कविता – मसखरा / कविता कृष्णपल्लवी
मसखरा सिंहासन पर बैठा
तरह-तरह के करतब दिखाता है
दरबारी हँसते हैं तालियाँ पीट-पीटकर
और डरे हुए भद्र नागरिक उनका साथ देते हैं।
मसखरा सिंहासन पर बैठा
तरह-तरह के करतब दिखाता है
दरबारी हँसते हैं तालियाँ पीट-पीटकर
और डरे हुए भद्र नागरिक उनका साथ देते हैं।
आँखों से अन्धराष्ट्रवाद का चश्मा उतारकर सच्चाइयों को देखने की ज़रूरत है । भारत और पाकिस्तान की जनता के असली दुश्मन उनके सर पर बैठे हैं । भारत का शासक पूँजीपति वर्ग भारतीय जनता का उतना ही बड़ा दुश्मन है जितना पाकिस्तानी पूँजीपति वर्ग पाकिस्तानी जनता का। अन्धराष्ट्रवाद की लहर दोनों देशों की जनता का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाती है ।
शनिवार एवं रविवार के दो सत्रों में ‘जायनवाद और फिलिस्तीनी प्रतिरोधः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, चुनौतियां और संभावनाएं’ एवं ‘मध्य-पूर्व का नया साम्राज्यवादी खाका और फिलिस्तीनी मुक्ति का सवाल’ विषयों पर कई प्रतिष्ठित वक्ताओं ने इजरायल की नस्लभेदी नीतियों एवं उसके द्वारा फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जे की कोशिशों की कठोरशब्दों में भर्त्सना की । कन्वेंशन में यह भी महसूस किया गया कि भारतीय सरकार ने फिलिस्तीनियों के लक्ष्य के साथ विश्वासघात किया है और वह अब जायनवादी राज्य की सबसे बड़ी समर्थक बन चुकी है जिसने सभी अन्तरराष्ट्रीय कानूनों को धता बातते हुए रखकर फिलिस्तीनी लोगों के खिलाफ अपना पागलपन भरा जनसंहारक अभियान जारी रखा है।
इतना तय है कि ऐसे तमाम प्रतिक्रियावादियों से सड़कों पर मोर्चा लेकर ही काम किया जा सकता है। इनसे भिडंत तो होगी ही। जिसमें यह साहस होगा वही भगतसिंह की राजनीतिक परम्परा की बात करने का हक़दार है, वर्ना गोष्ठियों-सेमिनारों में बौद्धिक बतरस तो बहुतेरे कर लेते हैं
उत्तर-पश्चिमी दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में संघ परिवार बड़े ही सुनियोजित ढंग से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और तनाव को गहरा बनाने के लिए काम कर रहा है। हाल के एक वर्ष के दौरान मज़दूर इलाक़ों के लगभग सभी पार्कों में संघ की शाखाएँ लगने लगी हैं और झुग्गी बस्तियों के मुस्लिम परिवारों को निशाना बनाकर साम्प्रदायिक ज़हर फैलाने का काम लगातार जारी है। इन हिन्दुतत्ववादियों के गिरोहों में छोटे ठेकेदारों, दलालों, दुकानदारों, मकान मालिकों के परिवारों के युवाओं के अतिरिक्त मज़दूर बस्तियों के लम्पट और अपराधी तत्व भी शामिल होते हैं।
जापानी कम्पनियाँ मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने में कितनी बेरहम होती हैं, श्रम कानूनों को किस प्रकार वे ताक पर धर देती हैं और इन कम्पनियों के हड़ताली मज़दूरों को कुचलने में भारत सरकार किस प्रकार बर्बर दमन का रुख अपनाकर जापानी साम्राज्यवाद की सेवा करती है, यह पिछले वर्षों होण्डा, मारुति और कई अन्य जापानी कम्पनियों में चले मज़दूर संघर्षों के दौरान देखा जा चुका है। आने वाले दिनों में मज़दूरों के अतिशोषण और विरोध में उठने वाली हर आवाज़ के बर्बर दमन का पुख्ता इंतजाम मोदी सरकार कर चुकी है और मोदी टोक्यो जाकर इसकी पक्की गारण्टी भी दे आये हैं।
किसी भी देश की विदेश नीति हमेशा उसकी आर्थिक नीतियों के ही अनुरूप होती है। पश्चिमी साम्राज्यवादी पूँजी के लिए पलक पाँवड़े बिछाने वाली धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्टों की सरकार से यही अपेक्षा थी कि वे ज़ियनवादी हत्यारों का साथ दें। उन्होंने अपना पक्ष चुन लिया है और हमने भी। जो इंसाफ़पसन्द नागरिक अबतक चुप हैं, वे सोचें कि आने वाली नस्लों को, इतिहास को और अपने ज़मीर को वे क्या जवाब देंगे।
श्रीलंका का मज़दूर वर्ग यदि स्वयं अपने अनुभव से संसदवाद, अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से लड़ते हुए नवउदारवादी नीतियों और राज्यसत्ता के विरुद्ध एकजुट संघर्ष की ज़रूरत महसूस कर रहा है तो कालान्तर में उसकी हरावल पार्टी के पुनस्संगठित होने की प्रक्रिया भी अवश्य गति पकड़ेगी, क्योंकि श्रीलंका की ज़मीन पर मार्क्सवादी विचारधारा के जो बीज बिखरे हुए हैं, उन सभी के अंकुरण-पल्लवन-पुष्पन को कोई ताक़त रोक नहीं सकेगी। यदि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एक पीढ़ी अपना दायित्व नहीं पूरा कर पायेगी, तो दूसरी पीढ़ी इतिहास के रंगमंच पर उसका स्थान ले लेगी।
एक बार फिर पुरानी कहानी दुहरायी गयी। चुन्दुर दलित हत्याकाण्ड के सभी आरोपी उच्च न्यायालय से सुबूतों के अभाव में बेदाग़ बरी हो गये। भारतीय न्याय व्यवस्था उत्पीड़ितों के साथ जो अन्याय करती आयी है, उनमें एक और मामला जुड़ गया। जहाँ पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था शोषित-उत्पीड़ित मेहनतकशों, भूमिहीनों, दलितों (पूरे देश में दलित आबादी का बहुलांश शहरी-देहाती मज़दूर या ग़रीब किसान है) और स्त्रियों को बेरहमी से कुचल रही हो, वहाँ न्यायपालिका से समाज के दबंग, शक्तिशाली लोगों के खिलाफ इंसाफ की उम्मीद पालना व्यर्थ है। दबे-कुचले लोगों को इंसाफ कचहरियों से नहीं मिलता, बल्कि लड़कर लेना होता है। उत्पीड़न के आतंक के सहारे समाज में अपनी हैसियत बनाये रखने वाले लोगों के दिलों में जबतक संगठित जन शक्ति का आतंक नहीं पैदा किया जाता, तबतक किसी भी प्रकार की सामाजिक बर्बरता पर लगाम नहीं लगाया जा सकता।
केवल किसी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि ग़रीब या मेहनतकश का होने से कुछ नहीं होता। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ में और गुजरात के दंगाइयों में बहुत सारी लम्पट और धर्मान्ध सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी भी शामिल थी। दिल्ली गैंगरेप के सभी आरोपी मेहनतकश पृष्ठभूमि के थे। भारत की और दुनिया की बुर्जुआ राजनीति में पहले भी बहुतेरे नेता एकदम सड़क से उठकर आगे बढ़े थे, पर घोर घाघ बुर्जुआ थे। कई कांग्रेसी नेता भी ऐसे थे। चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।