मोदी सरकार ने गाज़ा नरसंहार पर संसद में चर्चा कराने से इंकार किया
कविता कृष्णपल्लवी
गुजरात के कसाई और गाज़ा के कसाई आपस में भाई-भाई हैं, यह सच्चाई एकदम खुलकर सामने आ गयी। भारत और पूरी दुनिया में गाज़ा नरसंहार विरोधी जनप्रदर्शनों के माहौल को देखते हुए, शर्माशर्मी में, संसद में बैठे विपक्षी दलों ने इज़रायली हमलों के खि़लाफ़ प्रस्ताव पारित करने की माँग रखी तो भाजपा सरकार ने इसे सिरे से ख़ारिज़ कर दिया। सरकार लगातार बेशर्मी से इस हमले पर चर्चा कराने से भी इंकार कर रही है।
वैसे कांग्रेसी इस मसले पर भला किस मुँह से कुछ बोलेंगे। नवउदारवादी लहर में बहने के बाद, बढ़ते अमेरिकी प्रभाव के दौर में, 1990 के दशक में कांग्रेस सरकार ने ही फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के साथ विश्वासघात करते हुए इज़रायल के साथ नज़दीकियाँ बढ़ाने की शुरुआत की थी, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने आगे बढ़ाया। मनमोहन सिंह की सरकार भी इज़रायल के साथ राजनयिक और व्यापारिक सम्बन्धों को बढ़ाने में लगी रही। यही नहीं, इज़रायल के साथ रक्षा सौदे भी हुए और जासूसी तन्त्र को दुरुस्त करने में भी कुख्यात इज़रायली खुफिया एजेंसी मोस्साद की मदद ली गयी।
किसी भी देश की विदेश नीति हमेशा उसकी आर्थिक नीतियों के ही अनुरूप होती है। पश्चिमी साम्राज्यवादी पूँजी के लिए पलक पाँवड़े बिछाने वाली धार्मिक कट्टरपन्थी फासिस्टों की सरकार से यही अपेक्षा थी कि वे ज़ियनवादी हत्यारों का साथ दें।
उन्होंने अपना पक्ष चुन लिया है और हमने भी। जो इंसाफ़पसन्द नागरिक अबतक चुप हैं, वे सोचें कि आने वाली नस्लों को, इतिहास को और अपने ज़मीर को वे क्या जवाब देंगे।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन