Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (नवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में तो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भी जुझारू भौतिकवाद और क्रान्तिकारी जनवाद का झण्डा नहीं था। यह पुनर्जारण-प्रबोधन की प्रक्रिया से आगे नहीं बढ़ा था, यह कृषि-दस्तकारी-मैन्युफैक्चरिंग की नैसर्गिक गति से विकसित न होकर औपनिवेशिक सामाजिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ था। गाँधी का क्लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद भी जुझारू तर्कणा नहीं बल्कि धार्मिक सुधारवादी था और उनका धार्मिक सुधारवाद तोल्स्तोय से भी काफी पीछे था। दलितों के नेता अम्बेडकर भी जुझारू सामाजिक संघर्षों और रैडिकल भूमि सुधार के विरोधी थे, वे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के संवैधनिक सुधारवाद के भक्त थे और फ्रांसीसी जन क्रान्ति जैसे जिस सामाजिक तूफान ने बुर्जुआ जनवादी मूल्यों (जिनके वे हामी थे) को जन्म दिया, वैसी किसी जन क्रान्ति से भी उनका परहेज़ था।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (आठवीं किस्त)

अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय “सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्‍सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती।

देखो संसद का खेला, नौटंकी वाला मेला

अब फर्ज क़रें कि संसद ठीक से चलती तो क्या होता? जनप्रतिनिधि समझे जानेवाले आधे से अधिक सदस्य तो आते ही नहीं, जो आते वह भी या तो ऊँघते, सोते रहते या निरर्थक बहसबाज़ी और जूतमपैजार करते, और इसी किस्म की एक घण्टे की कार्यवाही पर तक़रीबन 20 लाख रुपये खर्च हो जाते और जब यह सब करने में उन्हें उकताहट और ऊब होती तो वे संसद की कैण्टीन में बाहर की क़ीमत का सिर्फ 10 प्रतिशत देकर तर माल उड़ाते और इस खर्च का बोझ भी मेहनतकश ज़नता पर ही पड़ता। संसद अगर ठीक से चलती भी रहती तो शोषण-उत्पीड़न के नये-नये क़ानून बनते। दिखावे और व्यवस्था का गन्दा चेहरा छिपाने के लिए कुछ कल्याणकारी क़ानून भी बनते जिन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी किसी की नहीं रहती। बेशुमार सुख-सुविधओं और विलासिताओं से चुँधियाये मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को यह नंगी सचाई दिखायी नहीं पड़ती। संसद और क़ानून की आड़ में मेहनतकशों की हड्डियाँ निचोड़ लिया जाना उसे दिखायी नहीं देता है और न ही उसे उसकी कोई चिन्ता है। अपने में डूबा यह आत्म-सन्तुष्ट वर्ग आसपास की सच्चाइयों से मुँह मोड़कर मीडिया से अपने विचार और राय ग्रहण करता है। ज़ाहिर है सत्ता और संसद के प्रति यह भ्रम का शिकार होता है।

विनायक सेन का मुक़दमा और जनवादी अधिकारों की लड़ाई : कुछ सवाल

विनायक सेन का मुद्दा सिर्फ एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी, डॉक्टर और नागरिक अधिकारकर्मी के साथ हुए अन्याय का मुद्दा नहीं है। यह पुलिस प्रशासन और न्यायतन्त्र के विरुद्ध तथा निरंकुश काले क़ानूनों के विरुद्ध संघर्ष का एक हिस्सा है। यह अपनी ही ज़नता के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाली सरकार की वैधता पर सवाल उठाने का समय है। यह ऐसा मौक़ा है जब आन्दोलन को व्यक्तिकेन्द्रित नहीं बल्कि मुद्दाकेन्द्रित बनाया जाये। मगर हो इसके ठीक उलट रहा है। यह एक अच्छी बात है कि विनायक सेन के साथ हो रहे व्यवहार ने उन लोगों को भी आगे आने पर मजबूर कर दिया जो सरकारी दमन के मसले पर आम तौर चुप्पी साधे रहते थे। लेकिन इनमें से अधिकांश लोग उन अनगिनत लोगों के सवाल पर फिर चुप्पी लगा जाते हैं जो भारतीय राज्य की लुटेरी नीतियों के ख़िलाफ आवाज़ उठाने की सज़ा भुगत रहे हैं।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सातवीं किस्त)

संविधान निर्माण के लिए गठित प्रारूप कमेटी ने 27 अक्टूबर 1947 को अपना काम शुरू किया। लेकिन सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र, ”इण्डियन सिविल सर्विसेज़” के कुछ घुटे-घुटाये नौकरशाह संविधान का एक प्रारूप पहले ही तैयार कर चुके थे। इनमें पहला नाम था सर बी.एन. राव का, जो संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। दूसरा नाम था संविधान के मुख्य प्रारूपकार एस.एन. मुखर्जी का। इन दो महानुभावों ने 1935 के क़ानून के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया था और संविधान सभा के कर्मचारियों ने उनकी मदद की थी। इस सच्चाई को अम्बेडकर ने भी प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से 25 नवम्बर 1947 को दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी स्वीकार किया था। संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का काम था पहले से ही तैयार प्रारूप की जाँच करना और आवश्यकता होने पर संशोधन हेतु सुझाव देना। इस तथ्य को संविधान सभा के एक सदस्य सत्यनारायण सिन्हा ने भी स्वीकार किया है।

पूँजीवादी गणतन्त्र में कौन बच्चा और कौन पिता!

हमें किसी किस्म की निरंकुशता नहीं चाहिए। न बर्बर किस्म की और न ही प्रबुध्द किस्म की। हमें हमारे हक चाहिए; हमें सच्चा जनवाद चाहिए। और यह सच्चा जनवाद पूँजीवादी लोकतन्त्र में नहीं मिल सकता है। यह सच्चा जनवाद एक समतामूलक व्यवस्था में ही मिल सकता है। सर्वहारा जनवाद ही सच्चा जनवाद है क्योंकि यह बहुसंख्यक आम मेहनतकश आबादी के लिए जनवाद है और अल्पसंख्य शोषकों के लिए अधिनायकत्व। आज का पूँजीवादी जनवाद ऐसा ही हो सकता है। उसकी परिणति पूँजीवादी व्यवस्था के संकट बढ़ने के साथ ही निरंकुशता में होती है। क्योंकि यह अल्पसंख्यक शोषकों के लिए जनवाद है और बहुसंख्यक आम मेहनतकश जनता के लिए तानाशाही। जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक किसी किस्म के निष्कलंक और पूर्ण जनवाद की आकांक्षा करना बचकानापन है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (छठी किस्त)

भारतीय संविधान एक पूँजीवादी संविधान है जो व्यक्तिगत सम्पत्ति की वर्तमान व्यवस्था की इंच-इंच हिफाजत करने की कसमें खाता है, जमीन और पूँजी को उत्पादन और शोषण के साधन के रूप में स्वीकार करता है, शोषकों को शोषण की पूरी गारण्टी देता है और उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है, लेकिन दूसरी ओर मेहनतकशों को काम करने के हक की, रोटी तक की गारण्टी नहीं देता। भारतीय पूँजीपति वर्ग के सिध्दान्तकारों ने पूँजीवादी शोषण को न्यायसंगत व स्वाभाविक ठहराने के लिए तथा भारतीय समाज की समूची सम्पदा पर पूँजीपति वर्ग का नियन्त्रण बनाये रखने के लिए दार्शनिक- राजनीतिक-विधिशास्त्रीय आधार के रूप में, पूँजीवादी राज और समाज की आचार-संहिता के रूप में इस संविधान की रचना की है। यह संविधान भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक और राजनीतिक क्षमता की, उस समय की राष्ट्रीय- अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति की तथा साम्राज्यवाद के युग की स्पष्ट और मुखर अभिव्यक्ति है।

पूँजी के इशारों पर नाचती पूँजीवादी न्याय व्यवस्था : विनायक सेन को आजीवन क़ैद

ऐसे संविधान और न्याय-व्यवस्था के तहत विनायक सेन को सुनायी गयी सजा कोई चौंकाने वाली नहीं है। अब राज्य के दमन की जद में जनवादी और नागरिक अधिकारों की बात करने वाले बुध्दिजीवी, वकील, डॉक्टर और कार्यकर्ता भी आयेंगे ही आयेंगे। यह क्रूर पूँजी संचय का एक ऐसा दौर है जिसमें पूँजीवादी व्यवस्था देश के सबसे पिछड़े, ग़रीब और अरक्षित लोगों के जीवन के अधिकार को छीने बग़ैर पूँजी के हितों को साध ही नहीं सकती। नतीजतन, देश में जनवादी स्पेस लगातार सिकुड़ रहा है। और मजदूरों के लिए तो कमोबेश ऐसी स्थिति लगातार और हमेशा से रही है। विनायक सेन ने भारतीय लोकतन्त्र के असली घिनौने पूँजीवादी चरित्र को पूरी तरह से नंगा कर दिया है। इसका चरित्र मजदूरों से छिपा हुआ तो कभी नहीं था और वे हर रोज सड़क पर इस पूँजीवादी लोकतन्त्र से दो-चार होते हैं।

अयोध्‍या फ़ैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (दूसरी व अन्तिम किस्त)

इतिहास में पहले जो घटनाएँ घटित हुईं उनका हिसाब वर्तमान में चुकता नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए। इतिहास को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और न ले जाया जाना चाहिए। आज का ज़िन्दा सवाल यह है ही नहीं। जिस देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हों; जहाँ के बच्चों की आधी आबादी कुपोषित हो; जहाँ 28 करोड़ बेरोज़गार सड़कों पर हों; जहाँ 36 करोड़ लोग या तो बेघर हों या झुग्गियों में ज़िन्दगी बिता रहे हों; जहाँ के 60 करोड़ मज़दूर पाशविक जीवन जीने और हाड़ गलाने पर मजबूर हों; और जहाँ समाज जातिगत उत्पीड़न और स्त्री उत्पीड़न के दंश को झेल रहा हो, वहाँ मन्दिर और मस्जिद का सवाल प्रमुख कैसे हो सकता है? वहाँ इतिहास के सैकड़ों वर्ष पहले हुए अन्याय का बदला लेना मुद्दा कैसे हो सकता है,जबकि वर्तमान समाज में अन्याय और शोषण के भयंकरतम रूप मौजूद हों?

पंजाब सरकार ने बनाये दो ख़तरनाक काले कानून

यह व्यवस्था उत्पीड़ित जनता को अपनी असन्तुष्टि, आक्रोश व्यक्त करने के जनतान्त्रिक तरीके भी नहीं देना चाहती। लेकिन इतिहास बताता है कि काले कानूनों के द्वारा जनता की संगठित इच्छाशक्ति को कभी दबाया नहीं जा सका है। लाठी, गोली,जेल से कभी भी मेहनतकश लोगों की आवाज़ दबाई नहीं जा सकती। पर इतिहास से हुक्मरानों ने शायद आज तक कोई सबक नहीं सीखा है!