मज़दूर वर्ग को आरएसएस द्वारा इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान को विकृत करने का विरोध क्यों करना चाहिए? 

सनी

हाल ही में फ़ासीवादी मोदी सरकार के आदेश पर दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से डार्विन उद्विकास की अवधारणा को हटा दिया गया है। यह शिक्षा के साम्प्रदायीकरण की भाजपा-संघ की मुहिम का ही उदाहरण है। 2014 से मोदी के सत्ता में आने के बाद से शिक्षा को संघ ने अपने निशाने पर लिया है। इतिहास तथा विज्ञान की हर उस अवधारणा और तथ्य को पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है या काँटा-छाँटा जा रहा है जो संघ-भाजपा की हिन्दुत्व विचारधारा के लिए चुनौती है। इतिहास और विज्ञान की जगह मिथकों और झूठ को परोसा गया है। इसपर मज़दूर वर्ग का क्या नजरिया होना चाहिए?

नहीं, मज़दूर वर्ग इस पर ऐसा नजरिया नहीं रख सकता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य ब्रह्मा के चमत्कार से पैदा हुआ या उद्विकास की एक जटिल प्रक्रिया के जरिए वानर से नर बना। न वह इस सवाल से बेगाना रह सकता है कि भारत का इतिहास क्या है। जो यह कहे कि संघी सरकार बच्चों को विज्ञान और इतिहास की विकृत समझदारी देती है तो इसको ठीक करना महज़ बुद्धिजीवियों का काम है, केवल किताबी तथा अकादमिक कवायद है जिससे मज़दूरों के लिए कोई “कोई ठोस नतीजा” नहीं निकलता है, वह भयंकर भूल कर रहा है।

असल में इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान पर हमला मज़दूर वर्ग का ही मसला है। मज़दूर वर्ग को मोदी सरकार द्वारा तर्कणा पर हमले का प्रतिरोध करना होगा और समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के मक़सद से धार्मिक पूर्वाग्रहों को मज़बूत करने के लिए उठाये कदमों का भण्डाफोड़ करना चाहिए। मज़दूर वर्ग इतिहास और प्रकृति-ज्ञान का सच्चा वारिस है और केवल वही इस ज्ञान को समस्त समाज के लिए सक्रिय व्यवहार में उतार सकता है। इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान मज़दूर वर्ग के विचारधारात्मक और राजनीतिक ज्ञान का ही अंग है।

क्या ऐसे मुद्दों पर बात करना समय की बर्बादी है, महज़ इसलिए कि यह मज़दूर वर्ग की आर्थिक माँगों से सीधे तौर पर नहीं जुड़ा है? हमें यह याद रखना होगा कि मज़दूर वर्ग के संघर्षों को केवल वेतन-भत्ते, कार्यस्थिति तथा जीवनस्थिति सम्बन्धी माँगों तक सीमित रखना अर्थवाद होता है जो कभी मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक चेतना से सम्पन्न वर्ग और इसलिए अपना शासन स्थापित करने में सक्षम वर्ग बनने ही नहीं देता। लेनिन ने कहा था: राजनीतिक भण्डाफोड़ के लिये सबसे आदर्श श्रोता मज़दूर वर्ग होता है, जो सर्वांगीण तथा सजीव राजनीतिक ज्ञान की आवश्यकता के मामले में सबसे अव्वल और सबसे आगे है, और इस ज्ञान को सक्रिय संघर्ष में परिणत करने की क्षमता भी उसी में सबसे ज़्यादा होती है, भले ही उससेकोई ठोस नतीजेनिकलने की उम्मीद हो।

लेनिन चेताते हैं कि मज़दूरों को केवल “मज़दूरों के साहित्य” की सीमाओं में बन्द रखना राजनीतिक भूल होगी। मज़दूर खुद प्राकृतिक विज्ञान से लेकर इतिहास पढ़ना चाहते हैं और पढ़ते भी हैं, जो भले ही बुद्धिजीवियों के लिए लिखा जाता है। लेनिन कहते हैं कि: मज़दूरों को यह करना पड़ेगा कि वे अपने कोमज़दूरों के साहित्यकी बनावटी संकुचित सीमाओं में बन्द रखें और आम साहित्य पर अधिकाधिक अधिकार प्राप्त करना सीखें।अपने को बन्द रखेंकी जगहउन्हें बन्द रखा जायेकहना ज़्यादा सही होगा, क्योंकि मज़दूर खुद वह सारा साहित्य पढ़ते हैं और पढ़ना चाहते हैं, जो बुद्धिजीवियों के लिए लिखा जाता है और यह चन्द (बुरे) बुद्धिजीवियों का ही विचार है कि कारखानों की हालत के बारे में दोचार बातों को बता देना और पुरानी जानी हुई बातों को बारबार दुहराते रहना हीमज़दूरों के लिएकाफ़ी है।

लेनिन की उपरोक्त शिक्षाओं की रोशनी में ही हमें इस सवाल का जवाब देना होगा कि मज़दूरों को डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त क्यों जानना चाहिए और कक्षा दस के पाठ्यक्रम से हटाये जाने का विरोध क्यों करना चाहिए? डार्विन ने जीवन के भौतिकवादी आधार को स्थापित किया। साथ ही, उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि जीवन के तमाम रूप यानी प्रजातियाँ उद्विकास की प्रक्रिया के ज़रिये बदलती रहती हैं। इसमें ईश्वर या किसी दैवीय शक्ति की कोई भूमिका नहीं है। जीवन की पहली प्रजाति के उद्भव से उद्विकसित होकर आज क़रीब 81 लाख प्रजातियाँ धरती पर मौजूद हैं। यह विशालकाय जीवन वृक्ष डार्विन के उद्विकास के सिद्धान्त द्वारा ही समझा जा सकता है। मनुष्य की प्रजाति होमो सेपिएन्स सेपिएन्स सहित तमाम प्रजातियाँ विकसित हो रही हैं। मनुष्य का उद्भव एक ऐसी प्रजाति से हुआ जो अब विलुप्त हो चुकी है। जैव जगत में तमाम प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और आज का जीव जगत वैसा नहीं है जैसे यह पहले था। वायरस, बैक्टिरिया, लंगूर से लेकर केकड़ा सभी प्रजातियाँ पहले मौजूद प्रजातियों से विकसित होकर अस्तित्व में आई हैं। कई प्रजातियाँ एक ही प्रजाति से फूट कर पैदा हुई हैं जैसे पेड़ के तने से कई शाखाएँ निकलती हैं। समुद्र की गहराई से लेकर रेगिस्तान की तपिश में जीवन अपनी विविधता के साथ मौजूद है। लेकिन इस जैवविविधता का पहला क़दम यह है कि जीवन अजीवन से पैदा होता है। यह एक लम्बी कथा है।

धरती हमारे तारे सूरज से टूटकर बनी। जब धरती की सतह पर तापमान कम होता गया तो सागर और वायुमण्डल अस्तित्व में आया। धरती की परत ठोस बनी और पानी, हवा और धरती में मौजूद रसायनों में अन्तरक्रिया से जटिल रासायनिक संरचना बनने लगी। इन जटिल रासायनिक संरचनाओं से ही जीवन का पहला रूप यानी एककोशिकीय जीव अस्तित्व में आया। परन्तु जीवन रूप में परिवर्तन यहाँ थमता नहीं है। यह परिवर्तन ही जीवन की भिन्न प्रजातियों के परिवर्तन की प्रक्रिया यानी उद्विकास की प्रक्रिया कहलाता है। उद्विकास की लम्बी प्रक्रिया में ही मनुष्य भी 25 लाख साल पहले वानर से नर बनता है। यहीं से मानव इतिहास शुरू होता है जब मनुष्य अपने श्रम से खुद को गढ़ता है। यह सच है कि डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त पूर्ण नहीं था और यह नहीं समझता था कि जीवन के तमाम रूपों के उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया में सिर्फ क्रमिकता नहीं होती, बल्कि उनमें क्रान्तिकारी छलाँगें भी लगती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे हमारा समाज भी केवल क्रमिक परिवर्तनों के ज़रिये विकसित नहीं होता, बल्कि लगातार जारी क्रमिक परिवर्तनों की समूची ऐतिहासिक प्रक्रिया में बीच-बीच में अनिवार्यत: क्रान्तिकारी छलाँगें भी लगती हैं, जैसे कि रूस में मज़दूर क्रान्ति, चीन में मज़दूर क्रान्ति आदि।

लेकिन फिर भी डार्विन का सिद्धान्त सही दिशा में एक महान क्रान्तिकारी छलाँग था। डार्विन का सिद्धान्त जीवन और मानव के उद्भव के बारे में किसी पारलौकिक हस्तक्षेप को खत्म कर जीवन जगत को उतनी ही इहलौकिक प्रक्रिया के रूप में स्थापित करता है जैसे फसलों का उगना, फै़क्ट्री में बर्तन या एक ऑटोमोबाइल बनना। यह जीवन के भौतिकवादी आधार तथा उसकी परिवर्तनशीलता को सिद्ध करता है। यह विचार ही शासक वर्ग के निशाने पर है। संघ अपनी हिन्दुत्व फ़ासीवादी विचारधारा से देशकाल की जो समझदारी पेश करना चाहता है उसके लिए उसे जनता की धार्मिक मान्यताओं पर सवाल खड़ा करने वाले हर तार्किक विचार से उसे ख़तरा है। जनता के बीच धार्मिक पूर्वाग्रहों को मज़बूत बनाकर ही देश को साम्प्रदायिक राजनीति की आग में धकेला जा सकता है। अपने देश में अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी को “नकली शत्रु” के रूप में खड़ा करने के लिए संघ और भाजपा इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान की बुनियाद को ही तहस-नहस कर रहे हैं ताकि मिथकों को सामान्य ज्ञान के रूप में स्थापित किया जा सके। बुर्जुआ वर्ग की नग्न प्रतिक्रिया तानाशाही लागू करने वाले फासीवादी हुक्मरान हर प्रगतिशील विचार पर हमला कर रहे हैं तो यह मसला सबसे पहले मज़दूर वर्ग का ही है।

इतिहास की जगह मिथकों को नये सिरे से स्थापित करने वाले फासीवादी “मध्ययुगीन बर्बर” नहीं आधुनिक प्रतिक्रियावादी हैं। हमें यह भी समझना होगा कि एक तरफ़ जहाँ हुक्मरान डार्विन को स्कूली शिक्षा से हटा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ जैनेटिक्स पर शोध (जिसका आधार डार्विन का सिद्धान्त ही है) तमाम निजी कम्पनियों तथा सरकारी शोध संस्थानों में जारी है। शासक वर्ग को आधुनिक विज्ञान और तकनोलॉजी के दम पर मेहनतकश वर्ग को लूटने के और कारगर तरीके़ ईज़ाद करने हैं परन्तु प्राकृतिक विज्ञान से जागृत होने वाली तर्कणा पर हमला करना है। प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन तर्कणा पैदा करता है और जीवन और समाज को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नज़रिये तक पहुँचाता है। यही वह कारण है जिसके चलते संघ आज डार्विन को स्कूली पाठ्यक्रम से हटाना चाहता है। 

फ़ासीवादी आने वाली पीढ़ियों के वैज्ञानिक बोध को पटरा करना चाहते हैं जिससे कि “धर्म के कोहरे” से जनता की नज़र को धुँधला करके फासीवादी विचारधारा को और मज़बूत किया जा सके। हमें इस हमले का मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। सर्वहारा वर्ग “धर्म के कोहरे” के खिलाफ़ विज्ञान का सहारा लेता है। लेनिन ने कहा: आज का सर्वहारा समाजवाद का पक्ष ग्रहण करता है जो धर्म के कोहरे के खिलाफ संघर्ष में विज्ञान का सहारा लेता है और मज़दूरों को इसी धरती पर बेहतर जीवन के लिए वर्तमान में संघर्ष के लिए एकजुट कर उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन के विश्वास से मुक्ति दिलाता है। पर जब हम यह कह रहे हैं तो हम यह भी जानते हैं कि जनता के समस्त हिस्सों को केवल विज्ञान-प्रचार के दम पर “धर्म के कोहरे” से दूर तथा वैज्ञानिक चेतना से लैस नहीं किया जा सकता है। इस मसले में लेनिन की समझदारी स्पष्ट है। लेनिन कहते हैं: आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतः सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ मेहनतकश अवाम की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति और पूँजीवाद की अन्धी शक्तियों के समक्ष उसकी प्रकटत: पूर्ण असहाय स्थिति है, जो हर रोज और हर घण्टे सामान्य मेहनतकश जनता को सर्वाधिक भयंकर कष्टों और सर्वाधिक असभ्य अत्याचारों से संत्रस्त करती है, और ये कष्ट और अत्याचार असामान्य घटनाओं जैसे युद्धों, भूचालों, आदि से उत्पन्न कष्टों से हजारों गुना अधिक कठोर हैं।भय ने देवताओं को जन्म दिया।पूँजी की अन्धी शक्तियों का भय अन्धी इसलिए कि उन्हें सर्वसाधारण अवाम सामान्यतः देख नहीं पाता एक ऐसी शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों की ज़िन्दगी में हर कदम परअचानक“, “अप्रत्याशित“, “आकस्मिक“, तबाही, बरबादी, गरीबी, वेश्यावृत्ति, भूख से मृत्यु का खतरा ही नहीं उत्पन्न करती, बल्कि इनसे अभिशप्त भी करती है। ऐसा है आधुनिक धर्म का मूल जिसे प्रत्येक भौतिकवादी को सबसे पहले ध्यान में रखना चाहिए, यदि वह बच्चों के स्कूल का भौतिकवादी नहीं बना रहना चाहता। जनता के दिमाग से, जो कठोर पूँजीवादी श्रम द्वारा दबीपिसी रहती है और जो पूँजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की दया पर आश्रित रहती है, शिक्षा देने वाली कोई भी किताब धर्म का प्रभाव तब तक नहीं मिटा सकती, जब तक कि जनता धर्म के इस मूल से स्वयं संघर्ष करना, पूँजी के शासन के सभी रूपों के खि़लाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित और सचेत ढंग से संघर्ष करना नहीं सीख लेती।” और आगे लेनिन कहते हैं कि हमें “धर्म के विरुद्ध संघर्ष को एक अमूर्त ढंग से नहीं, परोक्ष, शुद्ध सैद्धान्तिक, अपरिवर्तनीय उपदेशों के आधार पर “नहीं चलाना चाहिए बल्कि उसे ठोस रूप में, वर्ग संघर्ष के आधार पर” चलाना चाहिए।

हमारा कार्यभार मेहनतकश अवाम को प्राकृतिक विज्ञान तथा इतिहास से परिचित कराना है जिससे कि उसे फ़ासीवादी प्रचार के आधारभूत धार्मिक पूर्वाग्रहों से मुक्त किया जाए। लेकिन साथ ही हम मेहनतकश अवाम का धर्म की जड़ से संघर्ष करने यानी पूँजी के शासन के सभी रूपों के ख़िलाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित और सचेत ढंग से संघर्ष करने का आह्वान भी करते हैं। दोनों कार्यभार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस रोशनी में साफ़ है कि आज फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा डार्विन को स्कूली पाठ्यक्रम से हटाने का मज़दूर वर्ग को विरोध करना होगा। 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2023


 

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