कैसी ख़ुशियाँ, आज़ादी का कैसा शोर? राज कर रहे कफ़नखसोट मुर्दाखोर!
नमिता
अंग्रेज़ों से आज़ादी दिलाने में जो नमक एक सशक्त प्रतीक बना था, वही नमक आज मज़दूरों को गुलामों जैसा जीवन जीने को मजबूर कर रहा है। बेहद अमानवीय हालात में रहने और काम करने को मजबूर ये मज़दूर नमक की दलदलों में अपनी हड्डियाँ गला रहे हैं और घिसट-घिसटकर मौत के क़रीब पहुँच रहे हैं।
भारत एक बहुत बड़ा नमक उत्पादक देश है। दुनियाभर में कुल नमक उत्पादन का 8 प्रतिशत सिर्फ़ भारत में उत्पादित होता है। सबसे ज़्यादा नमक का उत्पादन गुजरात, तमिलनाडु, राजस्थान और आन्ध्रप्रदेश में होता है।
तमिलनाडु के वेदर्नयम इलाक़े में सड़क से काफ़ी दूर आदिवासी कालोनी में 200 से भी ज़्यादा परिवार हैं, जो नमक की डलियाँ बनाने का काम करते हैं। समुद्री पानी से भी तीन गुना खारे (नमकीन) पानी में खड़े रहकर नमक को इकट्ठा करते हैं, छानते हैं, फिर सूखने पर उसे प्लास्टिक के पैकेट में पैक करते हैं। दिनभर नमक के दलदलों में 45-50 डिग्री तापमान की चमड़ी झुलसा देने वाली धूप में कमरतोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें एक दिन का सिर्फ़ 50-100 रुपया मिलता है, जो न्यूनतम मज़दूरी से भी काफ़ी कम है। ज़्यादातर मज़दूर ठेकेदारों द्वारा दिहाड़ी पर रखे जाते हैं और उनके लिए सुरक्षा और स्वास्थ्य का कोई इन्तज़ाम नहीं है।
नमक के दलदलों में लगातार खड़े होकर काम करने से उनके हाथ-पैर छिल जाते हैं और उनके ख़ून-माँस तक में नमक समा जाता है, जिससे भयंकर त्वचा रोग हो जाता है। तेज़, सफ़ेद चमकीली रोशनी और नमक के बारीक़ कण उनकी आँखों की रोशनी बहुत जल्दी छीन लेते हैं और वे अन्धेपन के शिकार हो जाते हैं।
एक ओर तो नमक मज़दूर ग़रीबी और अभाव से पैदा हुए रोग, जैसे कुपोषण, एनीमिया, विटामिन बी, ए व डी की कमी को झेलते हैं, जिससे हमेशा उनके शरीर में असहनीय दर्द रहता है, असमय बूढ़े हो जाते हैं और आँखों की रोशनी चली जाती है। दूसरी ओर पेशागत जोखिम भी उठाना पड़ता है। जैसे नमक के क्षारीय-पारदर्शी बारीक़ कणों के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण हाई ब्लडप्रेशर, कन्धे और पीठ में दर्द तो आम बात है। कुछ मज़दूर अन्धे हो जाते हैं और कुछ के आँखों का कोर्निया बढ़ जाता है, जिसे पेट्रिजिया कहते हैं। ज़्यादातर महिलाओं को गैंगरीन और घेंघा रोग (गलगण्ड) हो जाता है।
मुनाफ़े की हवस में बौराये लुटेरे मालिक और पूँजीपति नमक मज़दूरों को बिना कोई सेफ़्टी हेल्मेट, दस्ताना या जूता दिये जानवरों की तरह इन्हें नमक की दलदलों में फेंककर मुनाफ़े की हवस पूरा कर रहे हैं।
स्त्री मज़दूरों की हालत तो और भी ज़्यादा भयंकर है। नमक बनाने वाली जगह के आसपास दूर-दूर तक कोई शेल्टर (छाँव) या शौचालय तक नहीं है। महिलाएँ शौचालय जाने के डर से दिनभर कुछ खाती-पीती तक नहीं। पूरी ज़मीन समतल है और दूर-दूर तक कोई पेड़ या झाड़ी तक नहीं है, जिससे महिलाओं को मल-मूत्र तक त्यागने में दिक़्क़तें आती हैं। एक महिला ने बताया कि यहाँ गर्मी इतनी ज़्यादा होती है कि जूते भी बर्दाश्त नहीं कर पाते और नमक क्रिस्टल अन्दर घुस जाता है जिससे त्वचा ज़ख़्मी हो जाती है। मौत के बाद भी नमक मज़दूरों का पीछा नहीं छोड़ता। चूँकि नमक उनके पोर-पोर में घुस जाता है, इसीलिए मरने के बाद उनका शरीर जलता तक नहीं तो उन्हें नमक में ही दफ़्न करना पड़ता है।
यह है हमारे आज़ाद भारत की गन्दी, घिनौनी छोटी-सी झलक, जो चीख़-चीख़कर कह रही है कि
“कैसी ख़ुशियाँ, आज़ादी का कैसा शोर? राज कर रहे कफ़नखसोट मुर्दाखोर!”
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2013
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