Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

एक नयी पहल! एक नयी शुरुआत! एक नयी मुहिम! मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफ़ानी जनान्दोलन बनाओ!

इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम की शक्तियों के बीच निर्णायक युद्ध होना ही है। मेहनतकशों के सामने नारकीय ग़ुलामी, अपमान और बेबसी की ज़िन्दगी से निज़ात पाने का मात्र यही एक रास्ता है। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी भूलकर और पिछली हारों से ज़रूरी सबक लेकर एक नयी लड़ाई शुरू करनी होगी और जीत का भविष्य अपने हाथों गढ़ना होगा। शुरुआत पूँजीवादी हुकूमत के सामने अपनी सभी राजनीतिक माँगों को चार्टर के रूप में रखने से होगी। मज़दूरों को भितरघातियों, नकली मज़दूर नेताओं और मौक़ापरस्तों से होशियार रहना होगा। रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति स्वयं मेहनतकश का काम है।

मजदूर मांगपत्रक आंदोलन 2011 – हर इंसाफ़पसन्‍द नागरिक से समर्थन की अपील

लम्बे संघर्षों और क़ुर्बानियों की बदौलत जो क़ानूनी अधिकार मज़दूरों ने हासिल किये थे, आज उनमें से ज़्यादातर छीने जा चुके हैं। जो पुराने श्रम क़ानून (जो क़तई नाकाफ़ी हैं) काग़ज़ों पर मौजूद हैं, उनका व्यवहार में लगभग कोई मतलब नहीं रह गया है। दिखावे के लिए सरकार जो नये क़ानून बना रही है, वे ज़्यादातर प्रभावहीन और पाखण्डपूर्ण हैं या मालिकों के पक्ष में हैं। श्रम क़ानून न केवल बेहद उलझे हुए हैं, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और लम्बी है और मज़दूरों को शायद ही कभी न्याय मिल पाता है। श्रम विभाग के कार्यालयों, अधिकारियों, कर्मचारियों की संख्या ज़रूरत से काफ़ी कम है और श्रम क़ानूनों को लागू करवाने के बजाय यह विभाग प्राय: मालिकों के एजेण्ट की भूमिका निभाता है। श्रम न्यायालयों और औद्योगिक ट्रिब्यूनलों की संख्या भी काफ़ी कम है। भारत की मेहनतकश जनता के लिए संविधानप्रदत्त जीने के मूलभूत अधिकार का कोई मतलब नहीं है। नागरिक आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकार उनके लिए बेमानी हैं।इन हालात में, भारत के मज़दूर, भारत की संसद और सरकार को बता देना चाहते हैं कि उन्‍हें यह अन्‍धेरगर्दी, यह अनाचार-अत्याचार अब और अधिक बर्दाश्त नहीं। मज़दूर वर्ग को हर क़ीमत पर हक़ और इंसाफ़ चाहिए और इसके लिए एक लम्बी मुहिम की शुरुआत कर दी गयी है। इसके पहले क़दम के तौर पर, संसद में बैठे जन-प्रतिनिधियों और शासन चलाने वाली सरकार के सामने, सम्मानपूर्वक जीने के लिए,अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करते हुए जीने के लिए, अपने न्यायसंगत और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए, और इस देश की तमाम तरक़्क़ी में अपना वाजिब हक़ पाने के लिए मज़दूरों का एक माँग-पत्रक प्रस्तुत किया जा रहा है। इस माँग-पत्रक में कुल 26 श्रेणी की माँगें हैं जोभारत के मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख आवश्‍यकताओं का प्रतिनिधित्‍व करती हैं और साथ ही उसकी राजनीतिक माँगों को भी अभिव्‍यक्‍त करती हैं।

गोरखपुर में मज़दूर नेताओं को फर्ज़ी आरोप में गिरफ्तार किया। थाने पर बात करने गए मज़दूरों पर बार-बार लाठीचार्ज, कई घायल

गोरखपुर के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र में आज दोपहर पुलिस ने बिगुल मज़दूर दस्ता और टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन से जुडे़ दो मज़दूर नेताओं तपीश मैन्दोला और प्रमोद कुमार को झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध में थाने पर गए मज़दूरों पर बुरी तरह लाठीचार्ज किया गया और थानाध्‍यक्ष से बात करने गए दो अन्य मज़दूर नेताओं प्रशांत तथा राजू को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इसकी जानकारी मिलते ही कई कारखानों के मज़दूर जैसे ही थाने पर पहुंचे उन पर फिर से लाठीचार्ज किया गया। मालिकों के इशारे पर कुछ असामाजिक तत्वों ने पथराव करने की कोशिश की जिसे मज़दूरों ने नाकाम कर दिया। स्पष्ट है कि ये कार्रवाइयां मज़दूरों को उकसाने के लिए की जा रही हैं जिससे पुलिस को दमन का बहाना मिल सके। दरअसल, पिछले कुछ समय से मज़दूर ‘मांगपत्रक आन्दोलन-2011’ की तैयारी में गोरखपुर के मज़दूरों की भागीदारी और उत्साह देखकर गोरखपुर के उद्योगपति बौखलाए हुए हैं। उद्योगपतियों और स्थानीय सांसद की शह पर लगातार मज़दूरों को इस आन्दोलन के खिलाफ़ भड़काने की कोशिश की जा रही है और फर्जी नामों से बांटे जा रहे पर्चों-पोस्टरों के जरिए और ज़बानी तौर पर मज़दूरों और आम जनता के बीच यह झूठा प्रचार किया जा रहा है कि यह आन्दोलन माओवादियों द्वारा चलाया जा रहा है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (नवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में तो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भी जुझारू भौतिकवाद और क्रान्तिकारी जनवाद का झण्डा नहीं था। यह पुनर्जारण-प्रबोधन की प्रक्रिया से आगे नहीं बढ़ा था, यह कृषि-दस्तकारी-मैन्युफैक्चरिंग की नैसर्गिक गति से विकसित न होकर औपनिवेशिक सामाजिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ था। गाँधी का क्लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद भी जुझारू तर्कणा नहीं बल्कि धार्मिक सुधारवादी था और उनका धार्मिक सुधारवाद तोल्स्तोय से भी काफी पीछे था। दलितों के नेता अम्बेडकर भी जुझारू सामाजिक संघर्षों और रैडिकल भूमि सुधार के विरोधी थे, वे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के संवैधनिक सुधारवाद के भक्त थे और फ्रांसीसी जन क्रान्ति जैसे जिस सामाजिक तूफान ने बुर्जुआ जनवादी मूल्यों (जिनके वे हामी थे) को जन्म दिया, वैसी किसी जन क्रान्ति से भी उनका परहेज़ था।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (आठवीं किस्त)

अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय “सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्‍सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती।

देखो संसद का खेला, नौटंकी वाला मेला

अब फर्ज क़रें कि संसद ठीक से चलती तो क्या होता? जनप्रतिनिधि समझे जानेवाले आधे से अधिक सदस्य तो आते ही नहीं, जो आते वह भी या तो ऊँघते, सोते रहते या निरर्थक बहसबाज़ी और जूतमपैजार करते, और इसी किस्म की एक घण्टे की कार्यवाही पर तक़रीबन 20 लाख रुपये खर्च हो जाते और जब यह सब करने में उन्हें उकताहट और ऊब होती तो वे संसद की कैण्टीन में बाहर की क़ीमत का सिर्फ 10 प्रतिशत देकर तर माल उड़ाते और इस खर्च का बोझ भी मेहनतकश ज़नता पर ही पड़ता। संसद अगर ठीक से चलती भी रहती तो शोषण-उत्पीड़न के नये-नये क़ानून बनते। दिखावे और व्यवस्था का गन्दा चेहरा छिपाने के लिए कुछ कल्याणकारी क़ानून भी बनते जिन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी किसी की नहीं रहती। बेशुमार सुख-सुविधओं और विलासिताओं से चुँधियाये मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को यह नंगी सचाई दिखायी नहीं पड़ती। संसद और क़ानून की आड़ में मेहनतकशों की हड्डियाँ निचोड़ लिया जाना उसे दिखायी नहीं देता है और न ही उसे उसकी कोई चिन्ता है। अपने में डूबा यह आत्म-सन्तुष्ट वर्ग आसपास की सच्चाइयों से मुँह मोड़कर मीडिया से अपने विचार और राय ग्रहण करता है। ज़ाहिर है सत्ता और संसद के प्रति यह भ्रम का शिकार होता है।

विनायक सेन का मुक़दमा और जनवादी अधिकारों की लड़ाई : कुछ सवाल

विनायक सेन का मुद्दा सिर्फ एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी, डॉक्टर और नागरिक अधिकारकर्मी के साथ हुए अन्याय का मुद्दा नहीं है। यह पुलिस प्रशासन और न्यायतन्त्र के विरुद्ध तथा निरंकुश काले क़ानूनों के विरुद्ध संघर्ष का एक हिस्सा है। यह अपनी ही ज़नता के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाली सरकार की वैधता पर सवाल उठाने का समय है। यह ऐसा मौक़ा है जब आन्दोलन को व्यक्तिकेन्द्रित नहीं बल्कि मुद्दाकेन्द्रित बनाया जाये। मगर हो इसके ठीक उलट रहा है। यह एक अच्छी बात है कि विनायक सेन के साथ हो रहे व्यवहार ने उन लोगों को भी आगे आने पर मजबूर कर दिया जो सरकारी दमन के मसले पर आम तौर चुप्पी साधे रहते थे। लेकिन इनमें से अधिकांश लोग उन अनगिनत लोगों के सवाल पर फिर चुप्पी लगा जाते हैं जो भारतीय राज्य की लुटेरी नीतियों के ख़िलाफ आवाज़ उठाने की सज़ा भुगत रहे हैं।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सातवीं किस्त)

संविधान निर्माण के लिए गठित प्रारूप कमेटी ने 27 अक्टूबर 1947 को अपना काम शुरू किया। लेकिन सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र, ”इण्डियन सिविल सर्विसेज़” के कुछ घुटे-घुटाये नौकरशाह संविधान का एक प्रारूप पहले ही तैयार कर चुके थे। इनमें पहला नाम था सर बी.एन. राव का, जो संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। दूसरा नाम था संविधान के मुख्य प्रारूपकार एस.एन. मुखर्जी का। इन दो महानुभावों ने 1935 के क़ानून के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया था और संविधान सभा के कर्मचारियों ने उनकी मदद की थी। इस सच्चाई को अम्बेडकर ने भी प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से 25 नवम्बर 1947 को दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी स्वीकार किया था। संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का काम था पहले से ही तैयार प्रारूप की जाँच करना और आवश्यकता होने पर संशोधन हेतु सुझाव देना। इस तथ्य को संविधान सभा के एक सदस्य सत्यनारायण सिन्हा ने भी स्वीकार किया है।

पूँजीवादी गणतन्त्र में कौन बच्चा और कौन पिता!

हमें किसी किस्म की निरंकुशता नहीं चाहिए। न बर्बर किस्म की और न ही प्रबुध्द किस्म की। हमें हमारे हक चाहिए; हमें सच्चा जनवाद चाहिए। और यह सच्चा जनवाद पूँजीवादी लोकतन्त्र में नहीं मिल सकता है। यह सच्चा जनवाद एक समतामूलक व्यवस्था में ही मिल सकता है। सर्वहारा जनवाद ही सच्चा जनवाद है क्योंकि यह बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के लिए जनवाद है और अल्पसंख्य शोषकों के लिए अधिनायकत्व। आज का पूँजीवादी जनवाद ऐसा ही हो सकता है। उसकी परिणति पूँजीवादी व्यवस्था के संकट बढ़ने के साथ ही निरंकुशता में होती है। क्योंकि यह अल्पसंख्यक शोषकों के लिए जनवाद है और बहुसंख्यक आम मेहनतकश जनता के लिए तानाशाही। जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक किसी किस्म के निष्कलंक और पूर्ण जनवाद की आकांक्षा करना बचकानापन है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (छठी किस्त)

भारतीय संविधान एक पूँजीवादी संविधान है जो व्यक्तिगत सम्पत्ति की वर्तमान व्यवस्था की इंच-इंच हिफाजत करने की कसमें खाता है, जमीन और पूँजी को उत्पादन और शोषण के साधन के रूप में स्वीकार करता है, शोषकों को शोषण की पूरी गारण्टी देता है और उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है, लेकिन दूसरी ओर मेहनतकशों को काम करने के हक की, रोटी तक की गारण्टी नहीं देता। भारतीय पूँजीपति वर्ग के सिध्दान्तकारों ने पूँजीवादी शोषण को न्यायसंगत व स्वाभाविक ठहराने के लिए तथा भारतीय समाज की समूची सम्पदा पर पूँजीपति वर्ग का नियन्त्रण बनाये रखने के लिए दार्शनिक- राजनीतिक-विधिशास्त्रीय आधार के रूप में, पूँजीवादी राज और समाज की आचार-संहिता के रूप में इस संविधान की रचना की है। यह संविधान भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक और राजनीतिक क्षमता की, उस समय की राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति की तथा साम्राज्यवाद के युग की स्पष्ट और मुखर अभिव्यक्ति है।