Category Archives: कला-साहित्‍य

सच्चाई को ख़ून की नदियों में भी नहीं डुबोया जा सकता – मक्सिम गोर्की के उपन्‍यास माँ का एक अंश

ग़रीबी, भूख और बीमारी – लोगों को अपनी मेहनत के बदले यही मिलता है! हर चीज़ हमारे खि़लाफ़ है – ज़िन्दगी-भर हम रोज़ अपनी रत्ती-रत्ती शक्ति अपने काम में खपा देते हैं, हमेशा गन्दे रहते हैं, हमेशा बेवक़ूफ़ बनाये जाते हैं और दूसरे हमारी मेहनत का सारा फ़ायदा उठाते हैं और ऐश करते हैं, वे हमें जंजीर में बँधे हुए कुत्तों की तरह जाहिल रखते हैं – हम कुछ भी नहीं जानते, वे हमें डराकर रखते हैं – हम हर चीज़ से डरते हैं! हमारी ज़िन्दगी एक लम्बी अँधेरी रात की तरह है!

कविता – आठ हजार गरीब लोगों का नगर के बाहर इकट्ठा होना : बर्तोल्त ब्रेख्त

जनरल ने अपनी खिड़की से देखा
तुम यहां मत खड़े हो, वह बोला
घर चले जाओ भले लोगों की तरह
अगर तुम्‍हें कुछ चाहिए, तो लिख भेजो।
हम रुक गये, खुली सड़क पर:
‘हम हल्‍ला मचायें इसके पहले
वे हमें खिला देंगे।’
लेकिन किसी ने ध्‍यान नहीं दिया
जबकि हम देखते रहे उनकी धुंवा देती
चिमनियों को।

कविता – जनता की रोटी : बर्तोल्त ब्रेख्त Poem – The bread of the people : Bertolt Brecht

इंसाफ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब दोस्तों कौन उसे पकाएगा?
दूसरी रोटी कौन पकाता है?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज-ब-रोज।

कविता – जल्द -जल्द पैर बढ़ाओ ,आओ ,आओ ! / सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधरे का ताला,
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ|

कविता – तोड़ती पत्थर / सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

कविता – राजे ने अपनी रखवाली की / सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं ।
चापलूस कितने सामन्त आए ।

कविता – धीरे-धीरे आगे बढ़ती है / जेम्‍स कोनाली

अपनी देह और आत्‍मा में जकड़ी हुई
सदियों की बे‍ड़ि‍यों को तोड़ने के लिए उठ खड़ी
उन औरतों का प्रयास
आजादी की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है
मज़दूर वर्ग को अवश्‍य ही देना चाहिए साधुवाद
और जोरदार होनी चाहिए
उनकी वाहवाही
अगर दासता के खिलाफ उनकी नफरत और उमंग आजादी की ओर बढ़ती है धीरे-धीेरे
औरतों की सेना
लड़ाकू मज़दूरों की सेना के आगे-आगे।

कविता – 7 नवम्‍बर : जीतों के दिन की शान में गीत / पाब्लो नेरूदा

आज के दिन तुम्‍हें शुभकामनाएँ देता हूँ सोवियत संघ,
विनम्रता के साथ: मैं एक लेखक हूँ और एक कवि ।
मेरे पिता रेल मज़दूर थे : हम हमेशा ग़रीब रहे ।
कल मैं तुम्‍हारे साथ था, बहुत दूर, भारी बारिशों वाले
अपने छोटे से देश में । वहाँ तुम्‍हारा नाम
तपकर लाल हो गया, लोगों के दिलों में जलते-जलते
जब तक कि वह मेरे देश के ऊँचे आकाश को छूने नहीं लगा ।

कविता – सीखो दोस्तो सीखो! / बर्तोल्त ब्रेख्त (अनुवाद राजेंद्र मंडल)

सीखो दोस्तो सीखो, सीखो दोस्तो सीखो!
बुनियाद से, बुनियाद से, बुनियाद से!
बुनियाद से शुरु करो
तुमको अगुआ है बनना!

कहानी – पारमा के बच्चे / मक्सिम गोर्की Story – Childrens of Parma / Maxim Gorky

भीड़ ने भविष्य के इन लोगों का बेहद शोर मचाते हुए स्वागत किया, उनके सम्मुख झण्डे झुका दिये गये। बच्चों की आँखों को चौंधियाते और कानों को बहरे करते हुए बाजे खूब जोरों से बज उठे। ऐसे जोरदार स्वागत से तनिक स्तम्भित होकर घड़ी भर को वे पीछे हटे किन्तु तत्काल ही सँभल गये, मानो लम्बे हो गये, घुल-मिलकर एक शरीर बन गये और सैकड़ों कण्ठों से, किन्तु मानो एक ही छाती से निकलती आवाज में चिल्ला उठेः

“इटली ज़िन्दाबाद!”

“नव पारमा नगर ज़िन्दाबाद!” बच्चों की ओर दौड़ती हुई भीड़ ने ज़ोरदार नारा लगाया।