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कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (तेईसवीं क़िस्त)
इस लोकतन्त्र के तीसरे और चौथे खम्भे यानी न्यायपालिका और मीडिया की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता की असलियत
आनन्द सिंह
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इस धारावाहिक लेख की चार क़िस्तें ‘मज़दूर बिगुल’ के पूर्ववर्ती ‘नयी समाजवादी क्रान्ति का उद्घोषक बिगुल’ में प्रकाशित हुई थी। इसकी पहली बारह क़िस्तों के लेखक आलोक रंजन हैं। – सम्पादक
भारतीय लोकतन्त्र के दो प्रमुख स्तम्भों विधायिका और कार्यपालिका के जनविरोधी चरित्र का तो बहुत पहले ही पर्दाफ़ाश हो चुका था, परन्तु इसके तीसरे स्तम्भ — न्यायपालिका और तथाकथित चौथे स्तम्भ — मीडिया के चरित्र के बारे में अभी भी तमाम लोग गफ़लत में हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि न्यायपालिका और मीडिया के बारे में लोगों के दिलो-दिमाग़ में यह बात बैठा दी गयी है कि ये संस्थाएँ स्वतन्त्र और निष्पक्ष हैं और इनकी मौजूदगी से सरकार और संसद की ज़्यादतियों पर नियन्त्रण रहता है। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में तमाम ऐसे काण्ड और घपले-घोटाले सामने आये हैं जिनके बाद भारतीय राज्यसत्ता की इन दो संस्थाओं की साख़ पर भी बट्टा लगा है, परन्तु साथ ही साथ इन दो संस्थाओं द्वारा अपनी साख को पुर्नस्थापित करने की क़वायद भी जारी है। ऐसे समय में जब न्यायपालिका के नीचे से लेकर शीर्ष तक भ्रष्टाचार में डूबे होने की बातें सामने आने से लोगों का विश्वास डगमगा रहा था, न्यायपालिका ने हाल में कुछ प्रगतिशील दिखने वाले फैसले दिये हैं (मसलन दागी नेताओं से सम्बन्धित फैसला और ‘राइट-टू-रिजेक्ट’ यानी ख़ारिज करने के अधिकार से सम्बन्धित फैसला) जिनके बाद से जनता के अच्छे-खासे हिस्से में एक बार फिर इस तथाकथित लोकतन्त्र के प्रति खोयी हुई उम्मीद जाग गयी है। इसी तरह राडिया टेपकाण्ड, जी न्यूज़ प्रकरण और पेड न्यूज़ परिघटना के सामने आने के बाद मीडिया भी अपनी आत्मालोचना का ढोंग रचकर और तमाम नकली जनान्दोलनों की कवरेज करके अपने दामन पर लगे गहरे धब्बों को साफ़ करने में जुट गया है। ऐसे में इस सच्चाई को सामने लाना बेहद ज़रूरी है कि स्वतन्त्रता और निष्पक्षता का ढोंग करने वाली ये संस्थाएँ भी किस तरह से शोषण और उत्पीड़न पर टिकी मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था को और गहराई से स्थापित करने का काम करती है और इसलिए अपने चरित्र से ये जनविरोधी हैं।
भारतीय संविधान में न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक बताया गया है। यानी न्यायपालिका एक ऐसे संविधान की संरक्षक है जो निजी सम्पत्ति की इंच-इंच हिफ़ाज़त करने के लिए प्रतिबद्ध है। यही वजह है कि पूँजी और श्रम के बीच जारी संघर्ष में न्यायपालिका के अधिकांश फैसले पूँजी के पक्ष में होते हैं। न्यायपालिका प्राकृतिक न्याय पर टिके होने का कितना भी दम भरे, सच्चाई तो यह है कि यह बुर्जुआ न्याय पर टिकी होती है जिसके अनुसार मुट्ठीभर पूँजीपतियों द्वारा मेहनत-मज़दूरी करने वाली देश की बहुसंख्यक आबादी की मेहनत की लूट, शोषण और उत्पीड़न न्यायसंगत है। कोई भी न्यायशील इंसान अपने सहजबोध से इसी नतीजे पर पहुँचेगा कि किसी समाज में परजीवियों की एक छोटी सी जमात द्वारा मेहनत की लूट से विलासिता भरी ज़िन्दगी बिताना और मेहनतकशों का दरिद्रता भरा जीवन एक घोर अन्याय है। परन्तु बुर्जुआ न्यायप्रणाली के तहत इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। न्यायपालिका का काम महज़ इतना है कि मेहनत की जो लूट इस पूँजीवादी व्यवस्था में हो रही है, वह क़ानून के दायरे में हो। यहाँ तक कि इस लूट के परिमाण को और ज़्यादा भी बढ़ाना हो तो न्यायपालिका को उससे कोई गुरेज़ नहीं है, बशर्ते उसके लिए क़ानून में ज़रूरी संशोधन किये जायें।
भारतीय संविधान में जो थोड़े-बहुत अधिकार जनता को दिये गये हैं उनकी हिफ़ाज़त करने में भी भारतीय न्यायपालिका निहायत ही अक्षम साबित हुई है। ज्ञात हो कि भारतीय पूँजीवादी राज्य को एक नग्न फासिस्ट तानाशाही में तब्दील करने वाले आपातकाल को न्यायपालिका ने न्यायसंगत ठहराया था। इस धारावाहिक लेख में हम पहले ही यह चर्चा कर चुके हैं कि किस तरह संवैधानिक उपचार जनता की पहुँच से बाहर हैं। समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भी पैसे वालों की तूती बोलती है। अगर आपके पास पैसा है तो जघन्य से जघन्यतम अपराध करने के बावजूद क़ानून की आँखों में धूल झोंककर बाइज़्ज़त बरी हो सकते हैं क्योंकि तब आप राम जेठमलानी, कपिल सिब्बल, अरुण जेटली और हरीश साल्वे सरीखे वकीलों की सेवाएँ ख़रीद सकते हैं जिन्हें पहले से ही धनिकों के पक्ष में झुके बुर्जुआ क़ानून को पूरी तरह उनके पक्ष में करने में महारत हासिल है। इसकी एक ज़िन्दा मिसाल हाल ही में बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे मामले में देखने में आयी जिसमें पटना उच्च न्यायालय ने 27 महिलाओं और 15 बच्चों सहित 58 निर्दोष दलितों के बर्बर नरसंहार के मुकदमे में सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया। इसी तरह भोपाल गैस त्रासदी, 1984 के सिख विरोधी दंगे, 2002 के गुजरात दंगों को अंजाम देने वाले मुख्य अपराधियों का न्यायपालिका कुछ भी न बिगाड़ पायी। इसी तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस देश में न्याय प्रक्रिया के सुस्त और लचर होने और ग़रीबी की वजह से लाखों निर्दोष अण्डरट्रायल के रूप में जेलों में सड़ रहे हैं। इस देश की विभिन्न अदालतों में लगभग 3 करोड़ मुकदमे लम्बित हैं। एक आकलन के मुताबिक यदि भारतीय न्याय व्यवस्था इसी रफ़्तार से फैसले देती रहे तो उसे कुल लम्बित मामलों का निपटारा करने में 320 साल लग जायेंगे।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों की चर्चा के दौरान हम यह देख चुके हैं कि किस प्रकार भारतीय राज्य नव-उदारवादी नीतियों के तहत एक-एक करके अपने वायदों से मुकरता जा रहा है और किस प्रकार इन सिद्धान्तों की धज्जियाँ ख़ुद इस व्यवस्था के पैरोकार ही उड़ाते हैं। इसके बावजूद संविधान की संरक्षक न्यायपालिका न सिर्फ़ चुप्पी साधे रही बल्कि कई मामलों में तो उसने इन नीतियों के पक्ष में अपने फैसले दिये। इस दौर में मुनाफ़े की अन्धी हवस की ख़ातिर श्रम क़ानूनों को ज़्यादा से ज़्यादा लचीला और लचर बनाने की साज़िश के खि़लाफ़ भी न्यायपालिका ने चूँ तक नहीं की। यह बात सर्वविदित है कि इस देश में मौजूदा श्रम क़ानून भी देश के किसी भी हिस्से में नहीं लागू होते। परन्तु न्यायपालिका को श्रम क़ानूनों को लागू करने के मामले में क़ानून के संरक्षक की भूमिका याद नहीं रहती जिससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि दरअसल यह शासक वर्गों के हितों का संरक्षण करती है। यही वजह है कि न्यायपालिका के फ़ैसले अमूमन मज़दूरों के खि़लाफ़ ही जाते हैं। मारुति मज़दूरों के हालिया आन्दोलन में गिरफ़्तार मज़दूरों की जमानत ठुकराते हुए न्यायधीश महोदय ने यह तर्क दिया कि मज़दूरों को ज़मानत पर रिहा करने से देश के भावी निवेशकों को एक गलत सन्देश जायेगा। साफ़ है कि इस देश में न्यायपालिका अब खुलेआम पूँजी के हित में काम कर रही है।
कुछ दशकों पहले तक न्यायपालिका की छवि एक बेदाग़ संस्था के रूप में थी जो समाज की रोम-रोम में फ़ैले भ्रष्टाचार से सापेक्षतः मुक्त थी। लेकिन कुछ वर्षों पहले सर्वोच्च न्यायालय के ही तत्कालीन मुख्य न्यायधीश एस. पी. भरूचा ने यह माना था कि सर्वोच्च न्यायालय के लगभग बीस फ़ीसदी न्यायधीश भ्रष्ट हैं। लेकिन तब से अब तक भ्रष्टाचार की गटरगंगा में काफी पानी बह चुका है। अब तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों तक की भ्रष्टाचार में संलिप्तता की बातें सामने आ रही हैं। अभी हाल ही में पूर्व क़ानून मन्त्री शान्ति भूषण ने यह खुलासा किया था कि सर्वोच्व न्यायालय के पिछले 16 मुख्य न्यायधीशों में से 8 भ्रष्ट कार्रवाइयों में लिप्त थे।
आइये अब भारतीय लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माने जाने वाले मीडिया की असलियत जानते हैं। मीडिया को आमतौर पर राज्यसत्ता से स्वतन्त्र एक निष्पक्ष संस्था के रूप में प्रचारित किया जाता है और हमें यह बताया जाता है कि लोकतन्त्र में जनता की आवाज़ उठाने में मीडिया एक सशक्त भूमिका अदा करता है। लेकिन इस शोरगुल में अक्सर यह बात दबा दी जाती है कि मीडिया के इस लगातार बढ़ते ताने-बाने पर मालिकाना हक़ किसके पास है। सच्चाई तो यह है कि इस देश के तमाम अख़बार और टी.वी. चैनलों में बड़े कॉरपोरेट घरानों की पूँजी लगी है। ज़ाहिर है कि ये घराने अपनी पूँजी जनता की आवाज़ उठाने के लिए नहीं लगाते। इनका मक़सद अकूत मुनाफ़ा कमाना तो होता ही है, लेकिन आज के दौर में मीडिया उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक काम यह करता है कि वह समाज में शासक वर्गों के पक्ष में जनमत तैयार करता है। भिन्न-भिन्न तरीकों से मीडिया लोगों को यह बताता है कि तमाम कमियों के बावजूद पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है और इसलिए जनता को इसके विकल्प के बारे में सोचना छोड़कर इसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। मीडिया में मौजूद तमाम विश्लेषक कुल मिलाकर इस व्यवस्था के दायरे में कुछ सुधारों की पैरोकारी करते हैं ताकि इसके अमानवीय चेहरे को किसी तरह से ढका जा सके।
इस प्रकार मीडिया समाज में शासक वर्गों के वैचारिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को गहराई से स्थापित करने का काम बखूबी अंजाम देता है। वह तमाम मुद्दों का विश्लेषण करने के लिए एक व्याख्यात्मक ढाँचा प्रस्तुत करता है, एक ऐसा व्याख्यात्मक ढाँचा जो देखने में तो रैडिकल लगे परन्तु वह समस्याओं की जड़ यानी पूँजीवादी व्यवस्था पर एक भी सवाल नहीं करता। मीडिया आमजन को शासक वर्ग के नज़रिये से चीजों को देखने की आदत डालता है। अपने दामन पर लगे धब्बों को साफ़ करने और अपने को निष्पक्ष साबित करने के लिए मीडिया आजकल आत्मालोचना का ढोंग भी रचता है।
मीडिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर लम्बी-चौड़ी बहसें आयोजित की जाती हैं। परन्तु इन बहसों में शामिल होने वाले पत्रकार हमें यह नहीं बताते कि वे सरकार से अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी की लड़ाई भले ही जीत लें पर मीडिया के कॉरपोरेटीकरण के इस युग में वे पूँजी की ग़ुलामी से आज़ाद नहीं हो सकते। क्या इस सच्चाई से मुँह मोड़ा जा सकता है कि कॉरपोरेट मीडिया में काम करने वाले पत्रकार एक उजरती बौद्धिक मज़दूर हैं और सम्पादक का काम वही होता है जो कारख़ानों में सुपरवाइज़र का। कारख़ानों की तर्ज़ पर अब सूचना का उत्पादन करने वाले मीडिया घरानों में काम करने वाले पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को भी दस-दस बारह-बारह घण्टे खटना पड़ता है और उसके बावजूद उनकी नौकरी की सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं रहती। हाल ही में मुकेश अम्बानी के मालिकाने वाले टीवी चैनल सीएनएन-आईबीएन से लगभग 350 पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को बिना किसी पूर्व सूचना के निकाल दिया गया। इससे पहले महुवा टीवी चैनल, सारदा समूह और दैनिक भास्कर समूह से भी बड़े पैमाने पर छँटनी की ख़बरें सामने आयीं। ऐसे में यह अपेक्षा करना बेमानी है कि मीडिया जनता के हित में काम करेगा।
एक दौर था जब पत्रकारिता को एक उदात्त पेशा और सामाजिक बदलाव का अस्त्र माना जाता था। परन्तु मीडिया-तन्त्र पर पूँजी का शिकंजा कसने के साथ ही पत्रकारिता क्रमशः दलाली में तब्दील होती गयी। नीरा राडिया टेप काण्ड में यह साफ़ उभरकर आया कि किस तरह मीडिया जगत के नामी-गिरामी पत्रकार उद्योगपतियों और नेताओं के बीच बिचौलिये का काम करते हैं। ज़ी न्यूज़ प्रकरण के बाद यह सच्चाई उजागर हो चुकी है कि पत्रकार और सम्पादक किसी ख़बर को दिखाने या न दिखाने के लिए पूँजीपतियों से मोटी रकम वसूलते हैं। पेड न्यूज़ की पूरी परिघटना यह दिखाती है कि किस तरह पूँजीवादी मीडिया में ख़बरें भी साबुन, तेल, मंजन की तरह एक बिकाऊ माल बन चुकी हैं। ऐसे में यह भरोसा करना मुश्किल है कि जो ख़बरें हमें परोसी जा रही हैं वे पूँजीपति वर्ग के इस या उस खेमे द्वारा प्रायोजित नहीं हैं। ज़ाहिर है, पूँजी की ताक़त के बूते खड़ा मुख्य धारा का मीडिया पूँजी और श्रम के बीच जारी संघर्ष में श्रम का पक्ष ले ही नहीं सकता। श्रम का पक्ष तो ऐसा ही मीडिया ले सकता है जो मेहनतकशों के खून-पसीने की कमाई के दम पर टिका हो।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2013
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