मज़दूरों के बारे में एक भोजपुरी गीत
मजदुरवन क भइया केहुना सुनवइया।
ये ही लोधियनवा क हव अइसन मालिक।
मज़दूरी मँगले पर देई देल गाली।
मिली जुली के करा तु इनकर सफइया।
मजदुरवन क भइया केहु ना सुनवइया।
मजदुरवन क भइया केहुना सुनवइया।
ये ही लोधियनवा क हव अइसन मालिक।
मज़दूरी मँगले पर देई देल गाली।
मिली जुली के करा तु इनकर सफइया।
मजदुरवन क भइया केहु ना सुनवइया।
झुग्गियों के जीवन की असली तस्वीर पेश करने के बावजूद यह फ़िल्म झुग्गी में रहने वालों की समस्याओं के बारे में नहीं है। इसके बजाय, यह झूठ के बारे में है कि यह व्यवस्था हरेक को इतना मौक़ा देती है कि एक झुग्गीवाला भी करोड़पति बनने की उम्मीद पाल सकता है। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, सच्चाई से इसका नाता ख़त्म हो जाता है। सच तो यह है कि भारत में झुग्गियों का कोई निवासी सिर्फ़ अपराध की दुनिया में जाकर ही 1 करोड़ रुपये कमाने की बात सोच सकता है। अगर क़िस्मत से उसकी लॉटरी लग ही जाये, जैसाकि फ़िल्म में दिखाया गया है, तो भी इससे भारत की झुग्गियों में रहने वाले करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा जो अब भी इन्सान की तरह जीने के लिए ज़रूरी सुविधाओं से वंचित हैं। सच्चा कलाइमेक्स तो यह होगा कि करोड़ों झुग्गीवासियों की ज़िन्दगी को मानवीय बनाने के लिए व्यवस्था में बदलाव किया जाये न कि करोड़पति बनने के झूठे सपने दिखाये जायें। कई मामलों में यह फ़िल्म उसी पूँजीवादी सोच को पेश करती है जो देश में करोड़पतियों की बढ़ती तादाद पर जश्न मनाती है लेकिन इस तथ्य की अनदेखी करती है कि करोड़ों लोग नर्क जैसे हालात में जी रहे हैं। आज के भारत की ही तरह, यह फ़िल्म भी इन्सान बनने के संघर्ष की प्रेरणा देने के बजाय करोड़पति बनने की झूठी आशा जगाती है। हम चाहें या न चाहें, सच तो यह है कि भारत करोड़ों “स्लमडॉग” और मुट्ठीभर करोड़पतियों का देश है।
गोर्की ने अपने जीवन और लेखन से सिद्ध कर दिया कि दर्शन और साहित्य विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़े-लिखे विद्वानों की बपौती नहीं है बल्कि सच्चा साहित्य आम जनता के जीवन और लड़ाई में शामिल होकर ही लिखा जा सकता है। उन्होंने अपने अनुभव से यह जाना कि अपढ़, अज्ञानी कहे जाने वाले लोग ही पूरी दुनिया के वैभव के असली हक़दार हैं। आज एक बार फिर साहित्य आम जन से दूर होकर महफ़िलों, गोष्ठियों यहाँ तक कि सिर्फ़ लिखने वालों तक सीमित होकर रह गया है। आज लेखक एक बार फिर समाज से विमुख होकर साहित्य को आम लोगों की ज़िन्दगी की चौहद्दी से बाहर कर रहा है।
नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजेय आत्मा को,
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे
हमारी अजेय आत्मा को
आज भी वह संघर्षरत है
नित-निरन्तर
उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं
बिल्कुल हमारी ही तरह!
आखि़र हम अस्पताल पहुँचे। कोलुशा पलंग पर पड़ा पट्टियों का बण्डल मालूम होता था। वह मेरी ओर मुस्कुराया, और उसके गालों पर आँसू ढुरक आये…. फिर फुसफुसाकर बोला – ‘मुझे माफ़ करना, माँ। पैसा पुलिसमैन के पास है।’ ‘पैसा….कैसा पैसा? यह तुम क्या कह रहे हो?’ मैंने पूछा। ‘वही, जो लोगों ने मुझे सड़क पर दिया था और आनोखिन ने भी’, उसने कहा। ‘किसलिए?’ मैंने पूछा। ‘इसलिए’, उसने कहा और एक हल्की-सी कराह उसके मुँह से निकल गयी। उसकी आँखें फटकर ख़ूब बड़ी हो गयीं, कटोरा जितनी बड़ी। ‘कोलुशा’, मैंने कहा – ‘यह कैसे हुआ? क्या तुम घोड़ों को आता हुआ नहीं देख सके?’ और तब वह बोला, बहुत ही साफ़ और सीधे-सीधे, ‘मैंने उन्हें देखा था, माँ, लेकिन मैं जान-बूझकर रास्ते में से नहीं हटा। मैंने सोचा कि अगर मैं कुचला गया तो लोग मुझे पैसा देंगे। और उन्होंने दिया।’ ठीक यही शब्द उसने कहे। और तब मेरी आँखें खुलीं और मैं समझी कि उसने – मेरे फ़रिश्ते ने – क्या कुछ कर डाला है। लेकिन मौका चूक गया था। अगली सुबह वह मर गया। उसका मस्तिष्क अन्त तक साफ़ था और वह बराबर कहता रहा – ‘दद्दा के लिए यह ख़रीदना, वह ख़रीदना और अपने लिए भी कुछ ले लेना।’ मानो धन का अम्बार लगा हो। वस्तुतः वे कुल सैंतालीस रूबल थे। मैं सौदागर आनोखिन के पास पहुँची, लेकिन उसने मुझे केवल पाँच रूबल दिये, सो भी भुनभुनाते हुए। कहने लगा – ‘लड़का ख़ुद जान-बूझकर घोड़ों के नीचे आ गया। पूरा बाज़ार इसका साक्षी है। सो तुम क्यों रोज़ आ-आकर मेरी जान खाती हो? मैं कुछ नहीं दूँगा।’ मैं फिर कभी उसके पास नहीं गयी। इस प्रकार वह घटना घटी, समझे युवक!
माओ ने यह सुप्रसिद्ध कविता उस समय लिखी थी जब चीन में पार्टी के भीतर मौजूद पूंजीवादी पथगामियों (दक्षिणपंथियों को यह संज्ञा उसी समय दी गई थी) के विरुद्ध एक प्रचण्ड क्रान्ति के विस्फोट की पूर्वपीठिका तैयार हो रही थी। महान समाजवादी शिक्षा आन्दोलन के रूप में संघर्ष स्पष्ट हो चुका था। युद्ध की रेखा खिंच गई थी। यह 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वबेला थी जिसने पूंजीवादी पथगामियों के बुर्जुआ हेडक्वार्टरों पर खुले हमले का ऐलान किया था। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने पहली बार सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत क्रान्ति और अधिरचना में क्रान्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और इसे पूंजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का एकमात्र उपाय बताते हुए समाजवाद संक्रमण की दीर्घावधि के लिए एक आम कार्यदिशा दी। इसके सैद्धान्तिक सूत्रीकरणों की प्रस्तृति 1964.65 में ही की जाने लगी थी।
इसके पहले के किसी भी उपन्यास में किसी औद्योगिक संघर्ष का इतना विस्तृत और प्रामाणिक चित्रण नहीं मिलता । यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी में भी ऐसे गिने–चुने उपन्यास ही देखने को मिलते हैं जो इस मायने में ‘उम्मीद है, आएगा वह दिन’ के आसपास ठहरते हों ।
पथ पर
चलते रहो निरन्तर
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है।
गत स्वप्न हो
पथिक
चरण-ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरन्तर
भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की.
“कल्पना करो, लोहे की मोटी दीवारों वाला मकान है। न कोई दरवाजा है और न खिड़की या रोशनदान। वायु के लिए कोई मार्ग नहीं है। दीवारें बिल्कुल दुर्भेद्य हैं। मकान में बहुत से लोग बेसुध सोये हुए हैं। निश्चय ही वे लोग दम घुटकर मर जायेंगे। परन्तु बेसुधी से मरेंगे इसलिए उन्हें कोई कष्ट अनुभव नहीं होगा। तुम चीख–चिल्लाकर उन्हें जगाना चाहो तो संभव है कुछ एक की नींद उचट भी जाये। दम घुटने से उनकी मृत्यु निश्चित है। यदि कुछ अभागे जाग जायें और निश्चित मृत्यु की यातना अनुभव करें तो इससे उनका क्या भला होगा?”