कविता – जल्द -जल्द पैर बढ़ाओ ,आओ ,आओ ! / सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधरे का ताला,
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ|
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला,
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधरे का ताला,
एक पाठ पढेंगे, टाट बिछाओ|
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं ।
चापलूस कितने सामन्त आए ।
अपनी देह और आत्मा में जकड़ी हुई
सदियों की बेड़ियों को तोड़ने के लिए उठ खड़ी
उन औरतों का प्रयास
आजादी की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है
मज़दूर वर्ग को अवश्य ही देना चाहिए साधुवाद
और जोरदार होनी चाहिए
उनकी वाहवाही
अगर दासता के खिलाफ उनकी नफरत और उमंग आजादी की ओर बढ़ती है धीरे-धीेरे
औरतों की सेना
लड़ाकू मज़दूरों की सेना के आगे-आगे।
आज के दिन तुम्हें शुभकामनाएँ देता हूँ सोवियत संघ,
विनम्रता के साथ: मैं एक लेखक हूँ और एक कवि ।
मेरे पिता रेल मज़दूर थे : हम हमेशा ग़रीब रहे ।
कल मैं तुम्हारे साथ था, बहुत दूर, भारी बारिशों वाले
अपने छोटे से देश में । वहाँ तुम्हारा नाम
तपकर लाल हो गया, लोगों के दिलों में जलते-जलते
जब तक कि वह मेरे देश के ऊँचे आकाश को छूने नहीं लगा ।
सीखो दोस्तो सीखो, सीखो दोस्तो सीखो!
बुनियाद से, बुनियाद से, बुनियाद से!
बुनियाद से शुरु करो
तुमको अगुआ है बनना!
भीड़ ने भविष्य के इन लोगों का बेहद शोर मचाते हुए स्वागत किया, उनके सम्मुख झण्डे झुका दिये गये। बच्चों की आँखों को चौंधियाते और कानों को बहरे करते हुए बाजे खूब जोरों से बज उठे। ऐसे जोरदार स्वागत से तनिक स्तम्भित होकर घड़ी भर को वे पीछे हटे किन्तु तत्काल ही सँभल गये, मानो लम्बे हो गये, घुल-मिलकर एक शरीर बन गये और सैकड़ों कण्ठों से, किन्तु मानो एक ही छाती से निकलती आवाज में चिल्ला उठेः
“इटली ज़िन्दाबाद!”
“नव पारमा नगर ज़िन्दाबाद!” बच्चों की ओर दौड़ती हुई भीड़ ने ज़ोरदार नारा लगाया।
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है।
तेरे हृास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
किसके माथे से गुलामी की सियाही छुटी ?
मेरे सीने मे दर्द है महकुमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही
कौन आज़ाद हुआ ?