Category Archives: सम्‍पादकीय

विधानसभा चुनावों के नतीजे और भविष्य के संकेत

‘आप’ पार्टी की राजनीति के पीछे जो सुधारवादी और प्रतिक्रियावादी यूटोपिया है उन दोनों का तार्किक विकास समाज में फ़ासीवाद के समर्थन-आधार को विस्तारित करने की ओर ही जाता है। मान लें कि 2014 नहीं तो 2019 तक ‘आप’ पार्टी का बुलबुला न फूटे और वह एक राष्ट्रीय विकल्प बन जाये (जिसकी सम्भावना बेहद कम है) और वह सत्ता में भी आ जाये तो वह नवउदारवादी नीतियों को निरंकुश नौकरशाही और ‘पुलिस स्टेट’ के सहारे निरंकुश स्वेच्छाचारिता के साथ लागू करेगी। इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता क्योंकि मुनाफे की गिरती दर के जिस पूँजीवादी संकट ने आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले मन्दी व दुष्चक्रीय निराशा के दौरों की जगह विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट को जन्म दिया है वह नवउदारवाद की नीतियों और लगातार सिकुड़ते बुर्जुआ जनवाद के सर्वसत्तावाद की ओर बढ़ते जाने के अतिरिक्त अन्य किसी विकल्प की ओर ले ही नहीं जा सकता।

चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम हो-हल्ले के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘भारत निर्माण’ का राग अलापने में लगी हुई है, उसके युवराज राहुल गाँधी बार-बार ग़रीबों के सबसे बड़े पैरोकार बनने के दावे कर रहे हैं, मगर जनता इतनी नादान नहीं कि वह भूल जाये कि पिछले 10 वर्ष में उन्हीं की पार्टी की सरकार ने ग़रीबों की हड्डियाँ निचोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उधर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी अन्धराष्ट्रवादी नारों और जुमलों के साथ देश के विकास के हवाई दावों से मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का ध्यान खींच रहे हैं जो गुजरात में उसकी सरपरस्ती में हुए क़त्लेआम से भी आँख मूँदने को तैयार है। गुजरात के तथाकथित विकास के लिए उन्होंने मज़दूरों को दबाने-निचोड़ने और पूँजीपतियों को हर क़ीमत पर लूट की छूट देने की जो मिसाल क़ायम की है उसे देखकर कारपोरेट सेक्टर के तमाम महारथियों के वे प्रिय हो गये हैं जो आर्थिक संकट के इस माहौल में फासिस्ट घोड़े पर दाँव लगाने को तैयार बैठे हैं। वोटों की फसल काटने के लिए दंगों की आग भड़काने से लेकर हर तरह के घटिया हथकण्डे आज़माये जा रहे हैं।

सावधान! फ़ासीवादी शक्तियाँ अपने ख़तरनाक खेल में लगी हैं!

फ़ासीवाद पूँजीवादी ढांचे के अंदर ‘खूंटे से बंधे कुत्ते’ की तरह होता है जिसकी जंजीर पूँजीपति वर्ग के हाथों में रहती है। पूँजीवादी ढांचे के अंदर इसकी मौजूदगी लगातार बनी रहती है। जैसे ही पूँजीपति वर्ग के लिए सत्ता के दूसरे रूपों जैसे संसदीय जनवाद के द्वारा लोगों पर अपना नियंत्रण रखना और पूँजीवादी लूट को जारी रखना असंभव हो जाता है उसी समय फ़ासीवाद का क्रूर खंजर वक्त के अँधेरे कोनों से निकल के सामाजिक रंगमंच पर आ प्रकट होता है और अपने आकाओं, वित्तीय पूँजी की सेवा में मेहनतकश लोगों पर टूट पड़ता है।

मेहनतकश साथियो! साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़तरनाक इरादों को नाकाम करने के लिए फ़ौलादी एकता क़ायम करो!

इन दंगों के पीछे संघ परिवार के संगठनों की भूमिका बिल्कुल साफ है। उनका सीधा खेल है कि जितने हिन्दू मरेंगे, उतना ही हिन्दू डरेंगे और जितना ही वे डरेंगे उतना ही वह भाजपा के पक्ष में लामबन्द होंगे। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की सपा सरकार का गणित है कि मुसलमानों के अन्दर जितना डर पैदा होगा उतना ही वह समाजवादी पार्टी की ओर झुकेंगे। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने यही मॉडल और फार्मूला अपनाया था, और अब उत्तर प्रदेश में यही किया जा रहा है। गुजरात में नरसंहार के एक प्रमुख आयोजक और मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह को इसी लिए उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी है। पिछले दिनों विहिप नेताओं के साथ मुलायम सिंह यादव की मुलाकातों और चौरासी कोसी परिक्रमा के मामले में दोनों की नूरांकुश्ती को भी इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए।

एक बार फ़िर देश को दंगों की आग में झोंककर चुनावी जीत की तैयारी

आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, मेहनतकशों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे।

उत्तराखण्डः दैवी आपदा या प्रकृति का कोप नहीं यह पूँजीवाद की लायी हुई तबाही है!

पूँजीवादी विकास के मॉडल के तहत पर्यावरण की परवाह न करते हुए जिस तरह अंधाधुंध तरीक़े से सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए पहाड़ियों को बारूद से उड़ाई गईं, उसकी वजह से इस पूरे इलाक़े की चट्टानों की अस्थिरता और बढ़ने से भूस्ख़लन का ख़तरा बढ़ गया। वनों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन से भी पिछले कुछ बरसों में हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन, मृदा क्षरण और बाढ़ की परिघटना में बढ़ोत्तरी देखने में आयी है। यही नहीं इस पूरे इलाक़े में पिछले कुछ वर्षों में हिमालय की नदियों पर जो बाँध बनाये गये या जिन बाँधों की मंजूरी मिल चुकी है उनसे भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई है

साहसपूर्ण संघर्ष और कुर्बानियों के बावजूद क्यों ठहरावग्रस्त है मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन?

7-8 नवम्बर से मारुति सुजुकी मज़दूरों का संघर्ष फिर से शुरू हुआ। लेकिन पिछले 8 महीनों के बहादुराना संघर्ष के बावजूद आज मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन एक ठहराव का शिकार है। निश्चित तौर पर, आन्दोलन में मज़दूरों ने साहस और त्याग की मिसाल पेश की है। लेकिन किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए केवल साहस और कुर्बानी ही पर्याप्त नहीं होते। उसके लिए एक सही योजना, सही रणनीति और सही रणकौशल होना भी ज़रूरी है। इनके बग़ैर चाहे संघर्ष कितने भी जुझारू तरीके से किया जाय, चाहे कितनी भी बहादुरी से किया जाय और चाहे उसमें कितनी ही कुर्बानियाँ क्यों न दी जायें, वह सफल नहीं हो सकता। यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज मारुति सुजुकी के मज़दूरों का आन्दोलन भी ठहरावग्रस्त है। अगर हम इस ठहराव को ख़त्म करना चाहते हैं, तो पहले हमें इसके कारणों की तलाश करनी होगी। इस लेख में हम इन्हीं कारणों की पड़ताल करेंगे।

बंगलादेश हो या भारत, मौत के साये में काम करते हैं मज़दूर

पूँजीपतियों की निगाह में मज़दूरों की जान की कोई कीमत नहीं है, लेकिन मज़दूर अपनी ज़िन्दगी को ऐसे ही गँवाने के लिए तैयार नहीं हैं। काम पर सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त हमारे जीने के बुनियादी अधिकार से जुड़ा है। हमें इसके लिए संगठित होकर लड़ना होगा और साथ ही इस आदमख़ेर पूँजीवादी ढाँचे को भी नेस्तनाबूद करने की तैयारी करनी होगी।

चुनावी तैयारियों के बीच बजट का खेल

इस बजट में महँगाई से निपटने के लिए कुछ नहीं है। उल्टे, डीज़ल और पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी का असर हर चीज़ पर पड़ने वाला है। रेल किरायों में बढ़ोत्तरी पहले ही हो चुकी है। भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत से साफ़ है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। गरीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक इज़ाफ़ा होगा। चुनावी वर्ष के बजट ने वास्तविक हालत को ढाँपने-तोपने की चाहे जितनी कोशिश की हो, भारत के मेहनतकशों को आने वाले कठिन हालात का मुक़ाबला करने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी।

2014 के आम लोकसभा चुनावों के लिए शासक वर्गों के तमाम दलालों की साज़िशें

आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह दरअसल समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। फिलहाली तौर पर, संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर पर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, अपने आपको जगायें, अपने आपको गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे। या तो हम इस रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, या फिर हम एक बार फिर से चूक जाएँगे, एक बार फिर से हज़ारों की तादाद में अपने लोगों को खोएँगे और एक बार फिर से प्रतिक्रियावादी ताक़तें हमें इतिहास के मंच पर प्रवेश करने से पहले ही फिर से कई वर्षों के लिए उठाकर बाहर फेंक देंगी; एक बार फिर से पराजय और निराशा का दौर शुरू हो जायेगा। इस नियति से बचने का रास्ता यही है कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जद (यू), राजद, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि समेत सभी चुनावी मदारियों के भरम तोड़कर हम अपना इंक़लाबी विकल्प खड़ा करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और एक इंक़लाब के ज़रिये मेहनतकश का लोकस्वराज्य खड़ा करने के लिए आगे बढ़ें!