चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है
सम्पादकीय
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की महानौटंकी देश में चालू हो गयी है। उसके पहले पाँच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव सेमीफ़ाइनल बताये जा रहे हैं। चुनावी महारथियों की हुंकारें शुरू हो गयी हैं। एक-दूसरे को चुनावी जंग में धूल चटाने के ऐलान के साथ ही चुनावी हम्माम में एक-दूसरे को नंगा करने की होड़ भी मची हुई है।
जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम हो-हल्ले के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘भारत निर्माण’ का राग अलापने में लगी हुई है, उसके युवराज राहुल गाँधी बार-बार ग़रीबों के सबसे बड़े पैरोकार बनने के दावे कर रहे हैं, मगर जनता इतनी नादान नहीं कि वह भूल जाये कि पिछले 10 वर्ष में उन्हीं की पार्टी की सरकार ने ग़रीबों की हड्डियाँ निचोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उधर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी अन्धराष्ट्रवादी नारों और जुमलों के साथ देश के विकास के हवाई दावों से मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का ध्यान खींच रहे हैं जो गुजरात में उसकी सरपरस्ती में हुए क़त्लेआम से भी आँख मूँदने को तैयार है। गुजरात के तथाकथित विकास के लिए उन्होंने मज़दूरों को दबाने-निचोड़ने और पूँजीपतियों को हर क़ीमत पर लूट की छूट देने की जो मिसाल क़ायम की है उसे देखकर कारपोरेट सेक्टर के तमाम महारथियों के वे प्रिय हो गये हैं जो आर्थिक संकट के इस माहौल में फासिस्ट घोड़े पर दाँव लगाने को तैयार बैठे हैं। वोटों की फसल काटने के लिए दंगों की आग भड़काने से लेकर हर तरह के घटिया हथकण्डे आज़माये जा रहे हैं।
उदारीकरण-निजीकरण की विनाशकारी नीतियाँ किसी पार्टी के लिये मुद्दा नहीं हैं क्योंकि इन नीतियों को लागू करने पर सबकी आम राय है। पिछले दो दशक के दौरान केन्द्र और राज्यों में संसदीय वामपन्थियों समेत सभी पार्टियाँ या गठबन्धन सरकारें चला चुके हैं या चला रहे हैं और सबने इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया है। देशी-विदेशी पूँजी की खिदमत करने के मामले में राष्ट्रीय या बड़ी चुनावी पार्टियाँ ही नहीं क्षेत्रीय स्तर के क्षत्रप भी होड़ मचाये हुए हैं।
संसदीय वामपन्थी अवसरवाद के अपने पिछले रिकार्ड को भी धता बताते हुए जयललिता जैसी महाभ्रष्ट और फासिस्ट नेताओं से लेकर उदारीकरण की नीतियों के खुले पैरोकार नवीन पटनायक और नीतीश तक के साथ मोर्चा बनाने की क़वायद में लगे हुए हैं।
यह बात बिल्कुल साफ हो चुकी है कि देश को चलाने के सवाल पर किसी पार्टी की बुनियादी नीतियों में कोई अन्तर नहीं है। तभी तो बड़े आराम से इस गठबन्धन के दल उछलकर उस गठबन्धन में शामिल हो जा रहे हैं।
तब फिर सवाल उठता है कि चुनाव किस बात का? चुनाव में फैसला महज़ इस बात का होना है कि अगले पाँच साल तक सिंहासन पर बैठकर जनता को डसने और ख़ून चूसने का अधिकार कौन हासिल करेगा।
देश का पूँजीवादी जनतंत्र आज पतन के उस मुकाम पर पहुँच चुका है, जहाँ अब इस व्यवस्था के दायरे में ही सही, छोटे-मोटे सुधारों के लिये भी आम जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। अब तो जनता को इस चुनाव में चुनना सिर्फ यह है कि लुटेरों का कौन सा गिरोह उन पर सवारी गाँठेगा। विभिन्न चुनावी पार्टियों के बीच इस बात के लिये चुनावी जंग का फैसला होना है कि कुर्सी पर बैठकर कौन देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा करेगा। कौन मेहनतकश अवाम को लूटने के लिये तरह-तरह के कानून बनायेगा। कौन मेहनतकश की आवाज कुचलने के लिये दमन का पाटा चलायेगा।
दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिज़ोरम में विधानसभा चुनाव का रंग छाया हुआ है। सभी चुनावबाज़ पार्टियों के नेता बड़े-बड़े नारों-वादों के साथ जनता के बीच जा रहे हैं। राजधानी दिल्ली में कांग्रेस अपने पन्द्रह साल के “विकास” का ढोल पीट रही है, तो वहीं भाजपा “सुशासन” के लिए अपना दावा ठोक रही है, साथ ही आम आदमी पार्टी “भ्रष्टाचार-मुक्त दिल्ली” बनाने के सपने दिखा रही है। मगर सवाल यह है कि जब आज महँगाई आसमान छू रही है, थाली से दाल-सब्ज़ी ग़ायब हैं, बेहतर शिक्षा, चिकित्सा, आवास की सुविधा मेहनतकश आबादी की पहुँच से कोसों दूर हो रही है, तो फिर हम चुनाव में किसे वोट दें? आज कौन-सी पूँजीवादी चुनावी पार्टी हमें इस नारकीय हालात में कुछ राहत पहुँचा सकती है!? क्या 62 साल ये समझने के लिए काफी नहीं हैं कि इन पूँजीवादी चुनावों में धनबल और बाहुबल की जो नुमाइश और आज़माइश होती है, उसमें कोई भी पार्टी जीते, लेकिन हार आम मेहनतकश जनता की ही होती है।
मेहनतकश साथियो! ज़रा इन मुद्दों पर सोचिए। पहला, आज दिल्ली में लगभग 50 लाख मज़दूर आबादी तमाम फ़ैक्टरी, कारखानों, दुकानों से लेकर राजमिस्त्री, बेलदारी जैसे कामों में जी-तोड़ मेहनत के बावजूद मुश्किल से अपने परिवार का पेट भर पा रही है। यूँ तो दिल्ली सरकार ने मज़दूरों के 8 घण्टे काम के लिए न्यूनतम मज़दूरी तय कर रखी है, जो मौजूदा समय में लगभग 9000 है लेकिन क्या हमारी मुख्यमंत्री को नहीं पता कि आज 8 घण्टे कानून से लेकर न्यूनतम मज़दूरी कानून तक पूँजीपतियों, मालिकों और ठेकेदारों की जेब में रहते है? क्या हमारे विधायकों को नहीं पता कि फ़ैक्टरियों में मज़दूरों की मौत या दुर्घटना होने पर न तो कोई उचित मुआवज़ा मिलता है और न ही न्याय? वैसे तो सरकार द्वारा तय की गयी न्यूनतम मज़दूरी ही मज़ाक है। इसमें केवल मज़दूर परिवार के न्यूनतम ज़रूरी भोजन-सम्बन्धी ख़र्च को आधार बनाया जाता है, यानी बस बमुश्किल जीने की खुराक ताकि मज़दूर अगले दिन फिर कोल्हू के बैल की तरह खटकर मालिकों की तिजोरी भरने आ सके। जबकि दूसरी तरफ अगर दिल्ली के विधायकों के वेतन पर ग़ौर करे तो उन्हें सारे सरकारी भत्तों-सुविधाओं के साथ 82,000 रुपये मुफ्त में मिल जाते है।
सरकार ने 15वें राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन (1957) की सिफ़ारिश के अनुसार न्यूनतम मजदूरी की गणना में प्रत्येक कमाने वाले पर तीन व्यक्तियों के प्रति व्यक्ति 2700 कैलोरी खाद्यान्न, कपड़ा, आवास, ईधन, बिजली आदि के ख़र्च को शामिल करने की बात कही थी। इसके अतिरिक्त शिक्षा, दवा-इलाज़, पर्व-त्योहार, शादी एवं बुढ़ापे का ख़र्च भी न्यूनतम मज़दूरी में शामिल होना चाहिए। इन सब ख़र्चों के आधार पर आज न्यूनतम मज़दूरी 15,000 रुपये तय होनी चाहिए जो एक मज़दूर की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें।
लेकिन हम सभी जानते हैं कि ऐसी तमाम सिफारिशें और मज़दूरों के लिए बने 260 श्रम कानून असल में ‘शर्म क़ानून’ बनकर रह गये हैं। श्रम अधिकारों की रक्षा करने वाला लेबर कोर्ट दलालों-ठेकेदारों का अड्डा हैं जहाँ लेबर इंस्पेक्टर से लेकर लेबर कमिश्नर तक मालिकों के पक्ष में खड़े रहते हैं। ये गोरखधन्धा नेताओं-मंत्रियों, पूँजीपतियों और लेबर कोर्ट की साँठ-गाँठ के बूते ही चलता है। इसका सबसे बड़ा कारण तो ये है कि फ़ैक्टरी मालिक, व्यापारी किसी न किसी चुनावबाज़ पार्टी से जुड़े होते हैं या इन्हीं नेताओं-मंत्रियों की ही फ़ैक्टरियाँ चल रही हैं। ये ही पूँजीपति हैं जो कांग्रेस, भाजपा से लेकर सभी चुनावी पार्टियों को चुनाव के समय करोड़ों-करोड़ के चन्दे देते हैं। ज़ाहिर है कि ये धन्नासेठ, व्यापारी, ठेकेदार और मालिक समाजसेवा के लिए ये चन्दे नहीं देते। ये सभी चुनावी पार्टियों के मुँह में हड्डी इसीलिए पकड़ाते हैं कि सरकार चाहे किसी भी चुनावी दल्लाल की बने, नीतियाँ पूँजीपतियों की सेवा के लिए ही बनें। चाहे किसी भी चुनावबाज़ पार्टी की सरकार बने, वह पूँजीपतियों की ‘मैनेजिंग कमेटी’ का ही काम करती है। तभी 2009 लोकसभा चुनाव में टाटा-अम्बानी जैसे बड़े पूँजीपतियों ने 50-50 करोड़ रूपये का चन्दा कांग्रेस-भाजपा दोनों को दिया ताकि सत्ता में कोई भी आये, लेकिन नीतियाँ मालिकों के लिए ही बनाए।
अब बात ज़रा आम आदमी पार्टी (आप) के ईमानदार उम्मीदवारों की!! ये तथाकथित ईमानदारी के पुतले लूट और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के खूनी चेहरे पर पर्दा डालकर मेहनतकश आबादी को “भ्रष्टाचार मुक्त भारत” के झूठे सपने दिखा रहे हैं। क्योंकि पहला सवाल तो ये है कि केजरीवाल एण्ड पार्टी अपने तमाम उम्मीदवारों और कार्यकर्त्ताओं द्वारा चलाये जा रहे फ़ैक्टरी-कारखानों या दुकानों में श्रम-कानून के उल्लंघन के खिलाफ कोई आव़ाज क्यों नहीं उठाते। इसी से पता चलता है कि भ्रष्टाचार-विरोध की इस नौटंकी की असलियत क्या है। मगर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि केजरीवाल एण्ड पार्टी असल में “बुरे पूँजीवाद” की जगह “अच्छे पूँजीवाद” को क्यों लाना चाहती है? क्या उन्हें पता नहीं कि सन्त और भले पूँजीवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती? क्या केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण जैसे पढ़े-लिखे लोग यह नहीं जानते कि पूँजीवाद स्वयं एक भ्रष्टाचार है जो मज़दूरों के मेहनत की लूट और प्रकृति की लूट पर ही टिका रह सकता है? साफ है कि आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद का दिवास्वप्न दिखाकर मध्य और निम्नमध्य वर्ग को बेवकूफ बना रही है और अन्त में उसका मकसद भी पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करना है।
मेहनतकश साथियो! अब वक्त आ गया है कि हम इन चुनावी मदारियों के भ्रम से खुद को आज़ाद करें! हम भी दिल ही दिल जानते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, और आप जैसी चुनावबाज़ पार्टियों का लेना-देना सिर्फ़ मालिकों, ठेकेदारों और दल्लालों के साथ है! उनका काम ही है इन लुटेरों के मुनाफ़े को सुरक्षित करना और बढ़ाना! ऐसे में, कुछ जूठन की चाहत में, क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण या फिर धर्म आदि के आधार पर इस या उस चुनावी मेंढक को वोट डालने से क्या बदलेगा? क्या पिछले 62 वर्षों में कुछ बदला है?
ऐसे में मेहनतकश अवाम के सामने विकल्प क्या है? ‘बिगुल’ के पन्नों पर हम बार-बार यह सच्चाई दुहराते रहे हैं कि विकल्प एक ही है मौजूदा पूँजीवादी जनतंत्र का नाश और उसके स्थान पर मेहनतकशों के सच्चे जनतंत्र की स्थापना। केवल तभी मेहनतकशों को देशी-विदेशी पूँजी की गुलामी से सच्ची आज़ादी मिलेगी और पूँजीवादी जनतंत्र का पहाड़ जैसा बोझ छाती से हटाया जा सकेगा। मौजूदा पूँजीवादी जनतंत्र को उखाड़ फेंककर ही एक ऐसा समाज बनाया जा सकता है, जिसमें उत्पादन, राजकाज और पूरे समाज पर मेहनतकश अवाम का नियंत्रण कायम हो। केवल तभी भूख, बेकारी, भ्रष्टाचार से मुक्त एक नया मानवीय समाज बनाया जा सकता है।
मेहनतकश अवाम के हरावलों को मौजूदा लोकसभा चुनाव के मौके पर पूँजीवादी जनतंत्र का ठोस ढंग से भण्डाफोड़ करने के साथ ही साथ ही आम मेहनतकशों के बीच यह विकल्प भी पेश करना होगा। भले ही आज आम मेहनतकश अवाम को यह असम्भव सा लगे लेकिन हमें उनके दिलों में यह विश्वास जमाना ही होगा कि यह सम्भव है और यही एकमात्र रास्ता है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2013
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