क्या मुख्यमंत्री या विधायक श्रम-कानूनों को लागू करवाने की जिम्मेदारी लेंगे?

चुनाव में मज़दूरों के पास क्या विकल्प है?

दिल्ली में चुनावी मौसम छाया हुआ है। सभी चुनावबाज़ पार्टियों के नेता बड़े-बड़े नारों-वादों के साथ हमारे बीच आ रहे हैं। कांग्रेस अपने पन्द्रह साल के ‘वि‍कास’ का ढोल पीट रही है, तो वहीं भाजपा ‘सुशासन’ के लिए अपना दावा ठोंक रही है, साथ ही आम आदमी पार्टी ‘भ्रष्टाचार-मुक्त दिल्ली’ बनाने के सपने दिखा रही है। ऐसे में सवाल यह है कि जब आज महँगाई आसमान छू रही है, थाली से दाल-सब्ज़ी ग़ायब हैं, बेहतर शिक्षा, चिकित्सा, आवास की सुविधा मेहनतकश आबादी की पहुँच से कोसों दूर हो रही है, तो फिर हम चुनाव में किसे वोट दें? आज कौन-सी पूँजीवादी चुनावी पार्टी हमें इस नारकीय हालात में कुछ राहत पहुँचा सकती है!? क्या 62 साल ये समझने के लिए काफी नहीं हैं कि इन पूँजीवादी चुनावों में धनबल और बाहुबल की जो नुमाइश और आज़माइश होती है, उसमें कोई भी पार्टी जीते, लेकिन हार आम मेहनतकश जनता की ही होती है।

मेहनतकश साथियो! ज़रा इन मुद्दों पर सोचिए। पहला, आज दिल्ली में लगभग 50 लाख मज़दूर आबादी तमाम फ़ैक्टरी, कारखानों, दुकानों से लेकर राजमिस्त्री, बेलदारी जैसे कामों में जी-तोड़ मेहनत के बावजूद मुश्किल से अपने परिवार का पेट भर पा रही है। यूँ तो दिल्ली सरकार ने मज़दूरों के 8 घण्टे काम के लिए न्यूनतम मज़दूरी तय कर रखी है, जो मौजूदा समय में लगभग 9000 है लेकिन क्या हमारी मुख्यमंत्री को नहीं पता कि आज 8 घण्टे कानून से लेकर न्यूनतम मज़दूरी कानून तक पूँजीपतियों, मालिकों और ठेकेदारों की जेब में रहते है? क्या हमारे विधायकों को नहीं पता कि फ़ैक्टरियों में मज़दूरों की मौत या दुर्घटना होने पर न तो कोई उचित मुआवज़ा मिलता है और न ही न्याय? वैसे तो सरकार द्वारा तय की गयी न्यूनतम मज़दूरी ही मज़ाक है। इसमें केवल मज़दूर परिवार के न्यूनतम ज़रूरी भोजन-सम्बन्धी ख़र्च को आधार बनाया जाता है, यानी बस बमुश्किल जीने की खुराक ताकि मज़दूर अगले दिन फि‍र कोल्हू के बैल की तरह खटकर मालिकों की तिजोरी भरने आ सके। जबकि दूसरी तरफ अगर दिल्ली के विधायकों के वेतन पर ग़ौर करे तो उन्हें सारे सरकारी भत्तों-सुविधाओं के साथ 82,000 रुपये मुफ्त में मिल जाते है।

सरकार ने 15वें राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन 1957 की सिफारिश के अनुसार न्यूनतम मजदूरी की गणना में प्रत्येक कमाने वाले पर तीन व्यक्तियों के प्रति व्यक्ति 2700 कैलोरी खाद्यान्न,कपड़ा, आवास, ईंधन, बिजली आदि के ख़र्च को शामिल करने की बात कही थी। इसके अतिरिक्त शिक्षा, दवा-इलाज़, पर्व-त्योहार, शादी एवं बुढ़ापे का ख़र्च भी न्यूनतम मज़दूरी में शामिल होना चाहिए। इन सब ख़र्चों के आधार पर आज न्यूनतम मज़दूरी 15,000 रुपये तय होनी चाहिए जो एक मज़दूर की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें।

लेकिन हम सभी जानते हैं कि ऐसी तमाम सिफारिशें और मज़दूरों के लिए बने 260 श्रम कानून असल में ‘शर्म क़ानून’ बनकर रह गये हैं। श्रम अधिकारों की रक्षा करने वाला लेबर कोर्ट दलालों-ठेकेदारों का अड्डा हैं जहाँ लेबर इंस्पेक्टर से लेकर लेबर कमिश्नर तक मालिकों के पक्ष में खड़े रहते हैं। ये गोरखधन्धा नेताओं-मंत्रियों, पूँजीपतियों और लेबर कोर्ट की साँठ-गाँठ के बूते ही चलता है। इसका सबसे बड़ा कारण तो ये है कि फ़ैक्टरी मालिक, व्यापारी किसी न किसी चुनावबाज़ पार्टी से जुड़े होते हैं या इन्हीं नेताओं-मंत्रियों की ही फ़ैक्टरियाँ चल रही हैं। ये ही पूँजीपति हैं जो कांग्रेस, भाजपा से लेकर सभी चुनावी पार्टियों को चुनाव के समय करोड़ों-करोड़ के चन्दे देते हैं। ज़ाहिर है कि ये धन्नासेठ,व्यापारी, ठेकेदार और मालिक समाजसेवा के लिए ये चन्दे नहीं देते। ये सभी चुनावी पार्टियों के मुँह में हड्डी इसीलिए पकड़ाते हैं कि सरकार चाहे किसी भी चुनावी दल्लाल की बने, नीतियाँ पूँजीपतियों की सेवा के लिए ही बनें। चाहे किसी भी चुनावबाज़ पार्टी की सरकार बने, वह पूँजीपतियों की ‘मैनेजिंग कमेटी’ का ही काम करती है।

अब बात ज़रा आम आदमी पार्टी ‘आप’ के ईमानदार उम्मीदवारों की!! ये तथाकथित ईमानदारी के पुतले लूट और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के खूनी चेहरे पर पर्दा डालकर मेहनतकश आबादी को ‘भष्टाचार मुक्त भारत’ के झूठे सपने दिखा रहे हैं। क्योंकि पहला सवाल तो ये है कि केजरीवाल एण्ड पार्टी अपने तमाम उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं द्वारा चलाये जा रहे फ़ैक्टरी-कारखानों या दुकानों में श्रम-कानून के उल्लंघन के खिलाफ कोई आव़ाज क्यों नहीं उठाते। इसी से पता चलता है कि भ्रष्टाचार-विरोध की इस नौटंकी की असलियत क्या है। मगर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि केजरीवाल एण्ड पार्टी असल में ‘बुरे पूँजीवाद’ की जगह ‘अच्छे पूँजीवाद’ को क्यों लाना चाहती है? क्या उन्हें पता नहीं कि सन्त और भले पूँजीवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती? क्या केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण जैसे पढ़े-लिखे लोग यह नहीं जानते कि पूँजीवाद स्वयं एक भ्रष्टाचार है जो मज़दूरों के मेहनत की लूट और प्रकृति की लूट पर ही टिका रह सकता है? साफ है कि आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद का दिवास्वप्न दिखाकर मध्य और निम्नमध्य वर्ग को बेवकूफ बना रही है और अन्त में उसका मकसद भी पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करना है।

मेहनतकश साथियो! अब वक्त आज गया है कि हम इन चुनावी मदारियों के भ्रम से खुद को आज़ाद करें! हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है? अब वक्‍त आ गया है कि इस देश के 80 करोड़ मज़दूर, ग़रीब किसान और खेतिहर मज़दूर अपने आपको संगठित करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और पूँजीवादी चुनावों की ख़र्चीली नौटंकी के ज़रिये नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से देश में मेहनतकशों के लोकस्वराज्य की स्थापना करें। इसके लिए हमें आज से ही एक ओर अपने रोज़मर्रा के हक़ों जैसे कि हमारे श्रम अधिकारों, रिहायश, चिकित्सा, शिक्षा और भोजन के लिए अपने संगठन और यूनियन बनाकर लड़ना होगा, वहीं हमें दूरगामी लड़ाई यानी कि पूरे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर अपना हक़ कायम करने की लड़ाई की तैयारी भी आज से ही शुरू करनी होगी। वरना, वह समय दूर नहीं जब दुश्मन हमें अपनी संगीनों से लहूलुहान कर देगा और कहेगा कि ‘देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!’

जब तक पूँजीवाद रहेगा! मेहनतकश बर्बाद रहेगा!!

भगतसिंह का सपना आज भी अधूरा! जागेगा मेहनतकश उसे करेगा पूरा!!

बिगुल मज़दूर दस्ता  करावल नगर मज़दूर यूनियन

 

‘चुनाव में मज़दूरों के पास क्या विकल्प है’ पर्चे की पीडीएफ देखें


 

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