गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन
मालिकान-प्रशासन-पुलिस-राजनेता गँठजोड़ के विरुद्ध गोरखपुर के मज़दूरों के बहादुराना संघर्ष की एक और जीत
गोलीकाण्ड, बर्बर लाठीचार्ज, गिरफ्तारियों, फ़र्ज़ी मुक़दमों, धमकियों से जूझकर मज़दूरों ने लुटेरों के गँठजोड़ को पीछे धकेला
महीने भर तक चले आन्दोलन में मज़दूरों ने अपनी फौलादी एकजुटता, सूझबूझ और गँठजोड़ के हर हमले के जवाब में संघर्ष के नये-नये तरीक़े ईजाद करने की क्षमता की मिसाल पेश की
गोरखपुर में दो वर्ष पहले औद्योगिक मज़दूरों ने संगठित होकर मालिकों से अपने हक़ माँगने की शुरुआत की थी। इसके साथ ही गोरखपुर के तमाम पूँजीपति, प्रशासन और पुलिस के आला अफसर और तथाकथित जनप्रतिनिधि इस तरह भड़क उठे थे जैसे मज़दूरों ने कोई भयानक गुनाह कर दिया हो। दमन और उत्पीड़न के साथ ही आन्दोलन को बदनाम करने के लिए उसके ख़िलाफ आरोपों और कुत्साप्रचार की आँधी खड़ी कर दी गयी थी। महीनों तक हर हमले का सामना करके मज़दूरों ने अपनी एकता और सूझबूझ के बल पर कई अहम जीतें हासिल की थीं। लेकिन मालिक घायल साँप की तरह मज़दूरों से बदला लेने की फिराक़ में थे। मज़दूर लड़कर अपने हक़ ले लें और उनके दिलों से मालिक का ख़ौफ ही ख़त्म हो जाये, यह बात उन्हें हज़म ही नहीं हो रही थी।
ऐसे में जब गोरखपुर के मज़दूरों ने ‘मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन’ से जुड़कर अपनी माँगों को और व्यापक फलक पर उठाना शुरू किया तो गोरखपुर के पूँजीपति-प्रशासन-पुलिस-नेताशाही गँठजोड़ का बौखलाना स्वाभाविक था। लेकिन किसी को यह अनुमान नहीं था कि मज़दूरों से नफरत को वे इस हद तक ले जायेंगे कि उन पर गोलियाँ बरसाने लगें।
मालिकों की तमाम कोशिशों और प्रशासन की धमकियों के बावजूद गोरखपुर से क़रीब 2000 मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन की पहली मई की रैली में भाग लेने दिल्ली पहुँच गये। इनमें बरगदवाँ स्थित अंकुर उद्योग लिमिटेड नामक यार्न मिल के सैकड़ों मज़दूर भी थे। यह वही मिल है जहाँ 2009 में सबसे पहले मज़दूरों ने संगठित होने की शुरुआत की थी। दिल्ली से लौटकर उत्साह से भरपूर मज़दूर 3 मई की सुबह जैसे ही काम पर पहुँचे, उन्हें अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान की ओर से गोलियों का तोहफा मिला। पहले से बुलाये भाड़े के गुण्डों ने मज़दूरों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलायीं जिसमें 19 मज़दूर और एक स्कूल छात्रा घायल हो गये। दरअसल यह सब मज़दूरों को ”सबक़ सिखाने” की सुनियोजित योजना के तहत किया गया था। फैक्टरी गेट पर 18 अगुवा मज़दूरों के निलम्बन का नोटिस चस्पाँ था। मालिकान जानते थे कि मज़दूर इसका विरोध करेंगे। उन्हें अच्छी तरह कुचल देने का ठेका सहजनवाँ के कुख्यात अपराधी प्रदीप सिंह के गैंग को दिया गया था।
लेकिन मालिकों की चाल उल्टी पड़ गयी। मज़दूर चुप होकर बैठ नहीं गये। उन्होंने सड़कों पर उतरकर लम्बी लड़ाई लड़ी। बर्बर दमन और उत्पीड़न के बावजूद पूरे महीनेभर मज़दूरों का आन्दोलन जारी रहा और एकजुट संघर्ष की बदौलत मज़दूरों ने मालिकों, प्रशासन और नेताशाही के गँठजोड़ को पीछे हटने तथा अपनी अधिकांश माँगें मानने पर मजबूर कर दिया। पुलिस और प्रशासन के दमन के जवाब में मज़दूरों ने ‘मज़दूर सत्याग्रह’ का रास्ता अपनाया।
3 मई के गोलीकाण्ड के बाद पुलिस और ज़िला प्रशासन ने बेशर्मी से मालिकान का पक्ष लेते हुए हमलावरों को बचाने और उल्टे मज़दूर नेताओं को ही फँसाने की पूरी कोशिश की, लेकिन मज़दूरों की एकजुटता और बार-बार दमन के बावजूद पीछे न हटने के चलते आख़िरकार 10 मई को प्रशासन ने मालिक पर दबाव डालकर अंकुर उद्योग का बन्द कारख़ाना शुरू कराने और सभी निलम्बित मज़दूरों को वापस लेने का समझौता कराया। कई हमलावरों को गिरफ़्तार भी किया गया लेकिन बाद में उन सबको छोड़ दिया गया। दोषियों को सज़ा दिलाने और मुआवज़े की माँगों को लेकर मज़दूरों की लड़ाई अब भी जारी है।
इसके तुरन्त बाद ही मज़दूरों ने बरगदवाँ इलाक़े के ही दो अन्य कारख़ानों वी.एन. डायर्स यार्न मिल और वी.एन. डायर्स कपड़ा मिल में 10 अप्रैल से चली आ रही तालाबन्दी तथा 18 मज़दूरों के निलम्बन और निष्कासन को लेकर ‘मज़दूर सत्याग्रह’ का दूसरा चरण छेड़ दिया। आमरण अनशन, बर्बर लाठीचार्ज और गिरफ्तारियों के सिलसिले के बाद आख़िरकार 2 जून को मज़दूरों को फिर जीत हासिल हुई और सभी मज़दूरों को वापस लेने तथा तालाबन्दी ख़त्म करने का समझौता हुआ।
घटनाक्रम
दिल्ली से लौटने के बाद 3 मई को सुबह की पारी के मज़दूर काम के लिए छह बजे फैक्टरी पहुँचे, तो फैक्टरी गेट पर 18 मज़दूरों को निलम्बित किये जाने का नोटिस लगा था। इसके विरोध में मज़दूर अन्दर न जाकर पास के एक लीची बग़ीचे में जमा हो गये। इसी बीच, मज़दूरों को पता चला कि फैक्टरी के अन्दर मालिक अशोक जालान के बेटे अंकुर जालान तथा और भूतपूर्व छात्र नेता और हिस्ट्रीशीटर प्रदीप सिंह के साथ हथियारों से लैस क़रीब 70 से 80 बाहरी लोग मौजूद हैं। मज़दूरों ने इसकी सूचना सुबह सात बजे सी.ओ. गोरखनाथ को मोबाइल पर, और लगभग साढ़े आठ बजे एसएचओ चिलुआताल थाना तथा 100 नम्बर पर दे दी। लगभग सात बजे संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के नेता प्रशान्त मज़दूरों के पास पहुँचे। इसी बीच कुछ हथियारधारी लोगों के साथ हिस्ट्रीशीटर प्रदीप सिंह वहाँ पहुँचा और मज़दूर नेता तपीश मैन्दोला के बारे में पूछताछ करने लगा। तपीश को वहाँ न पाकर ये लोग प्रशान्त को ज़बरदस्ती फैक्टरी के अन्दर ले जाने लगे, लेकिन काफी तादाद में मौजूद मज़दूरों ने उन लोगों को वहाँ से खदेड़ दिया। इसके बाद, सभी हथियारबन्द लोग भागकर फैक्टरी के अन्दर चले गये, और वहाँ से ताबड़तोड़ गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं जिसमें 19 मज़दूर और एक स्कूली छात्रा घायल हो गये। घायलों में एक मज़दूर पप्पू जायसवाल के पेट और पैर में दो गोलियाँ लगीं और पेट की गोली रीढ़ की हड्डी तक चली गयी जिसके कारण उनकी स्थिति और अधिक गम्भीर हो गयी। बाकी मज़दूरों को हाथ, पैर, पेट और सिर में गोली या छर्रे से चोटें लगीं। मज़दूरों के अनुसार फायरिंग से पहले दो मोटरसाइकिल सवार सिपाही भी फैक्टरी में पहुँचे थे, पर फायरिंग शुरू होते ही वे भागकर छिप गये। सूचना मिलने के क़रीब एक घण्टे बाद लगभग साढ़े नौ बजे एसएचओ चिलुआताल थाना, एसपी सिटी और सीओ मौक़ास्थल पर पहुँचे, और 15 एकड़ क्षेत्रफल में फैले अंकुर उद्योग लिमिटेड की छानबीन महज आधे घण्टे में कर ली गयी।
इसके बाद मालिकान के साथ पुलिस और ज़िला प्रशासन की मिलीभगत तथा उन्हें स्थानीय जन-प्रतिनिधियों की खुली सरपरस्ती की वही कहानी दोहरायी गयी जिसे गोरखपुर के मज़दूर दो वर्ष से बार-बार देखते रहे हैं।
मज़दूरों ने कारख़ाने को घेर लिया था और अपराधियों को भागने नहीं दे रहे थे। लेकिन पुलिस ने गिरफ्तारी के बहाने उन्हें वहाँ से सुरक्षित निकाला और बाद में छोड़ दिया। प्रदीप सिंह और हथियार समेत कई अन्य अपराधियों को किसी दूसरे रास्ते से भगा दिया गया। पुलिस अपराधियों का एक भी हथियार बरामद नहीं कर पायी। जिन गाड़ियों में बैठकर अपराधी अन्दर गये थे, वे फैक्टरी परिसर में मौजूद होने के बावजूद पुलिस ने किसी गाड़ी को ज़ब्त नहीं किया। मज़दूरों द्वारा नामज़द रिपोर्ट के बावजूद पुलिस ने अशोक जालान और उसके बेटे को नहीं पकड़ा बल्कि उसकी ओर से मज़दूरों के ख़िलाफ एक फर्ज़ी एफआईआर भी लिख ली।
मज़दूर सत्याग्रह
इस बर्बर हमले और प्रशासन की अन्धोरगर्दी के ख़िलाफ मज़दूरों ने रात को ही ज़िलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन करने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने लाठीचार्ज करके उन्हें रोक दिया। अगले दिन सुबह सैकड़ों मज़दूर फिर ज़िलाधिकारी कार्यालय की ओर रवाना हुए, लेकिन पुलिस ने किसी भी तरह उन्हें वहाँ पहुँचने नहीं दिया। इसके विरोध में मज़दूरों ने 9 मई से ‘मज़दूर सत्याग्रह’ छेड़ने का ऐलान कर दिया क्योंकि 8 मई को ज़िले में विधानसभा उपचुनाव होने के कारण निषेधाज्ञा लागू थी।
9 मई को गोरखपुर में मज़दूरों के दमन-उत्पीड़न के इतिहास में आज एक नया अध्याय जुड़ गया। ‘मज़दूर सत्यागह’ को कुचलने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्रवाई ने ब्रिटिश हुकूमत की याद ताज़ा कर दी।
चार दिन पहले से घोषित शान्तिपूर्ण मज़दूर सत्याग्रह के लिए सुबह मज़दूर कमिश्नर कार्यालय जाने के लिए बरगदवाँ औद्योगिक क्षेत्र के निकट एफसीआई मैदान में जैसे ही इकट्ठा हुए भारी संख्या में तैनात पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों ने उन पर लाठीचार्ज कर दिया और पानी की तेज़ बौछारों से उन्हें तितर-बितर कर दिया। एक मज़दूर नेता को हिरासत में ले लिया गया। इसके बावजूद मज़दूर शान्तिपूर्ण तरीक़े से कलक्ट्रेट पहुँचने की कोशिश करते रहे लेकिन पूरे दिन शहर के रास्तों पर पुलिस के जत्थे मज़दूरों को खदेड़ते और पीटते रहे। यहाँ तक कि सार्वजनिक वाहनों से जा रहे मज़दूरों तक को उतारकर पीटा और धमकाया गया।
इन सबके बावजूद दोपहर से पहले तक 200 से अधिक मज़दूर ज़िला कलक्ट्रेट पर पहुँच गये जो छावनी बना हुआ था। पुलिस और पीएसी द्वारा लाठीचार्ज करके मज़दूरों को तितर-बितर करने के बाद 30 स्त्री मज़दूरों सहित क़रीब 100 मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया गया जिन्हें देर रात छोड़ा गया। 3 मई को हुई फायरिंग में गम्भीर रूप से घायल मज़दूर पप्पू जैसवाल की पत्नी संगीता भी सत्याग्रह के लिए पहुँची थी जो पुलिसिया कार्रवाई के दौरान बेहोश हो गयी। प्रशासन की ओर से कोई मदद न मिलने पर मज़दूरों ने किसी तरह उसे अस्पताल पहुँचाया।
पूरे शहर में कहीं भी दस-बारह मज़दूर दिखते ही उन्हें रोक लिया जाता था। फिर भी किसी तरह टाउन हॉल स्थित गाँधी प्रतिमा पर इकट्ठा होकर 200 मज़दूरों ने ‘मज़दूर सत्याग्रह’ के तहत भूख हड़ताल शुरू कर दी। मज़दूरों के नये-नये जत्थे वहाँ पहुँचने की कोशिश करते रहे और शहरभर में छापामार झड़पों जैसी स्थिति बनी रही।
भारी दमन के बावजूद मज़दूरों के जुझारू संघर्ष और एक सप्ताह से जारी दमन-उत्पीड़न की देशव्यापी निन्दा तथा व्यापक जनदबाव ने प्रशासन और मालिकान को क़दम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया और मज़दूर आन्दोलन को आंशिक जीत हासिल हुई।
10 मई को उपश्रमायुक्त की मौजूदगी में अंकुर उद्योग के मालिकों तथा मज़दूरों के प्रतिनिधियों के बीच हुई वार्ता के बाद अंकुर उद्योग से निकाले गए सभी 18 मज़दूरों को काम पर वापस लेने तथा कारख़ाना कल से शुरू करने पर मालिक पक्ष सहमत हो गया। हालाँकि वी.एन. डायर्स के दो कारख़ानों से निकाले गए 18 मज़दूरों को बहाल करने के सवाल पर गतिरोध बना रहा।
उसी दिन संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा ने ऐलान किया कि गोलीकाण्ड के मुख्य अभियुक्तों की गिरफ्तारी तथा अभियुक्तों को बचाने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई, घायल मज़दूरों को सरकार से मुआवज़ा दिलाने, मज़दूरों पर थोपे गए सभी फर्ज़ी मुक़दमे हटाने, तथा गोलीकाण्ड और 9 मई को ‘मज़दूर सत्याग्रह’ पर हुए बर्बर दमन की न्यायिक जाँच की माँग को लेकर आन्दोलन जारी रहेगा।
मज़दूर सत्याग्रह का दूसरा चरण
वी.एन. डायर्स लिमिटेड की तालाबन्दी ख़त्म करने और अन्य माँगों पर मालिकों तथा प्रशासन के अड़ियल रुख़ के कारण 16 मई से मज़दूरों ने वी.एन. डायर्स के दोनों कारख़ानों के गेट के सामने आमरण अनशन शुरू करने के साथ मज़दूर सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू कर दिया। इन दो कारख़ानों, एक कपड़ा मिल और एक धागा मिल, में पिछले 10 अप्रैल से अवैध तालाबन्दी थी और इसके 18 मज़दूरों को काम से निकाल दिया गया था।
बन्द कारख़ानों के तीन मज़दूर, एक मज़दूर की माँ और एक स्त्री कार्यकर्ता ने भूख हड़ताल शुरू की। उनके साथ इलाक़े के कई कारख़ानों के सैकड़ों मज़दूर भी धरने पर बैठे। मज़दूरों ने अलग-अलग पालियाँ बाँध लीं, जिससे कि धरनास्थल पर दिनो-रात बड़ी संख्या में मज़दूर बने रहें। प्रशासन और पुलिस ने धरना और भूख हड़ताल को रोकने की हरचन्द कोशिशें कीं लेकिन मज़दूरों के दृढ़ता से अपनी जगह जमे रहने पर आख़िर उन्हें पीछे हटना पड़ा। मज़दूरों के विरोध और उनके आन्दोलन को देशव्यापी समर्थन के दबाव में प्रशासन को झुकना पड़ा और आख़िरकार प्रशासन ने मालिकान के साथ वार्ता शुरू करायी। मालिकों और मज़दूरों के प्रतिनिधियों के बीच दो दौर की वार्ता हुई लेकिन मालिकान निकाले गये 18 मज़दूरों को वापस नहीं लेने पर अड़ियल रवैया अपनाये रहे। उन्होंने इस माँग को छोड़ने पर राजी करने के लिए अन्य मज़दूरों के सामने कई तरह के प्रलोभन भी रखे लेकिन मज़दूर इस बात पर दृढ़ थे कि जब तक सभी 18 मज़दूर बहाल नहीं होंगे तब तक एक भी मज़दूर काम पर नहीं जायेगा।
प्रशासन द्वारा कोई सुनवाई न होते देख भूख हड़ताल के पाँचवें दिन लगभग 500 मज़दूर भूख हड़तालियों को ठेलों पर लिटाकर ज़िलाधिकारी कार्यालय की ओर जा रहे थे तो डीआईजी रेंज की अगुवाई में आये भारी पुलिस बल ने उन्हें रास्ते में ही रोक दिया। इस पर सभी मज़दूरों ने आपस में एक-दूसरे को लम्बी रस्सियों से बाँध लिया ताकि पुलिस के लिए उन्हें हटाना या गिरफ़्तार करना मुश्किल हो जाये। आख़िरकार पुलिस ने लाठीचार्ज करने के बाद अनशनकारियों सहित 73 मज़दूरों को हिरासत में ले लिया। तपीश मैन्दोला को पुलिस ने किसी अन्य स्थान से उठा लिया लेकिन अगले दिन तक उनकी गिरफ्तारी दिखायी ही नहीं गयी। इसके बाद भी किसी तरह लगभग 250 मज़दूर टाउनहाल पहुँचकर फिर धरने पर बैठ गये। उधर डीएम कार्यालय पहुँचे क़रीब 50 मज़दूरों पर पुलिस ने बुरी तरह लाठीचार्ज किया जिससे 25 मज़दूरों को चोटें आयीं।
तपीश मैन्दोला और 13 मज़दूरों को फर्ज़ी आरोपों में जेल भेज दिया गया जहाँ से एक सप्ताह बाद उनकी जमानत हो सकी। लेकिन मज़दूर अपनी माँगों पर अडिग रहे। 30 मई को, मज़दूरों ने धागा मिल में घुसकर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। इससे प्रबन्धन के लिए मज़दूरों को काम पर वापस लिए बिना मिलें चालू करना असम्भव हो गया जैसा करने की वह बार-बार कोशिश कर रहा था। बड़ी संख्या में मज़दूर कारख़ाने के बाहर निगरानी कर रहे थे। 1 जून की रात प्रशासन मालिकों और मज़दूरों को वार्ता के लिए बुलाने को बाध्य हो गया और 3 घण्टे तक चली बातचीत के बाद मज़दूरों को फिर एक जीत मिली और वी.एन. डायर्स के मालिक अजित सरिया ने तालाबन्द मिलों को चालू करने और निष्कासित मज़दूरों को वापस लेने पर समझौता किया। इसके तहत 18 निष्कासित मज़दूरों में से 12 को तुरन्त काम पर रख लिया गया और बाकी 6 मज़दूरों को एक आन्तरिक जाँच-पड़ताल के बाद वापस लिया जायेगा। मज़दूरों ने मालिकों पर दबाव बनाकर यह तय कराया कि जाँच समिति में प्रबन्धन की तरफ से कोई नहीं होगा। इसमें स्टाफ के दो सदस्य तथा एक मज़दूरों द्वारा चुना गया प्रतिनिधि होगा।
इसके बावजूद, संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा ने चेतावनी दी कि यदि घायलों को मुआवज़ा देने, मज़दूरों पर दायर फर्ज़ी मुक़दमे वापस लेने, गोलीकाण्ड की न्यायिक जाँच कराने तथा मुख्य आरोपियों को गिरफ़्तार करने की उनकी माँगों को प्रशासन गम्भीरतापूर्वक नहीं लेता है तो मज़दूर सत्याग्रह का तीसरा चरण शुरू किया जायेगा। मोर्चा ने मज़दूरों को इस जीत के बावजूद सावधान रहने के लिए कहा क्योंकि प्रशासन एवं प्रबन्धन पहले भी कई बार अपने वायदों से मुकर चुके हैं।
मज़दूर आन्दोलन को देशव्यापी समर्थन
मज़दूर आन्दोलन पर दमन की ख़बरों के फैलते ही देशभर में इसकी व्यापक निन्दा की गयी और आन्दोलन को व्यापक समर्थन मिला। देशभर से सैकड़ों लोगों ने फोन, फैक्स तथा ईमेल से ज़िला प्रशासन और राज्य सरकार को अपना विरोध दर्ज कराया और विभिन्न संगठनों ने बयान जारी कर दमन की निन्दा की।
गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन समर्थक नागरिक मोर्चा की पहल पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री मायावती के नाम याचिका पर दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, लुधियाना, मुम्बई आदि शहरों में हस्ताक्षर अभियान के साथ ही ऑनलाइन भी देश-विदेश से हस्ताक्षर कराये गये। इस पर हस्ताक्षर करने वालों में न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर, डा. विनायक सेन, मेधा पाटकर, पीयूसीएल के राष्ट्रीय महासचिव पुष्कर राज, प्रख्यात फिल्मकार आनन्द पटवर्धन, प्रसिद्ध मानवाधिकार कर्मी गौतम नवलखा, इण्डियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर्स के के.डी. राव, उत्तर प्रदेश पीयूसीएल के उपाध्यक्ष रविकिरण जैन, प्रसिद्ध कवि एवं ‘पब्लिक एजेण्डा’ के कार्यकारी सम्पादक मंगलेश डबराल, ‘समयान्तर’ पत्रिका के सम्पादक पंकज बिष्ट, कवि पंकज सिंह, आल इण्डिया सेक्युलर फोरम के राम पुनियानी, लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति डा. रूपरेखा वर्मा, ज़िला बार एसोसिएशन लुधियाना के अध्यक्ष अशोक मित्तल, डेमोक्रेटिक लॉयर्स एसोसिएशन पंजाब के कुलदीप सिंह, एमसीपीआई पंजाब के हरविलास सिंह, वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया, अजित साही, पाणिनी आनन्द, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. ईश मिश्र, प्रो. पी.के. विजयन, हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रो. बी.आर. बापूजी एवं डा. शुभदीप, कोलकाता के इतिहासकार देवब्रत बनर्जी, पंजाबी विश्वविद्यालय के प्रो. गुरभगवान गिल, सीटीयू वर्कर्स यूनियन, पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष चितंरजन सिंह एवं महासचिव वन्दना मिश्र, जन संस्कृति मंच की भाषा सिंह, सीपीआई-एमएल न्यू डेमोक्रेसी की दिल्ली सचिव अपर्णा, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रण्ट के एन. बाबैया, पीयूसीएल झारखण्ड के एस.आर. नाग, ह्यूमन राइट्स अलर्ट के बबलू ल्यूटैंगटन आदि प्रमुख थे।
125वें मई दिवस की रैली में भाग लेकर लौटे मज़दूरों पर गोलीबारी की घटना की विदेश में भी कड़ी निन्दा हुई। जर्मनी की डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकारिणी के सदस्य इलियट आइज़नबर्ग एवं आई. ओ’कैलाघन, रैडिकल विमेन, आस्ट्रेलिया की डेबी ब्रेनन तथा रैडिकल विमेन, अमेरिका की प्रतिनिधि एन्ने स्लेटर, कनाडा की विल्फर्ड लॉरियर युनिवर्सिटी फैकल्टी एसोसिएशन के डा. हर्बर्ट पिमलॉट, इंग्लैण्ड की सामाजिक कार्यकर्ता क्रिस्टीन टिकनर, लेबर स्टार्ट के सम्पादक एरिक ली, मलेशिया की सोशलिस्ट पार्टी के जीविन द्रान, पाकिस्तान मज़दूर महाज़ के तुफैल अब्बास सहित अनेक ट्रेडयूनियन कर्मियों तथा बुद्धिजीवियों ने इसे भारत के लोकतन्त्र के लिए शर्मनाक घटना बताया।
मज़दूर सत्याग्रह के दूसरे चरण के पुलिसिया दमन के विरोध में मुम्बई की वरिष्ठ वकील एवं सामाजिक कार्यकर्ता कामायनी बाली-महाबल की पहल पर शुरू हुए हस्ताक्षर अभियान में शहीदेआज़म भगतसिंह के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह, मेजर जनरल (अव.) एस.जी. वोंबेतकर, प्रसिद्ध वकील नीलोफर भागवत सहित सैकड़ों लोगों ने हस्ताक्षर किये।
लखनऊ में वयोवृद्ध पूर्व शिक्षक नेता एवं अनुराग ट्रस्ट की अध्यक्ष कमला पाण्डेय ने मुख्यमन्त्री मायावती के नाम भेजे दो पत्रों में कहा कि गोरखपुर के मज़दूरों पर लगातार जारी दमन-उत्पीड़न को यदि बन्द नहीं किया गया तो वे स्वयं गोरखपुर पहुँचकर आमरण अनशन शुरू कर देंगी। उन्होंने कहा कि सत्ता के दम्भ में मायावती शायद यह भूल गई हैं कि वे प्रदेश के लाखों मज़दूरों की भी प्रतिनिधि हैं।
लखनऊ तथा गोरखपुर में विभिन्न संगठनों ने उत्तर प्रदेश में बढ़ते दमन-उत्पीड़न के ख़िलाफ साझा मोर्चा बनाकर व्यापक जनान्दोलन छेड़ने की तैयारी भी शुरू कर दी थी।
दिल्ली से गयी मीडियाकर्मियों की एक जाँच टीम ने गोरखपुर में तीन दिन तक रहक़र सभी पक्षों से विस्तृत छानबीन करने के बाद अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा कि गोलीबारी की घटना और मज़दूरों के दमन के लिए प्रशासन दोषी है तथा मज़दूरों की माँगें मानी जानी चाहिए। मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध सामाजिककर्मी सन्दीप पाण्डेय के नेतृत्व में जनान्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), पीयूसीएल तथा पीपुल्स यूनियन फोर ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) की एक संयुक्त जाँच टीम ने भी गोरखपुर का दौरा किया और 3 मई के गोलीकाण्ड तथा लगातार जारी श्रमिक अशान्ति के कारणों की जाँच-पड़ताल की। जाँच दल में श्री संदीप पाण्डेय के अलावा पीयूसीएल के फतेहबहादुर सिंह एवं राजीव यादव और पीयूएचआर के मनोज सिंह शामिल थे। इस जाँच दल ने भी मज़दूरों की माँगों को जायज़ ठहराते हुए दमन तथा गोलीकाण्ड की न्यायिक जाँच कराने की संस्तुति की।
पृष्ठभूमि
यह आन्दोलन इस मायने में महत्वपूर्ण है क्योंकि गोरखपुर में पिछले कुछ दशकों से किसी उल्लेखनीय मज़दूर आन्दोलन की चर्चा नहीं सुनी गयी थी। कई दशक पहले इस इलाक़े में स्थित क़रीब दर्जनभर चीनी मिलों के मज़दूरों को बंगाल से आये एक चिकित्सक ने संगठित किया था और उन्होंने लड़कर बहुत से अधिकार भी हासिल किये थे। लेकिन धीरे-धीरे वह आन्दोलन कमजोर पड़ते हुए आज पूरी तरह बिखर चुका है। गोरखपुर में बड़ी संख्या में मौजूद बुनकरों के बीच भी एक समय कम्युनिस्टों ने काम किया था लेकिन आज वह आन्दोलन भी पूरी तरह बिखर चुका है। गोरखपुर के खाद कारख़ाने के मज़दूरों के बीच समाजवादी नेता रमाकान्त पाण्डेय के नेतृत्व में जुझारू आन्दोलन खड़ा हुआ था लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक कारख़ानों की तरह यह कारख़ाना भी सरकारी उपेक्षा, अफसरों की लूट और भ्रष्टाचार के कारण बन्द हो गया। यह अलग बात है कि इसका भी ठीकरा अक्सर मज़दूरों के आन्दोलन के सर फोड़ने की कोशिश की जाती है। पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय होने के चलते गोरखपुर में बड़ी संख्या में रेलवे के मज़दूर और कर्मचारी रहते हैं लेकिन विशुद्ध अर्थवादी राजनीति करने वाली उनकी यूनियनें भी लम्बे समय से निष्प्रभावी हो चुकी हैं और रेलवे के किश्तों में निजीकरण, कर्मचारियों की छँटनी, गोरखपुर के लोको व सिग्नल वर्कशाप की दुर्दशा जैसे बड़े मुद्दों पर कुछ करने की हालत में नहीं रह गयी हैं।
लेकिन पिछले दो दशकों में गोरखपुर में नयी औद्योगिक इकाइयाँ तेज़ी से विकसित हुई हैं। इस ज़िले में दो औद्योगिक इलाक़े हैं। शहर की दक्षिणी सीमा पर बरगदवाँ औद्योगिक क्षेत्र है तथा पूर्व में शहर से 15 किमी दूर सहजनवाँ स्थित गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा) का औद्योगिक क्षेत्र है। बरगदवाँ में क़रीब 50 फैक्टरियाँ हैं जिनमें 3 धागा मिलें, एक कपड़ा मिल, सरिया मिल, साइकिल की रिम, बर्तन, प्लास्टिक के बोरे, मुर्गी के चारे, आइसक्रीम, बिस्किट आदि बनाने की इकाइयाँ हैं। इनमें से प्रत्येक फैक्टरी में 80 से लेकर 1000 मज़दूर तक काम करते हैं। गीडा में लगभग 200 छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ कार्यरत हैं और लगभग 100 इकाइयाँ और शुरू होने वाली हैं। इनमें फार्मास्युटिकल्स और स्नैक्स से लेकर टेक्सटाइल तथा इंजीनियरिंग पार्ट्स बनाने तक की इकाइयाँ शामिल हैं। ये उद्योग भले ही एक पिछड़े इलाक़े में स्थित हैं लेकिन ये राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए भी उत्पादन करते हैं।
लेकिन इन कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की हालात दयनीय है। इनमें लगभग आधे मज़दूर आसपास के इलाक़ों के हैं तथा बाकी बिहार से आते हैं। वे बेहद बुरी परिस्थितियों में रहते और काम करते हैं। इन फैक्टरियों में कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होता। न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, ओवरटाइम, बोनस, पीएफ, जॉब कार्ड, ईएसआई आदि के प्रावधान केवल काग़ज़ों पर ही मौजूद हैं। अधिकांश कारख़ानों में 12 से 14 घण्टे काम होता है। आये दिन फैक्टरियों में दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। बात-बात पर गालियाँ और मार-पीट तक सहनी पड़ती है। विरोध करने पर निकाल दिया जाता है। अधिकांश कारख़ानों में यूनियन नहीं है जिससे मालिकों को मनमानी करने की खुली छूट मिली हुई है।
संगठित आन्दोलन की शुरुआत
ऐसा नहीं था कि मज़दूर इस ज़ुल्म को चुपचाप सहन कर रहे थे। उन्होंने कई बार इसके ख़िलाफ आवाज़ उठायी, लेकिन हर बार उन्हें दबा दिया गया। 2009 में अंकुर उद्योग के मज़दूरों ने बुनियादी सुविधाएँ दिये जाने की माँग करते हुए हड़ताल कर दी। शुरू में उनका आन्दोलन बहुत ही कमजोर और दिशाहीन था क्योंकि किसी भी मज़दूर को अपने क़ानूनी अधिकारों और यूनियन कार्य के तौर-तरीक़ों आदि के बारे में कोई जानकारी या अनुभव नहीं था। इसी दौरान कुछ मज़दूरों ने गोरखपुर में लम्बे समय से सामाजिक काम करने वाले दो संगठनों बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं से सम्पर्क साधा और उनसे अपने आन्दोलन को दिशा देने का आग्रह किया।
नौभास और बिगुल के कार्यकर्ताओं के शामिल होने के बाद अंकुर उद्योग के मज़दूर आन्दोलन को स्पष्ट दिशा मिली। शीघ्र ही समीप की एक और धागा बनाने वाली फैक्टरी वी.एन. डायर्स की दोनों मिलों के क़रीब 500 मज़दूर भी संघर्ष में शामिल हो गये। इसके बाद संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा का गठन किया गया। मालिकान ने डराने-धमकाने की तमाम तरक़ीबों द्वारा मज़दूरों की एकता को तोड़ने का प्रयास किया। भाड़े के गुण्डों द्वारा मज़दूर नेताओं को बुरी तरह पीटा गया। लेकिन इन सबके बावजूद मज़दूरों के जुझारू संघर्ष और एकजुटता के सामने आख़िरकार मालिकान को झुकना पड़ा। 29 जुलाई 2009 को उप श्रम-आयुक्त एवं मज़दूरों के प्रतिनिधियों के साथ हुई वार्ता में मालिकान मज़दूरों की माँगों को मानने पर मजबूर हुए। यह गोरखपुर के मज़दूरों की पहली जीत थी।
मज़दूरों के ख़िलाफ उद्योगपति-नेताशाही-राजनेताओं का गँठजोड़
तीन फैक्टरियों के मज़दूरों की जीत से प्रेरित होकर अगस्त 2009 में माडर्न लैमिनेटर्स और माडर्न पैकेजिंग नामक फैक्टरियों के क़रीब 1000 मज़दूरों ने भी अपनी माँगों को लेकर संगठित संघर्ष शुरू कर दिया। ख़ास बात यह थी कि इन सभी आन्दोलनों में दूसरे कारख़ानों के मज़दूर भी न सिर्फ एकजुटता ज़ाहिर करने आते थे बल्कि धरना, जुलूस, गेटमीटिंग जैसे कार्यक्रमों में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे। स्त्री मज़दूरों और मज़दूर परिवारों की स्त्रियाँ भी आन्दोलन में अगली क़तारों में रहती थीं। मज़दूरों की इस एकता को देखकर उद्योगपति बौखलाये हुए थे। इसी समय मीडिया में बाकायदा एक अभियान चलाया गया कि कुछ ‘बाहरी तत्व’ पूर्वी उत्तर प्रदेश की औद्योगिक शान्ति को बिगाड़ रहे हैं। गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया कि यह आन्दोलन ‘माओवादी’ और ‘आतंकवादी’ चला रहे हैं। उन्होंने मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देने के लिए यहाँ तक कहा कि यह आन्दोलन चर्च द्वारा प्रायोजित है। आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों को ”माओवादी” और मज़दूर आन्दोलन को ”पूर्वांचल को अस्थिर करने की साज़िश” बताते रहे और ऐसे आरोप लगाते हुए केन्द्र तथा राज्य सरकार को पत्र भी लिखे। गोरखपुर चैम्बर ऑफ इण्डस्ट्री तथा ज़िला प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी भी यही आरोप दोहराने लगे। माडर्न लैमिनेटर्स और माडर्न पैकेजिंग के मालिक पवन बथवाल पहले भाजपा में थे और शहर के मेयर रह चुके थे। इस समय वे शहर कांग्रेस के बड़े नेता और गोरखपुर से सांसद के टिकट के उम्मीदवार भी हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक सम्पर्कों के ज़रिये भी प्रशासन पर काफी दबाव डलवाया। लगभग ढाई महीने तक मज़दूर धीरज के साथ आन्दोलन चलाते रहे और आन्दोलन को बदनाम करने के सभी आरोपों का तथ्यपरक जवाब देते रहे लेकिन प्रशासन में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। इसी बीच योगी आदित्यनाथ को मज़दूरों की ओर से लिखी गयी चिट्ठी की भी काफी चर्चा रही।
अक्टूबर 2009 में लम्बे आन्दोलन के बाद प्रशासन के दबाव में मालिकान ने मज़दूरों की अधिकांश माँगों को मानने का समझौता किया। लेकिन समझौते के बावजूद पवन बथवाल ज़्यादातर माँगों से मुकर गये और कुछ दिन बाद मिलें बन्द कर अन्यत्र स्थानान्तरित कर दीं।
मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन 2011 के तहत मज़दूरों की लामबन्दी
मज़दूरों को मिली शुरुआती जीतों से कुछ मिलों के मज़दूरों के हालात में थोड़ा सुधार हुआ। कई कारख़ानों में काम के घण्टे कम होने से मज़दूरों को थोड़ी राहत मिली। कुछ जगहों पर वेतन पर्ची और जॉब कार्ड भी मिलने लगे। मज़दूरी में भी थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन कई मामलों में मिल मालिक अपने वायदों से मुकर गये। मज़दूरी में जो थोड़ी बहुत बढ़ोत्तरी हुई भी वह लगातार बढ़ती महँगाई के सामने निष्प्रभावी साबित हो रही थी। 2009 के अन्त से लेकर 2011 की शुरुआत तक गोरखपुर में कोई बड़ा मज़दूर आन्दोलन तो नहीं हुआ लेकिन अलग-अलग कारख़ानों में छिटपुट संघर्ष चलते रहे। इसी बीच गोरखपुर टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन का गठन किया गया जिसमें बरगदवा और गीडा की कई धागा और कपड़ा मिलों के मज़दूर शामिल हैं। बरगदवाँ के अलावा गीडा के भी कई कारख़ानों के मज़दूर संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा से जुड़े हैं। वर्ष 2010 में बरगदवाँ और गीडा के मज़दूरों ने गोरखपुर में मई दिवस पर एक विशाल जुलूस निकाला था। उल्लेखनीय है कि बरगदवाँ क्षेत्र के कई फैक्टरी मालिकान ने गीडा में भी बड़ी इकाइयाँ खोलने के लिए निवेश किया हुआ है। मज़दूरों में फैलती चेतना से इनकी परेशानी को आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि चन्द वर्षों में इनकी बेतहाशा तरक्की का राज़ मज़दूरों को बुरी तरह निचोड़ने और टैक्स चोरी में ही छिपा है। क़रीब डेढ़ दशक पहले तक स्क्रैप का धन्धा करने वाले अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान ने 1998 में कुछ करोड़ की लागत से एक प्लाण्ट लगाया था और 10 वर्ष के भीतर वह तीन प्लाण्ट, 15 एकड़ में फैले विशाल कारख़ाने और गोरखपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार कम से कम 600 करोड़ की सम्पत्ति के मालिक बन चुके हैं। एक बड़े राष्ट्रीय दैनिक की फ़्रैंचाइजी में भी उनकी 40 प्रतिशत भागीदारी है।
पिछले कुछ महीनों से मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन की पहल में बरगदवाँ और गीडा के मज़दूर भी शामिल थे। इस आन्दोलन के तहत 26-सूत्री माँगपत्रक पर दोनों इलाक़ों में मज़दूरों से बड़े पैमाने पर हस्ताक्षर कराये जा रहे थे और 1 मई को दिल्ली के जन्तर मन्तर पर होने वाली रैली में हिस्सा लेने के लिए प्रचार किया जा रहा था। इससे मालिकान बौखलाये हुए थे और मज़दूरों को रैली में भाग लेने से रोकने के लिए डराने-धमकाने से लेकर कुछ मज़दूरों को ख़रीदकर झूठा प्रचार कराने तक की तिकड़मों में लगे हुए थे। इसी बीच 10 अप्रैल 2011 को वी.एन. डायर्स की मिल में मैनेजमेण्ट की ओर से उकसाये गये एक मामले को लेकर हुए विवाद के बाद मालिकों ने कुछ मज़दूर नेताओं को फर्ज़ी मामलों में गिरफ़्तार करवा दिया। मज़दूरों के व्यापक विरोध के बाद उन्हें रिहा किया गया। मालिकान ने उसी दिन कारख़ाने की बिजली कटवाकर तालाबन्दी घोषित कर दी और 18 मज़दूरों को निलम्बित कर दिया।
मज़दूरों ने 15 दिन पहले ही सभी कारख़ानों के मैनेजमेण्ट, स्थानीय श्रम कार्यालय और लखनऊ में प्रमुख सचिव, श्रम को पत्र लिखकर मई दिवस की रैली में भाग लेने के लिए छुट्टी माँगी थी। उनका कहना था कि 1 मई को पारम्परिक तौर पर छुट्टी होती है, उन्हें केवल दो दिन, यानी 30 अप्रैल और 2 अप्रैल को अवकाश चाहिए था। पत्र में उन्होंने यह भी प्रस्ताव किया था कि कम्पनी को काम का नुक़सान न हो इसके लिए वे ओवरटाइम, रेस्ट के दिन काम करके या किसी भी अन्य तरीक़े से भरपाई करने के लिए तैयार हैं। इसके बावजूद किसी भी मिल का मैनेजमेण्ट उन्हें छुट्टी देने को तैयार नहीं था। चैम्बर ऑफ इण्डस्ट्रीज़ की बैठक में यह मुद्दा उठाया गया और बैठक में बुलाये गये गोरखपुर मण्डल के आयुक्त के. रवीन्द्र नायक ने उद्योगपतियों के सुर में सुर मिलाकर बयान दिया था कि मज़दूरों को भड़काने वाले ”बाहरी तत्वों” को बख्शा नहीं जायेगा।
लेकिन मालिकान और प्रशासन की धमकियों के बावजूद क़रीब 2000 मज़दूर 1 मई की रैली में भाग लेने दिल्ली गये। इस आन्दोलन ने मज़दूरों की व्यापक आबादी और आम नागरिकों के सामने इस व्यवस्था का असली चेहरा एक बार फिर नंगा कर दिया। लोगों ने देखा कि किस तरह सरकार, प्रशासन, पुलिस, अदालत, जन-प्रतिनिधि, चुनावी नेता सब मिलकर एक बेहद जायज़ और न्यायपूर्ण आन्दोलन को कुचलने पर आमादा हो गये। मज़दूरों ने महीने भर के दौरान गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक, हर स्तर पर बार-बार अपनी बात पहुँचायी लेकिन ”सर्वजन हिताय” की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सोती रही। मज़दूरों ने देखा कि श्रम विभाग से लेकर पुलिस-प्रशासन तक यहाँ किस तरह मालिकों के चाकर की भूमिका निभाते हैं और मज़दूरों के लिए किसी क़ानून का कोई मतलब नहीं रह गया है। ज़िला से लेकर प्रदेश स्तर तक के अफसरों को मिलमालिक अपने इशारों पर नचाते हैं। इस आन्दोलन ने मज़दूरों को बहुत से ऐसे क़ीमती सबक़ दिये हैं जो भविष्य के संघर्षों में उनके बहुत काम आयेंगे!
[stextbox id=”black” caption=”वयोवृद्ध शिक्षक नेता कमला पाण्डेय द्वारा मुख्यमन्त्री को लिखा चेतावनी पत्र”]
प्रति,
सुश्री मायावती जी,
मुख्यमन्त्री, उत्तर प्रदेश
विषय : गोरखपुर के मज़दूरों के बर्बर दमन की अविलम्ब निष्पक्ष जाँच की माँग तथा ऐसा ना होने की स्थिति में आमरण अनशन की पूर्व सूचना
प्रिय मायावती जी,
मैं कमला पाण्डेय, आयु 81 वर्ष, साठ वर्षों से ग़रीबों-मज़लूमों के लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए लड़ती रही हूँ और उ.प्र. माध्यमिक शिक्षक संघ में सक्रिय रही हूँ। अब जीवन की सान्ध्य बेला में, हृदय रोग और शारीरिक अशक्तता के बावजूद अपनी सामाजिक सक्रियता जारी रखते हुए मैं बच्चों की संस्था ‘अनुराग ट्रस्ट’ चलाती हूँ।
महोदया, गोरखपुर के मज़दूरों पर पिछले हफ़्तों से पुलिस-प्रशासन और उद्योगपतियों के गुण्डों का जो बर्बर आतंक राज्य जारी है, उसकी ख़बरें मुझे विचलित करती रही हैं। फर्ज़ी मुक़दमे, गिरफ्तारी, लाठीचार्ज आदि की कार्रवाई तो अप्रैल से ही जारी है। 3 मई को ‘अंकुर उद्योग’ के मालिकों के गुण्डों द्वारा अन्धाधुन्ध गोलीवर्षा में 19 मज़दूर ज़ख्मी हुए जिनमें से एक अभी भी जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा है। आपकी पुलिस-प्रशासन ने गिरफ्तारी का बहाना बनाकर गुण्डों को फैक्टरी परिसर से बाहर निकालने का और मज़दूर नेताओं पर नये फर्ज़ी मुक़दमे ठोकने का काम किया। गोरखपुर के कमिश्नर वहाँ के भाजपा सांसद के सुर में सुर मिलाते हुए मज़दूर नेताओं को ‘बाहरी तत्व’ और ‘उग्रवादी’ तक की संज्ञा दे रहे हैं। इन कर्मठ युवा नेताओं को मैं जानती हूँ। ये मज़दूर हितों के लिए संघर्षरत न्यायनिष्ठ लोग हैं।
महोदया, आज 9 मई को हज़ारों मज़दूर दो फैक्टरियों की अवैध तालाबन्दी समाप्त करने, मज़दूरों पर से फर्ज़ी मुक़दमे हटाने और मज़दूरों पर गोली चलाने की घटना की निष्पक्ष जाँच और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की माँग को लेकर जब कमिश्नर कार्यालय की ओर शान्तिपूर्ण ‘मज़दूर सत्याग्रह’ शुरू करने जा रहे थे, तो उन पर बर्बर लाठीचार्ज और पानी की बौछार की गयी। शहर में कहीं भी उन्हें इकट्ठा होने से रोकने के लिए पुलिस ने आतंक राज क़ायम कर दिया। कई नेताओं, मज़दूरों को हिरासत में ले लिया गया। इसके बावजूद, शाम 4 बजे मुझे सूचना मिलने तक कई सौ मज़दूर टाउन हॉल, गाँधी प्रतिमा के पास पहुँचकर अनशन की शुरुआत कर चुके थे।
मायावती जी, मज़दूरों पर दमन का यह सिलसिला तो वास्तव में पिछले दो वर्षों से जारी है, जबसे वे कम से कम कुछ श्रम क़ानूनों को लागू करने की माँग कर रहे हैं। आप स्वयं पता कीजिये कि गोरखपुर के कारख़ानों में क्या कोई भी श्रम क़ानून लागू होता है? यदि इनकी माँग उठाने वाले ‘उग्रवादी’ हैं तो मैं भी स्वयं को गर्व से ‘उग्रवादी’ कहना चाहूँगी। इस बार दमन और अत्याचार तो सारी सीमाओं को लाँघ गया है। सत्ता में बैठे लोगों को यदि जनता निरीह भेड़-बकरी दीखने लगती है और इंसाफ़ की आवाज़ उनके कानों तक पहुँचती ही नहीं, तो इतिहास उन्हें कड़ा सबक़ सिखाता है।
मायावती जी, मैं विनम्रतापूर्वक आपको सूचित करना चाहती हूँ कि यदि गोरखपुर के मज़दूरों पर बर्बर अत्याचार बन्द नहीं किया जायेगा, यदि मज़दूरों पर गुण्डों द्वारा गोली-वर्षा के मामले की निष्पक्ष जाँच नहीं होगी, यदि अवैध तालाबन्दी ख़त्म करने के लिए प्रशासन मालिकों को बाध्य नहीं करेगा और यदि मज़दूरों की न्यायसंगत माँगों पर विचार नहीं किया जायेगा, तो मैं स्वयं व्हीलचेयर पर बैठकर मज़दूर सत्याग्रह में हिस्सा लेने जाऊँगी। किसी लोकतान्त्रिक, शान्तिपूर्ण प्रतिरोध के लिए शासन से इजाज़त लेना मैं ज़रूरी नहीं समझती। यदि न्याय की आवाज़ की अनसुनी जारी रहेगी तो आमरण अनशन करके प्राण त्यागना मेरे लिए गौरव की बात होगी। मुझे विश्वास है कि मेरे इस बलिदान से मज़दूरों के संघर्ष को शक्ति मिलेगी और लोकतान्त्रिक अधिकारों के संघर्ष में उतरने के लिए तथा न्याय की लड़ाई में शोषितों-दलितों का साथ देने के लिए बुद्धिजीवी समुदाय के अन्तर्विवेक को भी झकझोरा जा सकेगा।
मायावती जी, मैं आपको धमकी या चेतावनी नहीं दे रही हूँ। सत्ता की प्रचण्ड शक्ति के आगे मुझ जैसे किसी नागरिक की भला क्या बिसात? मैं आपसे अनुरोध कर रही हूँ कि आप अपने स्तर से मामले की जाँच कराकर न्याय कीजिये और सत्ता मद में चूर अपने निरंकुश अफसरों की नकेल कसिये। मैं इस न्याय संघर्ष में भागीदारी के अपने संकल्प की आपको सूचना दे रही हूँ और विनम्रतापूर्वक बस यह याद दिलाना चाहती हूँ कि लाठियों-बन्दूक़ों से सच्चाई और इंसाफ़ की आवाज़ कुछ देर को चुप करायी जा सकती है, लेकिन हमेशा के लिए कुचली नहीं जा सकती।
साभिवादन,
भवदीया,
कमला पाण्डेय
दिनांक : 9/5/2011
सम्पर्क : डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020
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