दिल्ली विधानसभा चुनाव की सुबह हुआ एक संवाद जो क्रोधान्तिकी सिद्ध हुआ
कविता
– वोट डालने नहीं जा रही हैं?
– मेरा वोट यहाँ नहीं। वैसे मैं वोट नहीं डालती।
– क्यों?
– क्योंकि हर हाल में यह चुनाव पूँजीपतियों की ही सरकार बनाता है। जीते चाहे कोई, पूँजीपति जीतते हैं, जनता हारती है।
–फिर भी, लोकतंत्र है! अब तो यह हमारे ऊपर है कि हम बेहतर नेता चुनें!
– कुछ भी हमारे ऊपर नहीं होता। एक ईमानदार आम आदमी चुनाव लड़ना चाहे, तो वह साइकिल या स्कूटर पर अपना पूरा चुनाव क्षेत्र भी कवर नहीं कर सकता। भारत में एक एम.पी. का उम्मीदवार औसतन 10 करोड़ और बड़ी पार्टियों का उम्मीदवार औसतन 30 करोड़ खर्च करता है। और किसी चमत्कार से वह चुन भी लिया जाये, तो संसद में जाकर क्या करेगा जहाँ सुअर लोट लगाते हैं।
– संसद ही तो सारे कानून बनाती है!
– संसद सिर्फ बहसबाज़ी का अड्डा है। बहुसंख्या वाली पार्टी सरकार बनाती है, और फिर जो बिल वह पेश करेगी, उसे पास होना ही है। सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट का दो-दो, तीन-तीन प्रतिशत खर्च करती है, 70-75 प्रतिशत सीधे या घुमा-फिराकर पूँजीपतियों के हित के कामों में ख़र्च होता है। यह लोकतंत्र है, जहाँ अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या के मामले में देश अमेरिका, चीन के साथ खड़ा है और ग़रीबी के मामले में पूरी दुनिया के सबसे नीचे के देशों में शामिल है।
– फिर भी बहन जी, किसी न किसी को इन हालात में चुनना तो होगा ही। अब मान लीजिये, ‘आप’ पार्टी आ गयी तो भ्रष्टाचार से कुछ राहत तो मिल जायेगी!
– हमारा लोकतांत्रिक अधिकार यह भी है कि किसी को न चुनें! बाध्यता क्या है? देश में जितने प्रतिशत लोग वोट देते हैं, उनमें से बहुमत पाने वाली पार्टी को बमुश्किल तमाम कुल वयस्क आबादी का 12-15 प्रतिशत वोट मिलता है। इस खेल में कोई न कोई तो आयेगा ही। रहा सवाल ‘आप’ पार्टी का, तो ये यदि दिल्ली नहीं देश में भी सरकार बना लें तो कोई फर्क नहीं पड़्रेगा। जब पूँजीपति लूटता है तो उसके अमले-चाकर, मंत्री-अफसर सदाचारी क्यों होंगे? वे भी घूस लेंगे। कमीशनखोरी होगी, दलाली होगी, हवाला कारोबार होगा। काला धन तो सफेद के साथ पैदा होगा ही। दरअसल, पूँजीवाद स्वयं में ही एक भ्रष्टाचार है। केजरीवाल क्या करेंगे? जनलोकपाल के नौकरशाही तंत्र में ही भ्रष्टाचार फैल जायेगा। ये केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवाद के गन्दे कपड़े धोते रहने वाले लॉण्ड्री वाले हैं। सत्ता को बीच-बीच में ऐसे सुधारक चेहरों की ज़रूरत पड़ती है, जनता के मोहभंग को रोकने के लिए, उसे भ्रमित करने के लिए। केजरीवाल मज़दूरों की कभी बात नहीं करते, साम्राज्यवादी लूट के खि़लाफ़ उनकी क्या नीति है, काले दमनकारी क़ानूनों के बारे में उनकी क्या राय है? कुछ गुब्बारे फुलाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे गुब्बारों की जिन्दगी ज़्यादा नहीं होती, जल्दी ही फट या पिचक जायेंगे।।
– आपकी बातें तो कम्युनिस्टों जैसी हैं!
–हाँ, मैं मार्क्सवादी हूँ!
– अच्छा!! सी.पी.आई. हैं, सी.पी.एम. हैं, लिबरेशन हैं कि माओवादी!
– इनमें से कोई नहीं। हाँ, यह मानती हूँ कि मज़दूर संगठित होंगे, उनकी क्रान्तिकारी पार्टी बनेगी और एक न एक दिन जनक्रान्ति होगी!
– यानी लोकतंत्र में आपका विश्वास नहीं!
– नहीं, अधिकतम लोकतंत्र में मेरा विश्वास है। यदि देश की बहुसंख्या इस सत्ता को बलपूर्वक बदलना चाहे तो ज़रूर बदल दे। यही तो सच्चा लोकतंत्र होगा।
– पर आज वह ऐसा नहीं चाहती। आज आप जैसे लोग अल्पमत में हैं।
– लोकतंत्र के मुताबिक अल्पमत को भी अपना विचार रखने और प्रचारित करने की आज़ादी है।
– ये सब दूर की बातें हैं।
– जो चीज़ कभी दूर होती है, वही एक दिन नज़दीक भी आ जाती है।
– ये सब दर्शन की बातें हैं, ज़िन्दगी की नहीं।
– दर्शन और विचार भी ज़िन्दगी का ही हिस्सा हैं। वे ज़िन्दगी और इतिहास का निचोड़ हैं और उन्हीं के आधार पर भविष्य का निर्माण होता है। जो सही विचार कभी कुछ लोगों के पास होता है, वही एक दिन बहुसंख्या अपनाती है और अमल में उतारती है।
– तब फिर तो— आप संविधान को भी नहीं मानती होंगी।
– मैं चोरी-डकैती या अनागरिक किस्म का कोई काम नहीं करती। अपनी मेहनत पर जीती हूँ। इस मायने में कोई मुझे असंवैधानिक कामों में लिप्त नहीं कह सकता है। मैं एक नागरिक के संवैधानिक दायित्व निभाती हूँ। पर सिद्धांततः मैं इस संविधान को एक जनविरोधी संविधान मानती हूँ, यह भी मेरा लोकतांत्रिक अधिकार है। जिस संविधान को देश के 11 प्रतिशत ऊपरी तबके के लोगों द्वारा चुनी संविधान सभा ने बनाया और पास किया, जिसे 1952 के आम चुनावों के बाद कभी पूँजीवादी संसद में भी पास नहीं किया गया, जिस पर कभी जनमत संग्रह नहीं हुआ, जो संविधान 1935 में अंग्रेज़ों के बनाये हुए ‘भारत सरकार क़ानून’ पर आधारित है, जिस संविधान के तहत जारी शासन में पूरी क़ानून-व्यवस्था अंग्रेज़ो के ज़माने वाली ही है, जो सम्पत्ति के अधिकार को मूलभूत मानता है, लेकिन रोज़गार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य के अधिकार को नहीं, उस संविधान का विरोध मैं क्यों न करूँ! मैं तो नयी संविधान सभा बुलाने की माँग के पक्ष में हूँ।
– यह तो देशद्रोह है!
– इस संविधान के तहत, मुट्ठीभर लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी पर ज़ालिमाना ढंग से हुक़ूमत करना देशद्रोह है और उस हुक़ूमत को मानना ग़ुलामी है!
– वोट देती नहीं, संविधान मानती नहीं—आप जैसों को तो देश से बाहर निकाल देना चाहिए।
– यह देश किसी के बाप का है, जो निकाल बाहर कर देगा! यहीं पैदा हुए हैं, यहीं मेहनत की ज़िन्दगी बिताते हैं, आम लोगों के हितों के लिए लड़ते हैं, उनके बूते जीते हैं। देश कोई हरामख़ोरों की जागीर नहीं है कि हम जैसों को निकालकर बाहर कर देंगे। कोई करके तो देखे!
(भाई साहब का तमतमाते हुए प्रस्थान)
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2013
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