गुजरात चुनाव और उसके बाद
फासीवाद से निजात पाने के आसान रास्तों का भ्रम छोड़ें और भरपूर ताक़त के साथ असली लड़ाई की तैयारी में जुटें
-संपादक मंडल
‘मज़दूर बिगुल’ का यह अंक प्रेस में जाने तक गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव के नतीजे स्पष्ट हो चुके हैं। पिछले कुछ महीनों से सारी मोदी सरकार गुजरात का चुनाव जीतने के काम में लगा दी गयी थी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पूरी ताक़त भी इसमें झोंक दी गयी थी। संघ परिवार के तमाम संगठन तो मीडिया की नज़रों से दूर अपने ज़हरीले प्रचार में हमेशा की तरह लगे ही हुए थे, प्रधानमंत्री भी बढ़ते जनअसन्तोष को भाँपकर मन्दिर-मस्जिद, पाकिस्तान का राग अलापने और रोने-धोने जैसी नौटंकी करने पर उतर आये थे। महीनों चले चुनाव प्रचार के बाद हर तरह की तीन-तिकड़म करके भाजपा गुजरात में फिर जीत गयी है जो बहुत अप्रत्याशित नहीं है। उधर हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह की भ्रष्ट और निकम्मी सरकार की वापसी की उम्मीद तो शायद कांग्रेसियों को भी नहीं थी।
मगर गुजरात के चुनाव को लेकर जैसी उम्मीदें बाँधी जा रही थीं और अब नतीजे आने के बाद वामपंथी बौद्धिक दायरों में भी जैसी मायूसी छायी है और जिस तरह के विश्लेषण किये जा रहे हैं, उनसे यही पता चल रहा है कि हिन्दुत्ववादी फासीवाद के कहर और मोदी सरकार की निरंकुश नवउदारवादी नीतियों का मुकाबला करने के लिए उदारवादियों, सुधारवादियों और सामाजिक जनवादी किस्म के वामपंथियों की सारी उम्मीद भाजपा को संसदीय चुनावों में हराने पर ही टिकी हैं और इसके लिए वे कांग्रेस और अन्य गैर-भाजपा संसदीय बुर्जुआ दलों की ओर हसरतों के साथ देख रहे हैं। ऐसे ही लोग इन चुनावी नतीजों के विश्लेषण से कुछ आशाजनक बातें ढूँढ़ने में भी लगे हुए हैं।
लेकिन एक बार फिर यह समझ लेना ज़रूरी है कि भाजपा फासीवादी गिरोह यानी संघ परिवार की सिर्फ़ चुनावी शाखा है। किसी चुनाव में हार जाने से संघ परिवार के तमाम संगठन अपना काम करना बन्द नहीं कर देते। उनकी विषैली राजनीति लगातार जारी रहती है। सत्ता प्रतिष्ठान से लेकर समाज की तमाम संस्थाओं में, सेना-पुलिस, न्यायपालिका, नौकरशाही से लेकर शिक्षा-संस्कृति की संस्थाओं तक में उनकी घुसपैठ योजनाबद्ध ढंग से बढ़ती रहती है। 2004 और 2009 की चुनावी हारों के बाद और भी ज़्यादा ताक़त के साथ भाजपा की सत्ता में वापसी इसका उदाहरण है।
मोदी सरकार के पिछले साढ़े तीन साल जनता से झूठे वायदे और ड्रामेबाज़ियाँ करने और दूसरी तरफ़ कॉरपोरेट घरानों की और सरकारी लूट-खसोट को बढ़ाते जाने में ही बीते हैं। लूट और झूठ के इस नंगे नाच से ध्यान भटकाने और लोगों को आपस में बाँटने के लिए लगातार समाज में नफ़रत फैलायी गयी है और मुसलमानों, दलितों, स्त्रियों के विरुद्ध बर्बर हिंसक अपराधों को बढ़ावा दिया गया है और बहुत-सी जगहों पर संगठित ढंग से अंजाम दिया गया है। मेहनतकशों और ग़रीबों पर महँगाई, बेरोज़गारी, मज़दूरी में कटौती और कदम-कदम पर सरकारी डाकेज़नी की मार सबसे बुरी तरह पड़ी है। इन हालात के ख़िलाफ़ आम जन में व्यापक असन्तोष है और जगह-जगह यह ग़ुस्सा विभिन्न रूपों में फूटता भी रहता है। लेकिन यह भी सही है कि इस खदबदाते असन्तोष को एक संगठित, जुझारू, व्यापक आन्दोलन की शक्ल नहीं दी जा सकी है। हर बर्बर हत्याकाण्ड के बाद विभिन्न शहरों में होने वाले शान्तिपूर्ण और शालीन विरोध प्रदर्शनों से फासिस्टों के हौसले ज़रा भी पस्त नहीं हुए हैं। राजस्थान में एक ग़रीब मज़दूर अफ़राज़ुल की घिनौनी हत्या करने वाले शम्भू के समर्थन में उदयपुर की अदालत पर धावा बोलकर उत्पात मचाने वाली सैकड़ों उन्मादियों की भीड़ आज हर शहर में तैयार हो चुकी है। उनका मुकाबला कौन करेगा? सरकारी मशीनरी और न्यायपालिका में फासिस्टों की घुसपैठ नीचे से लेकर ऊपर तक हो चुकी है। अदालत परिसर में आसाराम जैसे बलात्कारी का चरण-चुम्बन करने वाला मुख्य न्यायाधीश कोई अपवाद नहीं है।
पिछले तीन दशक से जारी नव उदारवादी नीतियों और पूँजीवादी व्यवस्था के लाइलाज ढाँचागत संकट ने पूरे समाज में फासीवाद के बढ़ने के लिए माहौल तैयार किया है। पूँजीवाद की मार से आबादी के अलग-अलग तबकों में बढ़ते असन्तोष और असुरक्षा बोध का फ़ायदा हिन्दुत्ववादी फासिस्टों ने बहुत कुशलता से उठाया है और पूँजीपति घरानों के पूरे समर्थन से भाजपा सत्ता के शिखर तक पहुँचने में कामयाब रही है। लेकिन हमें पिछले 27 वर्षों का इतिहास भूलना नहीं चाहिए जो बताता है कि भाजपा सत्ता में न रहे, तब भी समाज में बर्बर फासिस्टों का उत्पात जारी रहेगा। इस नासूर को आपरेशन के ज़रिए निकाल फेंककर ही ख़त्म किया जा सकता है। जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक फासीवाद भी मौजूद रहेगा। फासिस्टों को पीछे धकेलने के लिए भी सड़कों पर जुझारू आन्दोलन खड़े करने होंगे और आमने-सामने की भिड़न्त करने के लिए तैयार रहना होगा। मेहनतकशों की तैयारी और संगठन के बिना यह काम नहीं हो सकता। फासीवाद निम्न-बुर्जुआ वर्गों का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है जिसे एक कैडर-ढाँचे वाली पार्टी संगठित करती है और नेतृत्व देती है। इसे एक कैडर-आधारित ढाँचे वाले क्रान्तिकारी संगठन के नेतृत्व में क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही पीछे धकेला जा सकता है। बेशक यह काम बेहद कठिन और लम्बा है मगर आसान उपायों से आस लगाकर मन को झूठी तसल्ली देने का कोई फ़ायदा नहीं।
पिछले 65 वर्ष के इतिहास के बाद भी बुर्जुआ चुनावों से न्यायपूर्ण फैसलों की उम्मीद बताती है कि देश के प्रगतिशील बौद्धिक भद्रजनों में बुर्जुआ संसदीय जनवाद को लेकर अभी कितना मोह और विभ्रम बना हुआ है। आम मेहनतकश जनता अपने अनुभवों से जान चुकी है कि चुनावों से उसकी ज़िन्दगी में कोई बुनियादी तब्दीली आने वाली नहीं है। लेकिन बुद्धिजीवी भद्रजन चुनाव से ही फासीवाद को शिकस्त देने की उम्मीदों पर अभी क़ायम हैं! संसदीय चुनावों में सबकुछ थैली की ताकत से तय होता है और भारत के बड़े पूँजीपतियों के लिए अभी भी पहला विकल्प भाजपा ही है क्योंकि वह बर्बर दमन और जनता को आपस में बाँटकर नव उदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए सबसे अधिक तैयार और सक्षम है। यह अनायास नहीं है कि कॉरपोरेट घरानों से क़ानूनी तौर पर जो सैकड़ों करोड़ का चन्दा राजनीतिक पार्टियों को मिला उसमें से 89 प्रतिशत अकेले भाजपा को मिला है और शेष का बँटवारा अन्य सभी बुर्जुआ पार्टियों में हुआ है। (कहने की ज़रूरत नहीं कि पर्दे के पीछे दी जाने मदद का यह बहुत छोटा-सा हिस्सा है।) दूसरे, जब कोई क्रान्तिकारी वर्ग-राजनीति दमदार ढंग से मौजूद नहीं है, तो धर्मान्धता और अन्धराष्ट्रवाद सहित तमाम तरह के भावनात्मक मुद्दे उभाड़कर भाजपा का आगे निकल जाना स्वाभाविक है। इसके अलावा, फासिस्ट बुर्जुआ लोकतंत्र का इस्तेमाल करने के लिए हर तौर-तरीके, संविधान आदि को ताक पर रखकर, न केवल नौकरशाही और खुफिया तंत्र को बल्कि न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को भी अपना नौकर बना लेते हैं और किसी भी हद तक जाकर षडयंत्र और तीन-तिकड़म करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। ऐसी स्थिति में ईवीएम में गड़बड़ी और हैकिंग के जो आरोप हार्दिक पटेल ने तथ्यों सहित लगाये हैं, उन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता। 2002 में गुजरात में हुए क़त्लेआम के समय से ही ऐसे बहुत से शोध-अध्ययन हुए हैं जो यह बताते हैं कि किस तरह से भाजपा ने गुजरात के व्यापारियों, शहरी मध्य वर्ग और धनी किसानों के बीच मौजूद अपने सामाजिक आधार का विस्तार करने के लिए पिछले 25-30 वर्ष में आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों के एक बड़े हिस्से का साम्प्रदायीकरण किया है और इन तबकों के युवाओं के बीच से फासिस्ट गुण्डों की भरती की है। इस पहलू को भी भूलना नहीं चाहिए।
मोदीराज से निजात दिलाने के लिए कांग्रेस पर अपनी उम्मीद भरी नज़रें टिकाये और राहुल गाँधी को लेकर भाव-विह्वल हो रहे जनता से कटे सेकुलर और प्रगतिशील भद्रजन सबकुछ जानते हुए भी इस नंगी सच्चाई को भूल जाना चाहते हैं कि जिन नव-उदारवादी नीतियों ने हिन्दुत्ववादी फासीवाद के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार की है, उन्हें लागू करने की शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी और उसी ने उन्हें सबसे अधिक परवान चढ़ाया है। कांग्रेस बुर्जुआ वर्ग की मुख्य पार्टी रही है और आज भी दूसरे नम्बर का विकल्प है। उसीकी सरकार ने पूँजीपति वर्ग की ऐतिहासिक ज़रूरत के तौर पर उस वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करते हुए नव-उदारवादी नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया। अब इतिहास के चक्के को पीछे घुमाकर वह नेहरूवादी “समाजवाद” के राजकीय एकाधिकारी पूँजीवादी मॉडल और ‘’कल्याणकारी’’ राज्य के नुस्खों की ओर वापस नहीं जा सकती। वह भी यदि सत्ता में आयेगी तो इन्हीं आर्थिक नीतियों को दमनकारी ढंग से लागू करेगी और इससे पैदा हुए सामाजिक संकट का फ़ायदा उठाकर ज़मीनी तौर पर फासिस्ट शक्तियाँ अपना काम करती रहेंगी I यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस का सेकुलरिज्म हमेशा से विकृत-विकलांग और सड़ी खिचड़ी जैसा रहा है और धर्म का चुनावी कार्ड खेलने तथा कड़ी केसरिया लाइन के बरक्स नरम केसरिया लाइन अपनाने का काम कांग्रेस काफी पहले से करती आ रही है। राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने और बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय कांग्रेस सरकार की भूमिका से लेकर इस गुजरात चुनाव में राहुल गांधी द्वारा खुद को शिव-भक्त और जनेऊधारी ब्राह्मण घोषित करते हुए मन्दिर-मन्दिर घूमने तक का सिलसिला कांग्रेस की नरम केसरिया लाइन की राजनीति को एकदम नंगा कर देता है। लेकिन कांग्रेसी इस बात को नहीं समझ पाते कि भाजपा केवल अपनी केसरिया लाइन के कारण ही सफल नहीं होती है। मुख्य बात है कि उसके पास फासिस्ट पार्टी का एक कैडर-आधारित ढाँचा है और उसके पीछे एक घोर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन की शक्ति है जोकि कांग्रेस के पास न है, न हो सकती है।
भारत की संसदीय वाम पार्टियाँ ऐसी लुल्ल हो चुकी हैं कि कांग्रेस और विभिन्न क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों के साथ मोर्चा बनाकर चुनाव में भाजपा को हराने से आगे कुछ सोच ही नहीं पातीं। कांग्रेस की स्थिति की ऊपर चर्चा की जा चुकी है। जहाँ तक क्षेत्रीय बुर्जुआ दलों की बात है तो भाजपा का विरोध करते-करते उनमें से कब कौन उछलकर भाजपा की गोदी में जा चढ़ेगा, यह कोई नहीं बता सकता। भारत की संसदीय वाम पार्टियों का आचरण वैसा ही है जैसा 1920 और 1930 के दशक में संसदमार्गी काउत्स्कीपन्थी सामाजिक जनवादी पार्टियों का जर्मनी और पूरे यूरोप में था। वहाँ फासिस्ट जब सत्ता में आये तो संसदमार्गी सामाजिक जनवादियों को भी उन्होंने नहीं बख्शा। भारत के संसदीय वाम को यह बात याद रखनी होगी कि फासिज्म के कहर से वे खुद भी तभी बच सकते हैं जब चुनावी राजनीति और चवन्निया अर्थवादी कवायदों से अलग हटकर वे सडकों पर उतरें और मज़दूरों को फासीवाद के खिलाफ ज़मीनी जुझारू लड़ाई के लिए तैयार और संगठित करें। यदि वे ऐसा करें तो तमाम विचारधारात्मक मतभेदों के बावजूद क्रान्तिकारी वाम को उनके साथ मोर्चा बनाकर खड़ा होना चाहिए। पर इन पार्टियों के नेता,और अधिकांश कार्यकर्ता भी, अपना जुझारूपन, कर्मठता और कठोर जीवन की आदत इस क़दर खो चुके हैं कि उनसे इसकी उम्मीद कम ही लगती है I
यदि हम थोड़ा भी इतिहास को जानते-समझते हों, तो यह बात अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि फासीवाद से लड़ने का सवाल चुनावी जीत-हार का सवाल नहीं है। इस धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन का मुक़ाबला केवल एक जुझारू क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन ही कर सकता है।
इतिहास गवाह है कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से सचेतन और सक्रिय बनाये बिना फासीवादी लहर का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। चुनावी वाम दलों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया है, बल्कि उल्टे केवल आर्थिक लड़ाइयों और सौदेबाजियों में उलझाकर मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को बर्बाद करने का ही काम किया है। बिखरे हुए क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुप मज़दूरों में नगण्य प्रभाव रखते हैं और वे भी जुझारू अर्थवाद और स्वत:स्फूर्ततावाद में ही फँसे हुए हैं। उनका एक प्रभावी हिस्सा वाम दुस्साहसवाद में धँसा हुआ है, शेष भारतीय समाज की ग़लत समझ (नवजनवादी क्रांति की मंजिल की समझ) के आधार पर मालिक किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं, भूमि वितरण की पुरानी माँग पर क़ायम हैं और व्यवहारत: नरोदवादी आचरण कर रहे हैं। मज़दूर वर्ग उनके एजेण्डे पर है ही नहीं। जहाँ तक असंगठित मज़दूरों की भारी आबादी का सवाल है, उनमें किसी की पहुँच नहीं के बराबर है। इसका फासीवादियों को बहुत लाभ मिल रहा है।
कुल मिलाकर, भाजपा की चुनावी सफलताएँ भारतीय राजनीति में संघ परिवार की हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति के प्रचण्ड उभार का एक महत्वपूर्ण संकेतक है, लेकिन यह कत्तई नहीं समझा जाना चाहिए कि कांग्रेस और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ यदि तालमेल करके कुछ चुनावों में भाजपा को हरा दें या 2019 के आम चुनावों में जीतकर यदि कांग्रेस गठबन्धन फिर से केन्द्र में सत्तासीन हो जाये तो हिन्दुत्ववादी फासीवादी लहर को पीछे धकेल दिया जायेगा। बुर्जुआ संसदीय चुनावों में हराकर नहीं, बल्कि व्यापक मेहनतकश जन समुदाय को लामबन्द करके सड़कों पर आर-पार की लड़ाई में ही फासीवाद को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है।
भाजपा हिन्दुत्ववाद का मात्र संसदीय मोर्चा है। हिन्दुत्ववाद हर फासीवादी आन्दोलन की तरह एक धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है। यह मुख्यत: मध्य वर्ग का सामाजिक आन्दोलन है, जिसके साथ उत्पादन प्रक्रिया से कटे हुए विमानवीकृत मज़दूर भी खड़े हैं और जिसे बड़े-छोटे पूँजीपतियों और कुलकों-फार्मरों के बहुलांश का—यानी बुर्जुआ सत्ता के सभी छोटे-बड़े हिस्सेदारों के बहुलांश का समर्थन हासिल है। संघ परिवार का कैडर आधारित सांगठनिक ढाँचा इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का हरावल दस्ता है। इसका कारगर प्रतिरोध एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन ही कर सकता है जिस पर मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का वर्चस्व एक कैडर आधारित सांगठनिक ढाँचे के माध्यम से स्थापित हो। यह लड़ाई कैसी होगी इसे समझने के लिए यदि इसकी तुलना सामरिक संघर्ष से करें तो कहा जा सकता है कि यह छापामार युद्ध या चलायमान युद्ध जैसी न होकर मोर्चा बाँधकर लड़ी जाने वाली लड़ाई जैसी होगी। फासिस्टों ने विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के रूप में समाज में अपनी खन्दकें खोद रखी हैं और बंकर बना रखे हैं। हमें भी अपनी खन्दकें खोदनी होगी और बंकर बनाने होंगे। बेशक यह काम मेहनतकश जन समुदाय के राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ होगा और मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का केन्द्र यदि संगठित हो तो रणकौशल के तौर पर बुर्जुआ संसदीय चुनावों के मैदान में भी फासिस्टों से भिड़न्त की जा सकती है, लेकिन यह भ्रम पालना आत्मघाती होगा कि चुनावी हार-जीत से फासिस्टों को पीछे धकेला जा सकता है। मेहनतकश जन समुदाय (शहरों-गाँवों के सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा) के सभी हिस्सों का फासीवाद-विरोधी साझा मोर्चा आज की सर्वोपरि ज़रूरत है। इसके बाद ही निम्न मध्य वर्ग के रैडिकल, सेक्युलर तत्वों—विशेषकर छात्रों-युवाओं की जुझारू आबादी को, मज़बूती से साथ लिया जा सकेगा। बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा या बुर्जुआ वर्ग की कोई भी पार्टी फासीवाद विरोधी संघर्ष में मेहनतकश जनता का रणनीतिक मित्र नहीं हो सकती।
आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिर्फ़ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच अपना आधार मज़बूत बनाना होगा। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चौकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें एकजुट होकर लड़ने के लिए आगे आना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। लेकिन इसके लिए ज़रूरी हैं कि हम आसान उपायों के भ्रम से अपने को मुक्त करें और अपनी भरपूर ताक़त के साथ लड़ाई की तैयारी में जुट जायें।
मज़दूर बिगुल,अक्टूबर-दिसम्बर 2017
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