सत्ता पर काबिज़ लुटेरों-हत्यारों-बलात्कारियों के गिरोह से देश को बचाना होगा!
संघी फासिस्टों के ख़िलाफ़ एकजुट हो!
संपादक मंडल
यूँ तो पिछले कई वर्षों से भारतीय समाज एक भीषण सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और नैतिक संकट से गुज़र रहा है, परन्तु अप्रैल के महीने में सुर्खियों में रही कुछ घटनाएँ इस ओर साफ़ इशारा कर रही हैं कि यह चतुर्दिक संकट अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा है। जहाँ एक ओर कठुआ और उन्नाव की बर्बर घटनाओं ने यह साबित किया कि फ़ासिस्ट दरिंदगी के सबसे वीभत्स रूप का सामना औरतों को करना पड़ रहा है वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका द्वारा असीमानन्द जैसे भगवा आतंकी और माया कोडनानी जैसे नरसंहारकों को बाइज्जत बरी करने और जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत की उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच तक कराने से इनकार करने के बाद भारत के पूँजीवादी लोकतंत्र का बचा-खुचा आखिरी स्तम्भ भी ज़मींदोज़ होता नज़र आया। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये सब फ़ासीवाद के गहराते अँधेरे के ही लक्षण हैं। हालात चीख-चीख कर गवाही दे रहे हैंकि संकट के इस अँधेरे को संविधान, कानून और आधिकारिक संस्थाओं पर भरोसा टिकाने की बजाय जनबल के बूते ही चीरा जा सकता है।
कठुआ और उन्नाव में हैवानियत की इन्तेहा
‘बहुत हुआ नारी पर वार—’ और ‘बेटी बचाओ—’ जैसे नारे देकर सत्ता में आई केन्द्र की मोदी सरकार और महिलाओं के सम्मान की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता का दावा करने वाली उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की कलई कठुआ और उन्नाव की घटना के बाद खुल गयी है। उन्नाव में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर द्वारा किए गए गैंग रेप की शिकार 17 वर्षीय पीडि़ता के न्याय न मिलने पर मुख्यमत्री आवास के सामने आत्मदाह की कोशिश करने पर मजबूर होने के बावजूद कोई सुनवाई होना तो दूर उल्टे उसके पिता की बेरहमी से पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है। कठुआ में तो 8 वर्षीय बच्ची के साथ पाशविकता की सारी हदें पार करने वाली दरिंदगी करने के बाद बलात्कारियों के पक्ष में रैली निकाली जाती है जिसमें जम्मू व कश्मीर सरकार के भाजपाई नेता सहित हिन्दू धर्म के तमाम ठेकेदार बेशर्मी से ‘भारत माता की जय‘, ‘जय श्रीराम’ जैसे नारों और तिरंगे की आड़ में बलात्कार व हत्या के घिनौने अपराध को जायज़ ठहराने की कोशिश करते हैं। ‘भारत माता की जय’, ‘जय श्रीराम’ जैसे नारों और तिरंगे का इस्तेमाल दंगे कराने, विरोधियों को देशद्रोही करार देने और भ्रष्टाचार के आरोपियों को बचाने के लिए तो पहले से किया जाता रहा है, लेकिन अब तो इनका इस्तेमाल बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य को तोपने और ढाँकने के लिए किया जा रहा है! यही नहीं, ‘दैनिक जागरण’ और ‘ज़ी न्यूज़’ जैसे संघ परिवार के भोंपुओं ने बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए बलात्कारियों के बचाव में इस झूठ का प्रचार किया कि कठुआ में बच्ची के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं था।
अभी सारा देश कठुआ और उन्नाव की दिल दहला देने वाली घटनाओं पर क्षोभ और आक्रोश में सुलग ही रहा था कि सासाराम और सूरत सहित कई और जगहों से बलात्कार के बहुत जघन्य हमलों की ख़बरें भी सामने आयीं। इन घटनाओं के बाद जब ऐसा लग रहा था कि भारतीय समाज अपने पतन के रसातल में जा पहुँचा है उसी बीच इंदौर से खबर आई कि वहाँ 8 महीने की बच्ची के साथ दुष्कर्म करके उसकी हत्या कर दी गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये घटनाएँ तो स्त्रियों पर होने वाले हमलों का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा हैं। ज़्यादातर घटनाएँ तो सामने ही नहीं आ पातीं।
2012 में निर्भया प्रकरण के बाद पूरे देश में गुस्से और शर्म की लहर फैल गयी थी, लेकिन उसके बावजूद आज की नंगी सच्चाई ये है कि बलात्कार, गैंगरेप और घिनौनी छेड़खानी की घटनाएँ कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। बलात्कारियों को सख़्त से सख़्त सज़ा दिलाने और पीडि़तों को इंसाफ़ व सुरक्षा के लिए सड़कों पर उतरने के साथ ही हमें इस सवाल पर भी सोचना ही होगा कि स्त्रियों और बच्चियों पर बर्बर हमलों और बलात्कार की घटनाएँ इस क़दर क्यों बढ़ती जा रही हैं और इनके लिए कौन-सी ताक़तें जि़म्मेदार हैं! अपने आक्रोश को गहराई देकर हमें इस सवाल का भी जवाब ढूँढना होगा कि आखिर हमारे समाज में कुलदीप सिंह सेंगर और सांझीराम जैसे फासिस्ट दरिंदे कुकुरमुत्ते की तरह क्यों पनप रहे हैं?
क्यों बढ़ रही है औरतों के ख़िलाफ़ बर्बर हिंसा?
इसमें कोई शक़ नहीं है कि हज़ारों सालों से चला आ रहा समाज का पितृसत्तात्मक ढाँचा औरतों को पुरुषों से कमतर समझने और उनके उत्पीड़न को न्यायसंगत ठहराने की मानसिकता पैदा करता है और समाज के पोर-पोर में समायी यह मानसिकता बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य के प्रति भी उदासीनता पैदा करती है जिससे ऐसी घटनाओं को बढ़ावा मिलता है। लेकिन अपने आप में यह कारण औरतों के ख़िलाफ़ बढ़ती बर्बर हिंसा को पूरी तरह से समझने में नाकाफ़ी है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ ही साथ हमें मौजूदा सामाजिक-आर्थिक परिवेश के उन पहलुओं को बारीकी से समझना होगा जो ऐसी बर्बरता को बढ़ावा दे रहे हैं। सैकड़ों वर्षों की औपनिवेशिक गुलामी की वजह से ठहरावग्रस्त रहे भारतीय समाज में आज़ादी के बाद जो पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक ढाँचा थोपा गया वह औरतों को बराबर का नागरिक समझने की बजाय उन्हें उपभोग की वस्तु समझने की मानसिकता को पाल-पोस रहा है। ख़ासकर पिछली चौथाई सदी से जारी नवउदारवाद के दौर में भोग-विलास और ‘खाओ-पियो ऐश-करो’ की संस्कृति बहुत तेज़ी से फैली है। ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस में औरतों का इस्तेमाल उत्पादों को बेचने के लिए और महज़ मनोरंजन की वस्तु समझने के लिए किया जाता है जिसकी बानगी भाँति-भाँति के फूहड़ विज्ञापनों, फ़िल्मों और टीवी सीरियलों, गानों आदि में देखी जा सकती है। बलात्कारी और लम्पट तत्व भोग-विलास पर टिके इस पूँजीवादी तंत्र से जनित संस्कृति के ही उत्पाद हैं। लेकिन बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य को अंजाम देने वालों के अलावा भी समाज में पुरुषों की अच्छी-खासी आबादी ऐसी मानसिकता से ग्रस्त होती है जो औरतों को बलपूर्वक अपने अधीन कर लेना चाहती है। समाज में बड़े पैमाने पर फैली इस स्त्री-विरोधी मानसिकता का एक उदाहरण कठुआ की घटना के सुर्खियों में रहने के दौरान सामने आया जब बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने कठुआ में गैंग रेप की वहशियाना हरक़त को देखने के लिए पोर्न साइट्स पर पीड़िता बच्ची के नाम को खोजा। यह पूँजीवादी सामाजिक-सांस्कृतिक-नैतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है! नवउदारवाद के पिछले कुछ दशकों में एक नवधनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है जिसे लगता है पैसे के बूते पर वह सबकुछ खरीद सकता है। पैसे के बल पर औरतों को अधीन करना इस वर्ग के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय होता है। यही नहीं, नवउदारवादी दौर में समाज के रसातल पर मज़दूरों के बीच भी एक आवारा, लम्पट, पतित वर्ग भी पैदा हुआ है जो पूँजीवादी अमानवीकरण की सभी हदों को पार कर चुका है जिसकी बानगी घृणित किस्म की यौन हिंसाओं में अक्सर सामने आती है।
इसके अतिरिक्त पूँजीवादी संकट के दौर में फल-फूल रही फासीवादी और धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तें सचेतन तौर पर स्त्रियों की आज़ादी पर अंकुश लगाने और उनको फिर से चूल्हे-चौखट तक सीमित करने की मानसिकता लगातार परोस रही हैं! ये ताक़तें बलात्कार और यौन अपराधों के लिए औरतों को ही जिम्मेदार ठहराने की मानसिकता लगातार समाज में फैलाती हैं जिसकी वजह से आम लोग भी अपराधियों पर नकेल कसने के लिए सड़कों पर उतरने की बजाय लड़कियों और औरतों पर पाबन्दी लगाते हैं। यही नहीं हिन्दुत्ववादी फासीवादी ताक़तें यौन हिंसा को एक राजनीतिक उपकरण की भाँति इस्तेमाल करके अल्पसंख्यक समुदाय में ख़ौफ़ भरने की घिनौनी साज़िशें रच रही हैं। ग़ौरतलब है कि हिन्दुत्व के विचारक सावरकर ने भी अपनी किताब ‘‘भारतीय इतिहास के छह गौरवशाली युग’’ में हिन्दू मर्दों द्वारा मुस्लिम औरतों के साथ बलात्कार को न्यायसंगत ठहराया था। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से पहले योगी आदित्यनाथ की एक जनसभा में मुस्लिम महिलाओं की लाश को उनकी कब्र से निकालकर बलात्कार कहने की बात कही गयी थी और आदित्यनाथ मंच पर बैठे मौन सहमति दे रहे थे। कठुआ की वीभत्स घटना भी बकरवाल मुस्लिम समुदाय को उनके गाँव से खदेड़ने के मक़सद से अंजाम दी गयी थी। ‘हिन्दू एकता मंच’ के बैनर तले बलात्कारियों के बचाव में रैली निकालना यह साफ़ दिखाता है कि इस मामले में बलात्कार जैसे घृणित अपराध का उपयोग एक राजनीतिक मक़सद से किया गया था।
बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी का एक कारण यह भी है कि जिन सांसदों और विधायकों को कानून के निर्माण की जिम्मेदारी मिली है वे स्वयं औरतों के भक्षक के रूप में सामने आ रहे हैं। उन्नाव की घटना में यह स्पष्ट तौर पर सामने आया। एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 51 सांसद और विधायकों पर बलात्कार और अपहरण सहित महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों के संगीन आरोप हैं। ग़ौरतलब है कि इनमें सबसे अधिक संख्या ‘बेटी बचाओ…’ का स्वांग कर रही भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की है। पिछले कुछ समय से भाजपा गुण्डों, मवालियों, दंगाइयों और बलात्कारियों की शरणस्थली बनकर उभर रही है जिसमें सभी पार्टियों के अपराधी शरण ले रहे हैं! यही नहीं समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले और संस्कारों की दुहाई देने वाले आसाराम, रामपाल और राम रहीम जैसे बाबा बलात्कार के संगीन अपराध में लिप्त पाये गये हैं जो बिना राजनीतिक सरपरस्ती के इतने घिनौने अपराधों को अंजाम दे ही नहीं सकते थे।
औरतों के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा रोकने के लिए किया क्या जाए?
जैसा कि हमने ऊपर इंगित किया था, फासीवादी दौर में पूँजीवादी लोकतंत्र की रही-सही संस्थाएँ भी खोखली हो चुकी हैं। विधायिका और कार्यपालिका की सड़ांध तो बहुत पहले ही लोगों के सामने आ चुकी थी, अब न्यायपालिका और मीडिया के स्तंभ भी धूल चाटते नज़र आ रहे हैं। ऐसे में संविधान, कानून और तमाम सरकारी संस्थाओं के भरोसे रहकर औरतों और बच्चियों के साथ होने वाली बर्बरता को रोका नहीं जा सकता है। इसकी बजाय हमें आम लोगों की संगठित ताक़त पर भरोसा करना होगा। देश भर में बलात्कार और छेड़खानी जैसी घटनाओं को रोकने के लिए गली-मोहल्लों और बस्तियों के स्तर पर महिला-हिंसा विरोधी चौकसी दस्ते बनाने होंगे जिन्हें गली-मोहल्ले के लम्पट तत्वों, दारू के ठेकों और अश्लील सामग्री का वितरण करने वाली दुकानों पर हल्ला बोलकर ध्वस्त करना होगा। औरतों को आत्म रक्षा के प्रशिक्षण के लिए प्रोत्साहित करना भी बेहद ज़रूरी है। इसके अतिरिक्त उन दकियानूसी और धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तों के ख़िलाफ़ निरन्तर अभियान चलाने की ज़रूरत है जो औरतों को पैरों की जूती समझने वाली पितृसत्तात्मक मानसिकता के विषाणुओं को फलने-फूलने के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करती हैं। साथ ही हमें मौजूदा व्यवस्था के दायरे के भीतर स्त्रियों को बराबरी के अधिकार के लिए संघर्ष को भी गति देनी होगी।
उपरोक्त तात्कालिक क़दम उठाना निस्संदेह ज़रूरी हैं, परन्तु औरतों के ख़िलाफ़ होने वाली बर्बर हिंसा के कारणों को समझने के बाद इसमें कोई शक़ नहीं रह जाता कि इस हिंसा को जड़ से समाप्त करने के लिए एक लम्बी लड़ाई की ज़रूरत है। यह लड़ाई हज़ारों सालों से चले आ रहे पुरुष प्रधान सामाजिक ढाँचे और ा पूँजीवादी व्यवस्था को नेस्तनाबूद करके समानता व न्याय पर आधारित शोषण व उत्पीड़न विहीन सामाजिक व आर्थिक ढाँचे के निर्माण करने की लड़ाई से जुड़ी है। यह लड़ाई ऐसे समाज के निर्माण से जुड़ी है जहाँ औरतें उपभोग करने वाले माल की बजाय एक आज़ाद नागरिक हों। इसलिए स्त्री मुक्ति की लड़ाई समाज के क्रान्तिकारी परिवर्तन की लड़ाई के अभिन्न अंग के रूप में लड़ी जानी चाहिए।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018
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