Category Archives: सम्‍पादकीय

बेहिसाब बढ़ती महँगाई सरकार की लुटेरी नीतियों का नतीजा है

महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों (चीज़ों) के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियन्‍त्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं। पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिज़नेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफाखोरी से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।

ऐतिहासिक मई दिवस से मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के नये दौर की शुरुआत

पिछली 1 मई को नई दिल्ली के जन्तर-मन्तर का इलाक़ा लाल हो उठा था। दूर-दूर तक मज़दूरों के हाथों में लहराते सैकड़ों लाल झण्डों, बैनर, तख्तियों और मज़दूरों के सिरों पर बँधी लाल पट्टियों से पूरा माहौल लाल रंग के जुझारू तेवर से सरगर्म हो उठा। देश के अलग-अलग हिस्सों से उमड़े ये हज़ारों मज़दूर ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन 2011 क़े आह्वान पर हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षरों वाला माँगपत्रक लेकर संसद के दरवाज़े पर अपनी पहली दस्तक देने आये थे।

एक नयी पहल! एक नयी शुरुआत! एक नयी मुहिम! मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफ़ानी जनान्दोलन बनाओ!

इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम की शक्तियों के बीच निर्णायक युद्ध होना ही है। मेहनतकशों के सामने नारकीय ग़ुलामी, अपमान और बेबसी की ज़िन्दगी से निज़ात पाने का मात्र यही एक रास्ता है। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी भूलकर और पिछली हारों से ज़रूरी सबक लेकर एक नयी लड़ाई शुरू करनी होगी और जीत का भविष्य अपने हाथों गढ़ना होगा। शुरुआत पूँजीवादी हुकूमत के सामने अपनी सभी राजनीतिक माँगों को चार्टर के रूप में रखने से होगी। मज़दूरों को भितरघातियों, नकली मज़दूर नेताओं और मौक़ापरस्तों से होशियार रहना होगा। रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति स्वयं मेहनतकश का काम है।

पूँजीपतियों और खाते-पीते मध्यवर्ग को ख़ुश करने वाला एक और ग़रीब-विरोधी बजट

उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के पिछले दो दशकों में बजट का कोई ख़ास मतलब नहीं रह गया है। सरकारें बजट के बाहर जाकर पूँजीपतियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली ढेर सारी योजनाएँ और नीतियों में बदलाव लागू करती रहती हैं। कई महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलावों की घोषणा तो सीधे फ़िक्की, एसोचैम या सीआईआई जैसी पूँजीपतियों की संस्थाओं के मंचों से कर दी जाती है। इस मामले में संसदीय वामपंथियों सहित किसी चुनावी पार्टी को कोई परेशानी नहीं होती है। फिर भी बजट से सरकार की मंशा और नीयत तो पता चल ही जाती है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष के बजट और उस पर संसद में हुई नौटंकीभरी चर्चा ने भी साफ़ कर दिया है कि पूँजीपतियों की चाकरी में जुटे देश के हुक़्मरान समझते हैं कि मेहनतकशों की हड्डी-हड्डी निचोड़कर देशी-विदेशी लुटेरों के आगे परोसने का उनका यह खेल बदस्तूर चलता रहेगा और लोग चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे। मिस्र, ट्यूनीशिया और पूरे अरब जगत में लगी आग से लगता है उन्होंने कोई सबक़ नहीं सीखा है।

मज़दूरों और नौजवानों के विद्रोह से तानाशाह सत्ताएँ ध्वस्त

हर ऐसे विद्रोह के बाद ज़नता की राजनीतिक पहलकदमी खुल जाती है और वह चीज़ों पर खुलकर सोचने और अपना रुख तय करने लगती है। यह राजनीतिक उथल-पुथल भविष्य में नये उन्नत धरातल पर वर्ग संघर्ष की ज़मीन तैयार करती है। इसके दौरान ज़नता वर्ग संघर्ष में प्रशिक्षित होती है और आगे की लड़ाई में ऐसे अनुभवों का उपयोग करती है। मिस्र के मज़दूर आन्दोलन में भी आगे राजनीतिक स्तरोन्नयन होगा और मुबारक की सत्ता के पतन के बाद जो थोड़े सुधार और स्वतन्त्रता हासिल होंगे, वे मज़दूर आन्दोलन को तेज़ी से आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होंगे। लेनिन ने कहा था कि बुर्जुआ जनवाद सर्वहारा राजनीति के लिए सबसे अनुकूल ज़मीन होता है। जिन देशों में निरंकुश पूँजीवादी सत्ताओं की जगह सीमित जनवादी अधिकार देने वाली सत्ताएँ आयेंगी, वहाँ सर्वहारा राजनीति का भविष्य उज्ज्वल होगा। इस रूप में पूरे अरब विश्व में होने वाले सत्ता परिवर्तन यदि क्रान्ति तक नहीं भी पहुँचते तो अपेक्षाकृत उन्नत वर्ग संघर्षों की ज़मीन तैयार करेंगे। हम अरब विश्व के जाँबाज़ बग़ावती मज़दूरों, नौजवानों और औरतों को बधाई देते हैं और उनकी बहादुरी को सलाम करते हैं! हमें उम्मीद है कि यह उनके संघर्ष का अन्त नहीं, बल्कि महज़ एक पड़ाव है और इससे आगे की यात्रा करने की ऊर्जा और समझ वे जल्दी ही संचित कर लेंगे।

21वीं सदी के पहले दशक का समापन : मजदूर वर्ग के लिए आशाओं के उद्गम और चुनौतियों के स्रोत

साफ नजर आ रहा है कि पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अपने अन्तकारी संकट से जूझ रही है और हर बीतते वर्ष के साथ उसका आदमख़ोर और मरणासन्न चरित्र और भी स्पष्ट तौर पर नजर आने लगा है। पूँजीवाद की अन्तिम विजय को लेकर जो दावे और भविष्यवाणियाँ की जा रही थीं, वे अब चुटकुला बन चुकी हैं। दुनियाभर में कम्युनिज्म और मार्क्‍सवाद की वापसी की बात हो रही है। बार-बार यह बात साफ हो रही है कि दुनिया को विकल्प की जरूरत है और पूँजीवाद इतिहास का अन्त नहीं है। आज स्वत:स्फूर्त तरीके से दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर सड़कों पर उतर रहे हैं। कहीं पर नौसिखुए नेतृत्व में, तो कहीं बिना नेतृत्व के वे समाजवाद के आदर्श की ओर फिर से देख रहे हैं। जिन देशों में समाजवादी सत्ताएँ पतित हुईं, वहाँ का मजदूर आज फिर से लेनिन, स्तालिन और माओ की तस्वीरें लेकर सड़कों पर उतर रहा है। वह देख चुका है कि पूँजीवाद उसे क्या दे सकता है। यह सच है कि पूरी दुनिया में अभी भी श्रम की शक्तियों पर पूँजी की शक्तियाँ हावी हैं और मजदूर वर्ग की ताकत अभी बिखराव और अराजकता की स्थिति में है। लेकिन इसका कारण पूँजीवाद की शक्तिमत्ता नहीं है। इसका कारण मजदूर वर्ग के आन्दोलन की अपनी अन्दरूनी कमजोरियाँ हैं। लगातार संकटग्रस्त पूँजीवाद आज महज अपनी जड़ता की ताकत से टिका हुआ है।

नेता, अफसर, जज, मीडियाकर्मी – लूटपाट, कमीशनख़ोरी में कोई पीछे नहीं

मौजूदा नवउदारवादी दौर में तमाम बुर्जुआ जनवादी मूल्यों-आदर्शों के छिलके पूँजीवाद के शरीर से स्वत: उतर गये हैं। सरकार खुले तौर पर पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में कार्यरत दीख रही है। कमीशनख़ोरी, दलाली, लेनदेन – सबकुछ पूँजी के ‘खुला खेल फर्रुख़ाबादी’ का हिस्सा मान जाने लगा है। 2010 में घपलों-घोटालों का जो घटाटोप सामने आया है, वह पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत आर्थिक संकट और उसके गर्भ से उपजे राजनीतिक-सांस्कृतिक-नैतिक संकट की एक अभिव्यक्ति है, परिणाम है और लक्षण है।

हम अब और तमाशबीन नहीं बने रह सकते! एक ही रास्ता-मज़दूर इंक़लाब! मज़दूर सत्ता!

क्या हम इस बर्बर ग़ुलामी को स्वीकार कर लेंगे? क्या पूरी तरह नग्न हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था को हम अपने आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करने देंगे? क्या हम अपनी ही बर्बादी के तमाशबीन बने रहेंगे? या फिर हम उठ खड़े होंगे और मुनाफे की अन्धी हवस पर टिकी इस मानवद्रोही,आदमख़ोर व्यवस्था को तबाहो-बर्बाद कर देंगे? या फिर हम संगठित होकर इस अन्याय और असमानता का ख़ात्मा करने और न्याय और समानता पर आधारित एक नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने की तैयारियाँ करने में जुट जायेंगे?या फिर हम एक मज़दूर इन्कलाब के लिए एक इन्कलाबी पार्टी के निर्माण में लग जायेंगे?

भोपाल हत्याकाण्ड : कटघरे में है पूरी पूँजीवादी व्यवस्था

भोपाल की घटना बार-बार यह याद दिलाती है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की अन्धी हवस में पागल पूँजीपतियों के लिए इंसान की जिन्दगी का कोई मोल नहीं होता। पूँजीवाद युद्ध के दिनों में हिरोशिमा और नागासाकी को जन्म देता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसी त्रासदियों को। यह पर्यावरण को तबाह करके पूरी पृथ्वी को विनाश की ओर धकेल रहा है। इस नरभक्षी व्यवस्था का एक-एक दिन मनुष्यता पर भारी है। इसे जल्द से जल्द मिट्टी में मिलाकर ही धरती और इंसानियत को बचाया जा सकता है। और यह जिम्मेदारी इतिहास ने मजदूर वर्ग के कन्‍धों पर सौंपी है।

मई दिवस का सन्देश – स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प को फौलाद बनाओ! संघर्ष को सही दिशा दो!

जब तक लोग कुछ सपनों और आदर्शों को लेकर लड़ते रहते हैं, किसी ठोस, न्यायपूर्ण मकसद को लेकर लड़ते रहते हैं, तब तक अपनी शहादत की चमक से राह रोशन करने वाले पूर्वजों को याद करना उनके लिए रस्म या रुटीन नहीं होता। यह एक जरूरी आपसी, साझा, याददिहानी का दिन होता है, इतिहास के पन्नों पर लिखी कुछ धुँधली इबारतों को पढ़कर उनमें से जरूरी बातों की नये पन्नों पर फिर से चटख रोशनाई से इन्दराजी का दिन होता है, अपने संकल्पों से फिर नया फौलाद ढालने का दिन होता है।