी नीतियों को लागू करना, अन्धाधुन्ध निजीकरण, पूँजीवादी लूट, मज़दूरों-मेहनतकशों के शोषण व दमन को खुली छूट देना ज़रूरी है। मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट से पूँजीपति वर्ग को फौरी राहत देने के लिए औसत मज़दूरी को घटाना और प्राकृतिक संसाधनों व सरकारी (जनता के) संसाधनों की निजी लूट को छूट देना मोदी सरकार की मजबूरी है। वास्तव में, यह आने वाली किसी भी पूँजीवादी सरकार की मजबूरी होगी, लेकिन हर पूँजीवादी सरकार यह काम उतने कारगर तरीके से नहीं कर सकती है, जितने कारगर तरीके से यह काम मोदी सरकार कर सकती है। वजह है मोदी सरकार का फ़ासीवादी चरित्र। यही वजह है कि यह मोदी सरकार के वश में ही नहीं है कि वह चुनावों के पहले कोई बड़ी कल्याणकारी योजना भी घोषित कर सके।
मोदी सरकार के ख़िलाफ़, उसकी जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता के जुझारू आन्दोलन खड़ा करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से बने विपक्ष से कोई उम्मीद पालकर रखना आत्मघाती होगा। अगर इन विपक्षी चुनावी पार्टियों का गठबन्धन अनपेक्षित रूप से चुनाव जीत भी जाये, तो वह भाजपा की किसी और भी ज़्यादा तानाशाह और बर्बर किस्म की सरकार के दोबारा चुने जाने की ज़मीन ही तैयार करेगा। अव्वलन, तो इस समय पूँजीवादी विपक्ष के लिए एकजुट रहना और एकजुट तरीके से चुनाव लड़कर जीतना ही बहुत मुश्किल है। नामुमकिन नहीं है, लेकिन बेहद मुश्किल ज़रूर है। लेकिन अगर ऐसा हो भी जाये तो वह फ़ासीवाद के एक नये, ज़्यादा बर्बर और उन्मादी उभार की ही ज़मीन तैयार करेगा। इसकी बुनियादी वजह है मौजूदा दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट, जिससे तत्काल उबर पाने की गुंजाइश बेहद कम है। ऐसे में, कोई गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकार पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि आपवादिक स्थिति में 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा हार भी जाये, तो वह फ़ासीवादी उभार की एक नये स्तर पर ज़मीन ही तैयार करेगा।
दूसरी वजह है भारत में समूची राज्यसत्ता के पोर-पोर में फ़ासीवादी घुसपैठ, उसका भीतर से फ़ासीवादी ‘टेकओवर’। आज के दौर में फ़ासीवादी भाजपा सरकार कोई आपवादिक कानून लाकर चुनावों को भंग कर दे या पूँजीवादी जनवाद के खोल का परित्याग कर दे, इसकी गुंजाइश न के बराबर है। फ़ासीवादी भी अपने ऐतिहासिक अनुभवों से सीखते हैं और आज किसी भी देश का फ़ासीवादी अपना हश्र हिटलर या मुसोलिनी जैसा नहीं होने देना चाहेगा। साथ ही, बुर्जुआ वर्ग भी सामान्य तौर पर इसके पक्ष में नहीं है। बहरहाल, फ़ासीवादी शक्तियाँ चुनाव हारने की सूरत में भी पूँजीपति वर्ग की एक राजनीतिक शक्ति और अनौपचारिक सत्ता का काम जारी रखेंगी और नये सिरे से सत्ता पर चढ़ाई की ज़मीन तैयार करेंगी। आर्थिक संकट का बुनियादी कारक और किसी ग़ैर-फ़ासीवादी सरकार की पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थता, इसके लिए अनुकूल सन्दर्भ तैयार करेगा। इसलिए जनता की क्रानितकारी शक्तियों को अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए। उसे रोज़गार, निशुल्क व समान शिक्षा, निशुल्क व समान चिकित्सा, सभी को भोगाधिकार के आधार पर आवास के अधिकार और साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए अपना स्वतन्त्र आन्दोलन खड़ा करना होगा।
निश्चय ही, अगर ऐसे आन्दोलन के पास एक सर्वहारा नेतृत्व नहीं होगा, अगर उसमें स्वत:स्फूर्तता का पहलू प्रधान होगा, तो भी वह एक लम्बे संघर्ष को न तो चला पायेगा और न ही जीत पायेगा। इसके लिए एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की अनिवार्यता स्पष्ट है। निश्चय ही, ऐसी पार्टी भी इन जनसंघर्षों को संगठित करने की प्रक्रिया में ही निर्मित और गठित हो सकती है। इसलिए ऐसे जुझारू जनसंघर्षों को खड़ा करने की प्रक्रिया में जनता के विभिन्न वर्गों और हिस्सों को, यानी कि मज़दूरों को, ग़रीब किसानों को, आम मेहनतकश जनता से आने वाले छात्रों, युवाओं व स्त्रियों को अपने क्रान्तिकारी जनसंगठन भी खड़े करने होंगे और साथ ही अपनी देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के कार्यभार को भी पूरा करना होगा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ये कार्यभार मुश्किल हैं, जटिल हैं और चुनौतियों और बाधाओं से भरे हुए हैं। यह भी सच है कि हमारे पास आराम से बैठने या धीमी गति से काम करने का वक़्त नहीं है। लेकिन हमें ये कार्यभार पूरे करने ही होंगे। इनके बिना, देश को बरबादी की गर्त में जाने से कोई ताक़त नहीं बचा सकती है। देश के कई क्रान्तिकारी जनसंगठन इन प्रयासों में लगे हुए हैं और ‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ नामक एक देशव्यापी यात्रा निकाल रहे हैं, जिसका मकसद इन असल मसलों पर जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित करना है। यह यात्रा 13 राज्यों और 84 जिलों से गुज़रते हुए 3 मार्च को दिल्ली पहुँचेगी। ‘मज़दूर बिगुल’ इस यात्रा का समर्थन करता है और अपने सभी पाठकों से इसमें शामिल होने की अपील करता है। ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ इस यात्रा के आयोजन में केन्द्रीय भूमिका निभा रही है। देश के पैमाने पर एक क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व खड़ा करने के रास्ते में यह एक छोटा-सा लेकिन अहम कदम हो सकता है।
आने वाले चुनावों में भी क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की ओर से रणकौशलात्मक हस्तक्षेप एक ज़रूरी कार्यभार है। पूरे देश के पैमाने पर इसे पूरा करने के लिए आज कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं है। लेकिन जिन स्थानों पर सर्वहारा पक्ष की नुमाइन्दगी करने वाला उम्मीदवार मौजूद है, व्यापक मेहनतकश जनता को उसे अपना समर्थन देना चाहिए। इस प्रकार के तर्क पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक नुमाइन्दे लगातार हमारे अन्दर बिठाते हैं कि स्थापित पूँजीवादी पार्टियों को वोट दो, क्योंकि वे ही जीत सकती हैं; जाति-धर्म के आधार पर वोट दो क्योंकि तुम्हारे “समुदाय” का उम्मीदवार ही तुम्हारे लिए कुछ करेगा या अगर वह कुछ भी न करे तो भी तुम इस पर “गर्व” तो कर ही सकते हो, इत्यादि। धनबल-बाहुबल की नुमाइश कर वे हमारी चेतना को भ्रष्ट करने का काम करते हैं। जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारा “समुदाय” और कुछ नहीं बल्कि व्यापक मेहनतकश जनता की वर्गीय एकजुटता है, जब तक हम पूँजी की ताक़त की नुमाइश से प्रभावित होंगे, जब तक अपने असली मसलों को नहीं पहचानेंगे और अपने असली नुमाइन्दों को नहीं पहचानेंगे, तब तक हमें धोखा दिया जाता रहेगा, हम बेवकूफ़ बनते रहेंगे। विकल्प बनाने से बनता है, वह कहीं आसमान से आपके बीच अवतरित नहीं होता है। और वास्तविक विकल्प हमेशा जनता बनाती है, इसके लिए कोई मसीहा नहीं प्रकट होता है। जब तक हम यह नहीं समझते, हम अडानी-अम्बानी-टाटा-बिड़ला जैसे पूँजीपतियों, धनी फार्मरों व कुलकों, ठेकेदारों, बिचौलिये, दलालों और धनी व्यापारियों की नुमाइन्दगी करने वाले राजनीतिक दलों के हाथों फ़रेब का शिकार होते रहेंगे।
हमेशा की तरह, आज हमारे देश में भी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद जनता का सबसे बड़ा दुश्मन है। इन्हें हर मंच, हर जगह, हर क्षेत्र में नकारना हमारा कर्तव्य है। यह साम्प्रदायिकता के आधार पर टुटपुँजिया वर्ग का अन्धा प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करते हैं और इसके ज़रिये बड़ी पूँजी की सेवा करते हैं। अनिश्चितता और असुरक्षा का मारा टुटपुँजिया वर्ग इनके साम्प्रदायिक प्रचार के समक्ष अरक्षित होता है और अक्सर साम्प्रदायिक उन्माद में बह जाता है। क्रान्तिकारी शक्तियों को निम्न मध्यवर्गीय व मध्यम मध्यवर्गीय जनता के बीच भी व्यापक प्रचार कर इस सच्चाई को सामने लाना चाहिए कि फ़ासीवादी सत्ता वास्तव में उनके हितों की सेवा नहीं करती, बल्कि उनके हितों के विरुद्ध काम करती है। पेंशन ख़त्म करने से लेकर सरकारी नौकरियों में भर्ती पर रोक लगाना, सार्वजनिक उपक्रमों का लगातार निजीकरण करना, महँगाई और बेरोज़गारी को बढ़ाने वाली नीतियाँ लागू करना, भला उनके हित में कैसे हैं? हमें साम्प्रदायिकता के विरुद्ध भी व्यापक जनता में लगातार प्रचार करना चाहिए और यह बात समझानी चाहिए कि शहीदे-आज़म भगतसिंह ने क्या कहा था। उन्होंने कहा था कि धर्म सभी का व्यक्तिगत मसला है और इसे राजनीति और सामाजिक जीवन में कतई नहीं लाना चाहिए। कोई पार्टी या सरकार अगर यह करती है, तो उसका मक़सद केवल एक होता है: जनता को बाँटकर, धनी वर्गों की सेवा करना। आज मोदी सरकार ठीक यही कर रही है। मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, गुरद्वारे बनाना सरकार का काम नहीं है। आस्था रखने वाले लोग अपनी आस्था के अनुसार और दूसरों के जनवादी अधिकारों का हनन किये बिना कोई भी पूजा स्थल बनायें, ये उनका व्यक्तिगत मसला है। लेकिन इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। कोई राजनीतिक दल भी यदि ऐसा करे, तो उसका बहिष्कार होना चाहिए। यदि कोई सरकार ऐसा करती है, तो इसका एक ही मतलब है: वह रोज़गार, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, आवास, भ्रष्टाचार और जनता के जनवादी अधिकारों के मसले पर नाकाम हो चुकी है।
इन बातों को समझना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। ऐसी समझदारी से लैस होकर ही हम अपने हितों के लिए संगठित हो सकते हैं और देश में जारी राजनीतिक वर्ग संघर्ष में एक अर्थपूर्ण हस्तक्षेप कर सकते हैं।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2024
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