झुग्गीवालों की कहानी पर कोठीवाले मस्त! या इलाही ये माजरा क्या है?
सत्यप्रकाश
‘स्लमडॉग मिलेनायर’ फिल्म को दुनियाभर के पूँजीवादी मीडिया ने हाथोंहाथ लिया। जिस फ़िल्म को कुछ महीने पहले किसी देश में कोई वितरक दिखाने को तैयार नहीं था और केवल डीवीडी पर रिलीज़ करने की तैयारी थी, अचानक उस पर इनामों की बारिश होने लगी। जो झुग्गियाँ खाते-पीते मध्यवर्ग और ऊँचे तबके के लोगों को शहर पर “बदनुमा दाग़” जैसी लगती हैं, जिन पर बुलडोज़र चलवाकर उनमें रहने वाले मेहनतकश लोगों को शहरों के बाहरी सिरे पर धकेला जा रहा है, वे अचानक इतनी प्रिय कैसे हो गयीं कि सारे टीवी चैनल और अखबार झुग्गीवालों की इस कहानी पर फ़िदा हो गये?
अगर इस फ़िल्म के सन्देश को देखा जाये और दुनिया के हालात पर एक नज़र डाली जाये, तो झुग्गीवालों पर उमड़ते पूँजीवादी दुनिया के इस प्यार को समझना कठिन नहीं होगा।
फिल्म यह सन्देश देती है कि भयंकर बदहाली, अत्याचार, नारकीय हालात में रहते हुए भी ग़रीबों को इस व्यवस्था के भीतर ही अमीर बन जाने का सपना देखना नहीं छोड़ना चाहिए। रोज़-रोज़ शोषण, अभाव और अपमान की ज़िन्दगी जीते हुए भी उन्हें यह उम्मीद पाले रखनी चाहिए कि एक न दिन इसी व्यवस्था के भीतर उनकी किस्मत का ताला खुल जायेगा और उनके दुख-दर्द दूर हो जायेंगे। फिल्म दिखाती है कि एक झुग्गी में रहने वाला बच्चा टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जीतकर करोड़पति बन जाता है। ढेरों अतार्किक परिस्थितियों और ग़लत तथ्यों से भरी यह फिल्म कला के नज़रिये से भी बेहद लचर है। झुग्गियों की ज़िन्दगी को इससे बेहतर ढंग से तो कई बॉलीवुड की फिल्में दिखा चुकी हैं।
2003 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की कुल शहरी आबादी का एक तिहाई यानी एक अरब से ज़्यादा लोग झुग्गियों में रह रहे थे। शहरों के फुटपाथों, पुलों के नीचे, स्टेशनों पर, रैनबसेरों में रहने वालों को भी जोड़ लिया जाये तो संख्या और भी ज़्यादा हो जायेगी। उसी रिपोर्ट में कहा गया था कि जिस रफ्तार से गाँवों से उजड़कर लोग शहरों में आकर बस रहे हैं उसे देखते हुए 2025 तक झुग्गियों में रहने वालों की तादाद दोगुनी हो जायेगी। देशों की राजधानियों और महानगरों के इर्दगिर्द फैल रही इन झुग्गियों में रहने वाले पूँजी की दुनिया के मालिकों को ज़रूरत भी हैं और इनकी बढ़ती तादाद से उन्हें डर भी लग रहा है। उन्हें अपने कारख़ानों के लिए सस्ते मज़दूर चाहिए, अपने घरों में काम करने वाले नौकर-चाकर चाहिए, शहर की तमाम सारी ज़रूरतें पूरी करने वाले मेहनतकश चाहिए, इसलिए झुग्गियाँ तो बढ़ती रहेंगी। लेकिन साथ ही पूँजी की दुनिया के हित में दूर तक सोचने वालों को लगातार यह डर सता रहा है कि बर्बर शोषण, अमानवीय हालात और बदहाली में जीने वाली यह आबादी अगर लूट के इस राज के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई तो क्या होगा! दुनिया के बहुत से शहरों में बीच-बीच में फूट पड़ने वाले ग़रीबों के आन्दोलन उनके इस डर को और बढ़ा देते हैं। वे अच्छी तरह समझते हैं कि ग़रीब मेहनतकशों की यह विशाल आबादी बारूद के ढेर की तरह है जो अगर फट पड़ा तो ग़रीबी के महासागरों के बीच बसे ऐशो-आराम के उनके टापू हवा में उड़ जायेंगे।
इसीलिए, ग़रीबों के दिलों में सुलगती बग़ावत की आँच पर पानी के छींटे डालने की कोशिशें तेज़ हो गयी हैं। विश्व बैंक से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक शहरी ग़रीबों के बारे में चिन्तित हो उठे हैं। जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनरुद्धार योजना जैसी स्कीमें दुनिया के कई देशों में लागू की जा रही हैं। ‘स्लमडॉग मिलेनायर’ को आसमान पर चढ़ाने के पीछे भी यही कोशिश है कि ग़रीबों को भरोसा दिलाया जाये कि नरक के दासों जैसी अपनी ज़िन्दगी से मुक्ति पाने के लिए उन्हें इस लूटतंत्र के ख़िलाफ़ विद्रोह के बारे में नहीं सोचना चाहिए। सिर झुकाकर अपना काम करते रहना चाहिए, लुटते-पिटते हुए हर हाल में खुश रहना चाहिए और उम्मीद करते रहना चाहिए कि किसी दिन उनकी भी लॉटरी लग जायेगी और वे भी “झुग्गी के कुत्ते” से करोड़पति बन जायेंगे। उनके बच्चों को अपराधी गिरोह भिखारी बनाने के लिए उठाते रहेंगे, उनके अंगों को निकालकर बेचते रहेंगे, पागल अमीरों की हवस पूरी करने के लिए उनके बच्चो-बच्चियों का अपहरण करते रहेंगे, लेकिन उन्हें इस बर्बर व्यवस्था को आग लगा देने के बजाय इसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए – क्योंकि इन अनुभवों से गुज़रते हुए बच्चे बहुत-सी ऐसी बातें सीख जायेंगे जो आगे चलकर करोड़पति बनने में उनके काम आयेंगी।
यही है इस दो कौड़ी की फिल्म का सन्देश और यही है इसके महिमामण्डन का राज़।
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“वर्ष 2030 तक दुनिया में शहरों की आबादी 5 अरब तक पहुँच जायेगी। इसका दो तिहाई से भी अधिक हिस्सा शहरी ग़रीबों का होगा। सभी देशों की सरकारों को इस समस्या को गम्भीरता से लेना होगा, वरना उन्हें गम्भीर सामाजिक असन्तोष और उथल-पुथल का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।”
– शहरीकरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट, 2003
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बिगुल, अप्रैल 2009
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