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जनवादी अधिकारों के लिए आन्दोलन और मज़दूर वर्ग

जनवादी अधिकारों की यह लड़ाई मज़दूर वर्ग के लिए आज बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो गई है कि लम्बे संघर्षों से जो अधिकार उसने हासिल किये थे, वे भी आज, मज़दूर आन्दोलन के उलटाव-बिखराव के दौर में उससे छिन चुके हैं। नवउदारवाद की नीतियों के दौर में मज़दूरों का 93 प्रतिशत हिस्सा ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल और पीसरेट मज़दूरों का है। परम्परागत यूनियनें इन मज़दूरों के हितों को लेकर लड़ने का काम छोड़ चुकी हैं और बिखरे होने के चलते इन अनौपचारिक मज़दूरों की ख़ुद की सौदेबाज़ी की ताक़त बहुत कम हो गयी है। इस मज़दूर आबादी को नये सिरे से, नयी परिस्थितियों में संगठित होने और लड़ने के तौर-तरीक़े ईजाद करने हैं और आगे बढ़ना है।

लेनिन – जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग

मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग-चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राजसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि ‘‘मज़दूर के बीच जाओ’’ – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव ‘‘अर्थवाद’’ की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने कि लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (चौदहवीं किश्त)

इस देश के लोगों को बोलने की आज़ादी तब तक है जब तक वो राज्य की सुरक्षा और देश की प्रभुता और अखण्डता के दायरे के भीतर बात करते हैं। ज्यों ही कोई मौजूदा व्यवस्था का आमूलचूल परिवर्तन करके वास्तविक जनवाद और समता पर आधारित एक वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण के बारे में बोलता है, या फ़िर कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्यों के लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में बोलता है, राज्य सत्ता के कान खड़े हो जाते हैं और उस व्यक्ति के बोलने की आज़ादी पर वाजिब पाबन्दियों के लिए संविधान का सहारा लेकर उसकी ज़बान ख़ामोश करने की क़वायद शुरू हो जाती है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तेरहवीं किस्‍त)

भारतीय नागरिकों को प्रदत्त मूलभूत अधिकार न सिर्फ़ नाकाफ़ी हैं बल्कि जो चन्द राजनीतिक अधिकार संविधान द्वारा दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों और पाबन्दियों भरे प्रावधानों से परिसीमित किया गया है। उनको पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो संविधान निर्माताओं ने अपनी सारी विद्वता और क़ानूनी ज्ञान जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के बजाय एक मज़बूत राज्यसत्ता की स्थापना करने में में झोंक दिया हो। इन शर्तों और पाबन्दियों की बदौलत आलम यह है कि भारतीय राज्य को जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करने के लिए संविधान का उल्लंघन करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान में एक विशेष हिस्सा (भाग 18) आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों का है जो राज्य को आपातकाल घोषित करने का अधिकार देता है।

अघोषित आपातकाल की तेज होती आहटें!

पिछले दो दशकों से जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के विनाशकारी नतीजों को झेल रहे जनसमुदाय में इस व्यवस्था के ख़िलाफ ग़ुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से आसमान छू रही महँगाई ने आम लोगों की ज़िन्दगी दूभर कर दी है। रही-सही कोर-कसर एक के बाद एक फूट रहे घोटालों और सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार में डूबी नेताशाही-नौकरशाही ने पूरी कर दी है। दिनोदिन गहराता पूँजीवादी आर्थिक संकट लोगों पर तकलीफों और बदहाली का और भी ज्यादा कहर बरपा करेगा इस बात को शासक वर्ग भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। आर्थिक नीतियों के नतीजे नंगे रूप में सामने आने के बाद सामाजिक विस्‍फोट की जो ज़मीन तैयार हो रही है, उसके भविष्य को भाँपते हुए शासक वर्ग अपने दमनतन्त्र को और भी निरंकुश बनाने में जुट गये हैं। इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि नवउदारवादी नीतियों के दौर में पूँजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ भी धुँधली पड़ती जा रही हैं। भारत में भी पूँजीवादी जनवाद का ‘स्पेस’ लगातार सिकुड़ता जा रहा है और क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर पुलिस प्रशासन की भूमिका बढ़ती जा रही है।

तृतीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

पिछली 22 से 24 जुलाई तक लखनऊ में भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ विषय पर तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के हॉल में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित संगोष्ठी में तीन दिनों तक हुई गहन चर्चा के दौरान देशभर से आये प्रमुख जनवादी अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि सत्ता के बढ़ते दमन-उत्पीड़न और जनता के मूलभूत अधिकारों के हनन की बढ़ती घटनाओं के विरुद्ध एक व्यापक तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करना आज समय की माँग है। आज देश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत हो रहे विकास का रथ आम जनता के मूलभूत अधिकारों को रौंदता हुआ बढ़ रहा है। आतंक के विरुद्ध युद्ध के नाम पर देश के कई क्षेत्रों में जनता के विरुद्ध सरकार का आतंकवादी युद्ध जारी है। सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जनवाद का स्पेस कम होता जा रहा है। दूसरी ओर, जनवादी अधिकार संगठनों की संख्या बढ़ने के बावजूद इन हमलों का प्रभावी प्रतिरोध नहीं हो पा रहा है। ऐसे में, एक व्यापक आधार वाले तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन के लिए मिलकर प्रयास करने की ज़रूरत है।

मज़दूर आन्दोलन के दमन और गोरखपुर में श्रम क़ानूनों की स्थिति की जाँच के लिए दिल्ली से गयी तथ्यसंग्रह टीम की रिपोर्ट

दिल्ली से गये मीडियाकर्मियों के एक जाँच दल ने 19 से 21 मई तक गोरखपुर का दौरा करके और विभिन्न पक्षों से बात करने के बाद नई दिल्ली में अपनी जाँच रिपोर्ट जारी की। इस दल में हिन्दुस्तान के वरिष्ठ उपसम्पादक नागार्जुन सिंह, फिल्मकार चारु चन्द्र पाठक और कोलकाता के पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता सौरभ बनर्जी शामिल थे। तीन दिनों के दौरान जाँच दल ने विभिन्न प्रशासनिक अधिकारियों, श्रम विभाग, स्थानीय सामाजिक संगठनों, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों, श्रम संगठनों, मीडियाकर्मियों, श्रमिकों, श्रमिक नेताओं और प्रबुद्ध नागरिकों से मुलाक़ात करके इस पूरे घटनाक्रम की विस्तृत जाँच की।

गौतम नवलखा जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर बन्दिश लगाकर भारत सरकार कश्मीर की सच्चाई को छुपा नहीं सकती

जाने-माने मानवाधिकार कर्मी और प्रसिद्ध पत्रिका ‘इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली’ के सम्पादकीय सलाहकार गौतम नवलखा को भी 28 मई को श्रीनगर हवाई अड्डे पर हिरासत में ले लिया गया और उन्हें श्रीनगर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गयी। श्री नवलखा पिछले दो दशकों के दौरान अनेक बार कश्मीर की यात्रा पर गये हैं और वहाँ सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों को मुखरता से उठाते रहे हैं। हालाँकि इस बार वे अपनी मित्र के साथ निजी यात्रा पर कश्मीर जा रहे थे। श्रीनगर पहुँचने पर विमान से उतरते ही उन्हें हिरासत में ले लिया गया और उन्हें वापस दिल्ली जाने के लिए कहा गया। उस दिन कोई फ्लाइट नहीं होने के कारण उन्हें पुलिस हिरासत में रखा गया और किसी को उनसे मिलने की इजाज़त नहीं दी गयी। अगले दिन उन्हें वापस दिल्ली भेज दिया गया।

मालिकान-प्रशासन-पुलिस-राजनेता गँठजोड़ के विरुद्ध गोरखपुर के मज़दूरों के बहादुराना संघर्ष की एक और जीत

मालिकों की तमाम कोशिशों और प्रशासन की धमकियों के बावजूद गोरखपुर से क़रीब 2000 मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन की पहली मई की रैली में भाग लेने दिल्ली पहुँच गये। इनमें बरगदवाँ स्थित अंकुर उद्योग लिमिटेड नामक यार्न मिल के सैकड़ों मज़दूर भी थे। यह वही मिल है जहाँ 2009 में सबसे पहले मज़दूरों ने संगठित होने की शुरुआत की थी। दिल्ली से लौटकर उत्साह से भरपूर मज़दूर 3 मई की सुबह जैसे ही काम पर पहुँचे, उन्हें अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान की ओर से गोलियों का तोहफा मिला। पहले से बुलाये भाड़े के गुण्डों ने मज़दूरों पर अन्धाधुन्‍ध गोलियाँ चलायीं जिसमें 19 मज़दूर और एक स्कूल छात्रा घायल हो गये। दरअसल यह सब मज़दूरों को ”सबक़ सिखाने” की सुनियोजित योजना के तहत किया गया था। फैक्टरी गेट पर 18 अगुवा मज़दूरों के निलम्बन का नोटिस चस्पाँ था। मालिकान जानते थे कि मज़दूर इसका विरोध करेंगे। उन्हें अच्छी तरह कुचल देने का ठेका सहजनवाँ के कुख्यात अपराधी प्रदीप सिंह के गैंग को दिया गया था।

मज़दूरों के दमन, गिरफ़्तारियों व अवैध तालाबन्दी के विरोध में दूसरी याचिका

हम, अधोहस्ताक्षरी, गोरखपुर के ज़िला प्रशासन और पुलिस तन्त्र द्वारा गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन के दमन की कठोर निन्दा करते हैं। गोरखपुर के मज़दूरों ने गत 16 मई से गोरखपुर के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र की अंकुर उद्योग लिमिटेड नामक फ़ैक्टरी के मालिक द्वारा भाड़े के गुण्डों से करवायी गयी फ़ायरिंग में 19 मज़दूरों के घायल होने की घटना के खि़लाफ़ शान्तिपूर्ण ‘मज़दूर सत्याग्रह’ की शुरुआत की थी। लेकिन मज़दूरों की जायज़ माँगों पर ध्यान देने के बजाय ज़िला प्रशासन बेशर्मी के साथ फ़ैक्टरी मालिकों का पक्ष ले रहा है और इस शान्तिपूर्ण आन्दोलन को कुचलने पर आमादा है।