Category Archives: सम्‍पादकीय

मज़दूर-विरोधी चार लेबर कोड लागू करने की हड़बड़ी में मोदी सरकार

देश के करोड़ों मेहनतकशों की बदहाल ज़िन्दगी को और भी तबाह करने वाले चार ख़तरनाक क़ानून मोदी सरकार संसद से पारित करवा चुकी है और अब आनन-फ़ानन में उन्हें लागू करने की तैयारी में है। पूँजीपति मनमाने तरीक़े से मज़दूरों की हड्डी-हड्डी निचोड़ सकें और मज़दूर अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित भी न हो पायें, इसका पक्का इन्तज़ाम करने वाले इन क़ानूनों को लागू करने के लिए पूँजीपति इतने उतावले हैं कि मोदी सरकार समय से कई महीने पहले ही इन्हें लागू करने जा रही है।

मज़दूर वर्ग को दोहरी आपदा देकर गया वर्ष 2020

वर्ष 2020 की शुरुआत एक उम्मीद के साथ हुई थी क्योंकि दुनिया के तमाम हिस्सों में लोग भिन्न-भिन्न रूपों में पूँजीवादी व फ़ासीवादी सत्ताओं को जुझारू चुनौती दे रहे थे। भारत में भी नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ से शुरू हुए जनान्दोलन की आग पूरे देश में फैलती जा रही थी जिससे फ़ासिस्ट सत्ता के माथे पर बल साफ़ दिखायी देने लगे थे। लेकिन मार्च के महीने तक आते-आते दुनिया के अधिकांश हिस्से कोरोना महामारी की चपेट में आ गये।…

एक दिन की हड़ताल जैसे अनुष्ठानों से फ़ासिस्टों का कुछ नहीं बिगड़ेगा

गहरे आर्थिक संकट की चपेट में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पहले से ही थी। मोदी की विनाशकारी आर्थिक नीतियों ने इसे और ख़स्‍ताहाल बना दिया और सरकार चलाने की बुर्जुआ योग्‍यता रखने वाले लोगों के इस सरकार में नितान्‍त अभाव के चलते अर्थतंत्र का कुप्रबन्‍धन चरम पर जा पहुँचा है। अडाणी और अम्‍बानी जैसे कुछ घराने मोदी सरकार से मनमाने फ़ैसले करवाकर इस संकट में भी मुनाफ़ा पीट रहे हैं मगर पूरा पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से त्रस्‍त है और किसी भी तरह से मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए हाथ-पाँव मार रहा है।

बिहार: चुनावी रणनीति तक सीमित रहकर फ़ासीवाद को हराया नहीं जा सकता!

बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन जीत गया है। महागठबन्धन बहुमत से क़रीब 12 सीटें दूर रह गया।…कांग्रेस को पिछली बार की तुलना में 8 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा। वहीं संशोधनवादी पार्टियों विशेषकर माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन को इन चुनावों में काफ़ी फ़ायदा पहुँचा है।…इनमें भी ख़ास तौर पर भाकपा (माले) लिबरेशन को सबसे अधिक फ़ायदा पहुँचा है। ज़ाहिर है, इसके कारण चुनावों में महागठबन्धन की हार के बावजूद, भाकपा (माले) लिबरेशन के कार्यकर्ताओं में काफ़ी ख़ुशी का माहौल है, मानो फ़ासीवाद को फ़तह कर लिया गया हो! इन नतीजों का बिहार के मेहनतकश व मज़दूर वर्ग के लिए क्या महत्व है? यह समझना आवश्यक है क्योंकि उसके बिना भविष्य की भी कोई योजना व रणनीति नहीं बनायी जा सकती है।

हाथरस और बलरामपुर जैसी बर्बरता का ज़ि‍म्‍मेदार कौन? मज़दूर वर्ग उससे कैसे लड़े?

हाथरस में एक मेहनतकश घर की दलित लड़की के साथ बर्बर बलात्कार और उसके बाद उसकी जीभ काटकर और रीढ़ की हड्डी तोड़कर उसकी हत्या कर दी गयी। इस भयंकर घटना ने हरेक संवेदनशील इन्सान को झकझोर कर रख दिया है। अभी इस घटना की पाशविकता और बर्बरता पर लोग यक़ीन करने की कोशिश ही कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के ही बलरामपुर में भी ऐसी ही एक भयंकर घटना ने लोगों को चेतन-शून्य बना दिया। हर इन्सान अपने आप से और इस समाज से ये सवाल पूछ रहा है कि हम कहाँ आ गये हैं? क्यों बढ़ रही हैं ऐसी भयावह घटनाएँ? कौन है इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार? दुश्मन कौन है और लड़ना किससे है?

आरएसएस और भाजपा के निर्माणाधीन “हिन्दू राष्ट्र” में मज़दूरों की क्या जगह है?

अयोध्या में राम मन्दिर के भूमि पूजन के साथ शायद बहुत से मज़दूर भाई-बहन भी कुछ ख़ुश हुए होंगे। हो सकता है कि उनमें से भी कुछ को लगा हो कि अब रामराज्य की स्थापना हो रही है, अब “हिन्दू राष्ट्र” बन रहा है, अब शायद उन्हें तंगहाली, बेरोज़गारी और भूख-कुपोषण से मुक्ति मिल जायेगी। ऐसे में, हम आज के दौर की कुछ ठोस सच्चाइयों को आपके सामने रखना चाहते हैं और आपके मन में कुछ सवाल खड़े करना चाहते हैं।

कोरोना संकट : ज़िम्मेदार कौन है? क़ीमत कौन चुका रहा है?

दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। ये शब्‍द लिखे जाने तक 2,33,000 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं, जिनमें से करीब 1200 मौतें भारत में हुई हैं। दुनिया में अब तक कुल 32.6 लाख लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से 10.01 लाख ठीक हो गये हैं। भारत में कुल संक्रमित लोगों की संख्‍या अब तक 35 हज़ार पार कर चुकी है, जिनमें से 8,889 लोग ठीक हुए हैं। कोरोना संक्रमण के महामारी में तब्‍दील होने के कारण दुनिया के अधिकांश देशों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन घोषित किया गया है। आर्थिक गतिविधियाँ काफी हद तक रुक गयी हैं।

सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी जनान्दोलन को हिन्दुत्व फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन की शक्ल दो!

दिल्ली चुनावों के बाद भाजपा सरकार के फ़ासीवादी हमले और भी तेज़ हो गये हैं। ऐसी ही उम्मीद भी थी। 8 फ़रवरी के बाद कुछ ही दिनों के भीतर दिल्ली में सरकारी मशीनरी की पूरी मिलीभगत के साथ मुसलमानों पर किये गये फ़ासीवादी हमले और दंगे के ज़रिये देश भर में नये सिरे से धार्मिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया गया है।

आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा जनउभार है सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन

देश की जनता को बाँटने और एक बडी आबादी को सरमायेदारों को दोयम दर्जे का निवासी और सरमायेदारों का गुलाम बना देने के इरादे से देश पर थोपे जा रहे सीएए-एनआरसी के विनाशकारी ‘प्रयोग’ के विरुद्ध देशव्‍यापी आन्‍दोलन सत्ता के सारे हथकण्‍डों के बावजूद मज़बूती से डटा हुआ है और इसका देश के नये-नये इलाक़ों में विस्‍तार हो रहा है। दिल्‍ली का शाहीन बाग इस आन्‍दोलन का एक प्रतीक बन गया है और दिनो-रात के धरने का उसका मॉडल पूरे देश में अपनाया जा रहा है।

बग़ावत की चिंगारी सुलगा गया गुज़रा साल

इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक भी पूरा हो चुका है। इस पूरे दशक के दौरान लगातार जारी पूँजीवाद का विश्वव्यापी संकट दुनियाभर की मेहनतकश आवाम की ज़िन्दगी को तार-तार करता रहा। क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैरमौजूदगी या कमज़ोरी की वजह से दुनिया के तमाम देशों में इस संकट का लाभ धुर-दक्षिणपन्थी और फ़ासिस्ट ताक़तों ने उठाया।