Category Archives: सम्‍पादकीय

श्रम क़ानूनों में ”सुधार” के नाम पर सौ साल के संघर्षों से हासिल अधिकार छीनने की तैयारी में है सरकार

सुधार से उनका सबसे पहला मतलब होता है कि मज़दूरों को और अच्छी तरह निचोड़ने के रास्ते में बची-खुशी बन्दिशों को भी हटा दिया जाये। मोदी सरकार इस माँग को पूरा करने में जी-जान से जुटी हुई है।
श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की को‍शिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारी है, जिनमें से दो – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता – पहले पेश की जा चुकी हैं और तीसरी – सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता – का मसौदा पिछले मार्च में जारी किया गया। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।

लुटेरों के झूठे मुद्दे बनाम जनता के वास्‍तविक मुद्दे – सोचो, तुम्हें किन सवालों पर लड़ना है

इन झगड़ों का परिणाम केवल आम जनता की तबाही होती है। जबकि दोनों धर्मों के धनिको को कोई नुकसान नहीं होता। युवाओं को टी.वी चैनलों, धर्म के ठेकेदारों, नेताओं-मन्त्रियों के भ्रमजाल से बाहर आना होगा। शिक्षा, रोजगार, जैसे वास्तविक मुद्दों पर संघर्ष संगठित करना होगा। नेताओं को घेरना होगा कि जो वायदे वो चुनाव में करते हैं उसे पूरा करें। जातिवाद-भेदभाव की दीवारें गिरानी होंगी। धार्मिक कट्टरपंथियों, चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लिम, सिख या ईसाई, के खिलाफ हल्ला बोलना होगा। अन्धविश्वास, रूढ़ियों के विरुद्ध वैचानिक चेतना का प्रचार-प्रसार करना होगा। हमें मेहनतकश जनता के वास्तविक मुद्दों पर संघर्षों से इस लड़ाई को जोड़ना होगा।

विधानसभा चुनाव परिणाम : फासिस्ट शक्तियों की सत्ता पर बढ़ती पकड़

आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिपर्फ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चैकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। हमें अपनी भरपूर ताकत के साथ इसकी तैयारी में जुट जाना चाहिए।

पाँच राज्यों में एक बार फिर विकल्पहीनता का चुनाव : मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष के क्रान्तिकारी प्रतिनिधित्व का सवाल

फासीवादी ताक़तों का ख़तरा किसी उदार पूँजीवादी पार्टी के जरिये नहीं दूर हो सकता है, क्योंकि वह उदार पूँजीवादी पार्टियों के शासन के दौर में पैदा अनिश्चितता, अराजकता और असुरक्षा के कारण ही पैदा होता है। इसलिए हम इस या उस पूँजीवादी पार्टी के ज़रिये तात्कालिक राहत की भी बहुत ज़्यादा उम्मीद न ही करें तो बेहतर होगा। वास्तव में, अब तात्कालिक तौर पर भी मज़दूर वर्ग के लिए यह ज़रूरी बन गया है कि वह स्वतन्त्र तौर पर अपने राजनीतिक पक्ष को पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में प्रस्तुत करे और अपने क्रान्तिकारी रूपान्तरण की लम्बी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए इन चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी करे। इसके बिना भारत में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन ज़्यादा आगे नहीं जा पायेगा।

हिन्दुत्ववादी फासिस्टों और रंग-बिरंगे लुटेरे चुनावी मदारियों के बीच जनता के पास चुनने के लिए क्या है?

भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई की योजनाबद्ध, सांगोपांग, सर्वांगीण तैयारी क्रान्तिकारी एजेण्डे पर हमेशा प्रमुख बनी रहेगी, क्योंकि फासीवाद राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी प्रभावी उपस्थिति तबतक बनाये रखेगा, जबतक राज, समाज और उत्पादन का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा। इसलिए फासीवाद विरोधी संघर्ष को हमें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के एक अंग के रूप में ही देखना होगा। इसे अन्य किसी भी रूप में देखना भ्रामक होगा और आत्मघाती भी।

मेहनतकश जन-जीवन पर पूँजी के चतुर्दिक हमलों के बीच गुज़रा एक और साल

दुनिया के अलग-अलग हिस्सोंे में आम मेहनतकश आबादी के जीवन पर पूँजी के चतुर्दिक हमलों के प्रतिकार के भी कुछ शानदार उदाहरण इस साल देखने को मिले जिनसे इस अन्धकारमय दौर में भी भविष्य के लिए उम्मीदें बँधती हैं। भारत की बात करें तो इस साल बेंगलूरू के टेक्सटाइल उद्योग की महिला मज़दूरों ने मोदी सरकार की ईपीएफ़ सम्बन्धी मज़दूर विरोधी नीति के विरोध में ज़बरदस्त जुझारूपन का परिचय देते हुए समूचे बेंगलूरू शहर को ठप कर दिया। बेंगलूरू की महिला टेक्सटाइल मज़दूरों के जुझारू संघर्ष को देखते हुए केन्द्र सरकार बचाव की मुद्रा में आ गयी। इसी तरह से राजस्थान के टप्पूखेड़ा में होण्डा कम्पनी द्वारा 3000 मज़दूरों के निकाले जाने के बाद शुरू हुआ होण्डा मज़दूरों का जुझारू संघर्ष भी प्रेरणादायी रहा।

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृतियों से संकल्प लो – नयी सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों की तैयारी करो

जिस मज़दूर आबादी को अनपढ़, गँवार, पिछड़ा हुआ माना जाना है वह एक विशाल देश में न सिर्फ़ अपनी सत्ता को स्थापित कर सकती है, बल्कि उसे चला सकती है और एक बेहतर समाज की रचना कर सकती है। इस तौर पर, अक्टूबर क्रान्ति ने मानव इतिहास में एक निर्णायक विच्छेद का प्रदर्शन किया और एक नये युग का आरम्भ कियाः समाजवादी संक्रमण का युग। इस युग की आरम्भ के बाद मज़दूर वर्ग ने कई अन्य देशों में समाजवादी प्रयोग करके, विशेष तौर पर चीन में, नये मानक स्थापित किये और नये चमत्कार किये। लेकिन ये सभी प्रयोग पहले दौर के समाजवादी प्रयोग थे।

पूँजीवादी मुनाफे का चक्का जाम करने के लिए मज़दूरों को अपनी एकता को मज़बूत कर लम्बी लड़ाई लड़नी होगी!

असल में एकदिनी हड़तालें करना इन तमाम यूनियनों के अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसा करने से उनके बारे में मज़दूरों का भ्रम भी थोड़ा बना रहता है और पूँजीपतियों की सेवा करने का काम भी ये यूनियनें आसानी से कर लेती हैं। यह एकदिनी हड़ताल कितनी कारगर है यह इसी बात से पता चलता है कि ऐसी हड़तालों के दिन आम तौर पर तमाम पूँजीपति और कई बार कुछ सरकारी विभाग तक खुद ही छुट्टी घोषित कर देते हैं। और कई इलाकों में मालिकों से इनकी यह सेटिंग हो चुकी होती है कि दोपहर तक ही हड़ताल रहेगी और उसके बाद फैक्ट्री चलेगी। गुड़गाँव में इस हड़ताल की “छुट्टी” के बदले इससे पहले वाले हफ्ते में ओवरटाइम काम करवा लिया जाता है। इसे रस्म नहीं कहा जाये तो क्या कहें?

लुभावने जुमलों से कुछ न मिलेगा, हक़ पाने हैं तो लड़ना होगा!

अपने देश में एक ओर छात्रों-युवाओं, मज़दूरों, दलितों, अल्पसंख्यकों का जिस तरह दमन किया जा रहा है और दूसरी ओर गोरक्षा से लेकर लव जिहाद तक जिस तरह से उन्माद भड़काया जा रहा है वह भी इसी तस्वीर का एक हिस्सा है। पूँजीवादी व्यदवस्था का संकट दिनोंदिन गहरा रहा है और जनता की उम्मीदों को पूरा करने में दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें नाकाम हो रही हैं। पूँजीपतियों के घटते मुनाफ़े और बढ़ते घाटे को पूरा करने के लिए मेहनतकशों की रोटी छीनी जा रही है, उनके बच्चों से स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार छीने जा रहे हैं, लड़कर हासिल की गयी सु‍विधाओं में एक-एक कर कटौती की जा रही है।

नाकाम मोदी सरकार और संघ परिवार पूरी बेशर्मी से नफ़रत की खेती में जुट चुके हैं!

अगर हम आज ही हिटलर के इन अनुयायियों की असलियत नहीं पहचानते और इनके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो कल बहुत देर हो जायेगी। हर ज़ुबान पर ताला लग जायेगा। देश में महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी का जो आलम है, ज़ाहिर है हममें से हर उस इंसान को कल अपने हक़ की आवाज़ उठानी पड़ेगी जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा नहीं हुआ है। ऐसे में हर किसी को ये सरकार और उसके संरक्षण में काम करने वाली गुण्डावाहिनियाँ ”देशद्रोही” घोषित कर देंगी! हमें इनकी असलियत को जनता के सामने नंगा करना होगा। शहरों की कॉलोनियों, बस्तियों से लेकर कैम्पसों और शैक्षणिक संस्थानों में हमें इन्हें बेनक़ाब करना होगा। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में इनकी पोल खोलनी होगी।