क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-5 : माल, उपयोग-मूल्य, विनिमय-मूल्य और मूल्य

अभिनव

मनुष्य के श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं की एक विशिष्टता होती है, उनका उपयोगी होना। वे किसी न किसी मानवीय आवश्यकता की पूर्ति करती हैं। अगर ऐसा न हो तो कोई उन्हें नहीं बनायेगा। उनके उपयोगी होने के इस गुण को हम उपयोग-मूल्य कहते हैं। उपयोग-मूल्य के रूप में वस्तुओं का उत्पादन प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है, तब से जब मनुष्य ने पहली बार अपनी आवश्यकता के लिए प्रकृति को बदलकर वस्तुओं को बनाना या पैदा करना शुरू किया था, यानी उत्पादन शुरू किया था। किसी चीज़ का उपयोग-मूल्य कोई पहले से दिया गया प्राकृतिक गुण नहीं होता है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक और सामाजिक गुण होता है। कोई वस्तु किसी एक ऐतिहासिक युग में निश्चित लोगों के लिए उपयोगी हो सकती है और युग बदलने के साथ ऐसा सम्भव है कि वह उपयोगी न रह जाये। लेकिन किसी भी समय में यदि मनुष्यों के श्रम से बनने वाली कोई वस्तु किसी मानवीय आवश्यकता की पूर्ति करती है, तो यह उसमें एक उपयोग-मूल्य को पैदा करता है। एक समय में समाज में अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन प्रत्यक्ष उपभोग के लिए ही होता था, चाहे उनका प्रत्यक्ष उपभोग प्रत्यक्ष उत्पादकों द्वारा किया जाये, या फिर शोषक-शासक वर्गों द्वारा जो उत्पादक वर्गों द्वारा बनाये गये अधिशेष उत्पाद को हड़प लेते हों। ऐसे दौरों के बारे में हम कह सकते हैं कि वस्तुओं का उत्पादन मुख्यतः उपयोग-मूल्यों के रूप में होता था।

लेकिन उपयोग-मूल्य के अलावा मनुष्यों के श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं का एक अन्य प्रकार का मूल्य भी हो सकता है, जिसे हम विनिमय-मूल्य कहते हैं। यानी ऐसी वस्तुएँ जिनका उत्पादन धनी वर्गों व प्रत्यक्ष उत्पादक वर्गों द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग के लिए नहीं होता, बल्कि वह बाज़ार में बेचने या विनिमय के लिए होता है। ऐसी वस्तुओं को हम मात्र उपयोग-मूल्य नहीं मान सकते, क्योंकि उनका उत्पादन प्रत्यक्ष उत्पादकों और धनी शोषक वर्गों द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग हेतु नहीं होता बल्कि बेचने के लिए या बाज़ार में विनिमय के लिए होता है। किसी वस्तु का अन्य वस्तु या मुद्रा से विनिमय होने का यह गुण उसे एक उपयोग-मूल्य से अधिक कुछ बना देता है। अब उस वस्तु में उपयोग-मूल्य ही नहीं बल्कि विनिमय-मूल्य भी है। ऐसी वस्तुएँ जिनमें उपयोग-मूल्य के साथ-साथ विनिमय-मूल्य होता है, यानी ऐसी वस्तुएँ जिन्हें बाज़ार में बेचने के लिए पैदा किया जाता है, उन्हें हम माल कहते हैं। माल वह वस्तु या सेवा है जिनका उत्पादन प्रत्यक्ष उपभोग के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए किया जाता है और जिनका एक उपयोग-मूल्य और एक विनिमय-मूल्य होता है। विनिमय-मूल्य किसी भी माल के अन्य मालों से एक निश्चित अनुपात में विनिमय होने का गुण है। इसके दो पहलू हैं : पहला, उसका अन्य मालों से विनिमय हो सकने का गुण, जो कि उसका गुणात्मक पहलू है और दूसरा, उसका अन्य मालों के साथ एक निश्चित अनुपात में विनिमय होने का गुण, जो कि उसका परिमाणात्मक पहलू है।

आपने ग़ौर किया होगा कि हमने मालों का ज़िक्र करते समय यहाँ वस्तुओं के साथ “सेवा” शब्द को भी जोड़ा है। वजह यह है कि हर माल कोई छुई जा सकने वाली भौतिक वस्तु हो यह ज़रूरी नहीं है। यह एक सेवा भी हो सकता है, जिसका एक उपयोगी प्रभाव होता है और जिसे बेचा जाता है। यह उपयोगी प्रभाव उसमें मूल्य पैदा करता है और चूँकि उसे बेचने के लिए पैदा किया गया है, इसलिए उसमें एक विनिमय-मूल्य भी है और इसलिए वह भी एक माल है। मिसाल के तौर पर, परिवहन की सेवा कोई वस्तु नहीं पैदा करती है। वह एक उपयोगी प्रभाव पैदा करती है। यह उपयोगी प्रभाव है वस्तुओं और लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। इस माल का उत्पादन (यानी स्थान में परिवर्तन) और इसका उपभोग (उपभोक्ता द्वारा वस्तुओं और/या व्यक्तियों का स्थान परिवर्तन) एक साथ ही होता है। लेकिन यह भी एक माल ही है, अगर इस सेवा को पैदा करने वाला उत्पादक उसे लोगों को बेचता है। इसीलिए मार्क्स ने कहा था, एक सेवा और कुछ नहीं बल्कि एक उपयोग-मूल्य का उपयोगी प्रभाव है।” (कार्ल मार्क्स, 1992, पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन पब्लिकेशन, पृ. 299)। यदि यह सेवा, जिसका एक उपयोग-मूल्य है, विनिमय हेतु यानी बेचने के लिए पैदा की जा रही है न कि प्रत्यक्ष उपभोग के लिए, तो वह भी एक माल ही है।

अन्तर समझने के लिए कुछ मिसालों पर ग़ौर कीजिए :
– एक किसान परिवार द्वारा अपने खाने के लिए चावल का पैदा किया जाना माल उत्पादन नहीं है, लेकिन यदि वह चावल बाज़ार में बेचने के लिए पैदा कर रहा है, तो वह एक माल का उत्पादन है।
– यदि कोई बढ़ई अपने बैठने के लिए एक कुर्सी बनाता है तो वह केवल एक उपयोग-मूल्य का उत्पादन कर रहा है और इसलिए माल उत्पादन नहीं कर रहा है। लेकिन यदि यही कुर्सी वह बाज़ार में बेचने के लिए बना रहा है, तो यह एक माल का उत्पादन है।
– एक कार कम्पनी के कारख़ाने में बनायी जाने वाली कार एक माल है क्योंकि इसका उत्पादन कार कम्पनी का मालिक ख़ुद उसे चलाने के लिए नहीं कर रहा है, बल्कि उसे बाज़ार में बेचने के लिए कर रहा है।
– यदि किसी परिवार में कोई परिवार का सदस्य घर में साफ़-सफ़ाई की सेवा प्रदान कर रहा है, तो यह एक ऐसी सेवा का उत्पादन है जो कि माल नहीं है। लेकिन यदि यही सेवा वह बाज़ार से ख़रीदता है और किसी मज़दूर को इस काम के लिए भाड़े पर रखता है, तो वह माल में तब्दील हो गयी क्योंकि वह कामगार अपने प्रत्यक्ष उपभोग हेतु इस सेवा का उत्पादन नहीं कर रहा है, बल्कि उसे उस परिवार को बेचने के लिए उसका उत्पादन कर रहा है।

इन उदाहरणों के ज़रिए हम माल और महज़ उपयोग-मूल्य के रूप में पैदा होने वाली वस्तुओं या सेवाओं में अन्तर कर सकते हैं। मानवीय श्रम के वे उत्पाद जो प्रत्यक्ष उपभोग हेतु नहीं बल्कि बेचने के लिए पैदा किये जाते हैं, उन्हें हम माल कहते हैं। ये उत्पाद कोई वस्तु हो सकते हैं या फिर सेवा हो सकते हैं। हर माल में ये दोनों ही गुण होने चाहिए, यानी उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य। अगर ऐसी चीज़ या सेवा की कोई उपयोगिता ही नहीं है, तो न तो कोई उसका उपयोग करना चाहेगा और न ही उसे ख़रीदना चाहेगा। यानी हर विनिमय-मूल्य का वाहक कोई उपयोग-मूल्य ही हो सकता है। लेकिन हर उपयोगी वस्तु माल नहीं होती है। कोई वस्तु या सेवा तभी माल में तब्दील हो सकती है, जबकि उसे बेचने-ख़रीदने के लिए बनाया जाता हो।

क्या इतिहास में ऐसे दौर थे जबकि आम तौर पर वस्तुओं का विनिमय-मूल्य नहीं होता था, केवल उपयोग-मूल्य ही होता था? जी हाँ! वस्तुओं का उत्पादन प्रत्यक्ष उपभोग के लिए नहीं बल्कि विनिमय के लिए हो, इसके लिए समाज में श्रम विभाजन का एक निश्चित स्तर विकसित होना ज़रूरी होता है। इसे हम सामाजिक श्रम विभाजन कहते हैं। ज़ाहिर है, जिस समाज में या समुदाय में सभी लोग एक ही वस्तु या समान वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हों, वहाँ विनिमय की, यानी बेचने-ख़रीदने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। किसी दुग्ध-उत्पादक यानी ग्वाले के पास किसी अन्य दुग्ध-उत्पादक से विनिमय करने के लिए कुछ भी नहीं होगा। भला वह दूध का दूध से विनिमय क्यों करेगा? इसलिए विनिमय की शुरुआत तभी हो सकती है जबकि श्रम के सामाजिक विभाजन की एक निश्चित मंज़िल का विकास हो चुका हो। चाहे यह एक समुदाय के भीतर उत्पादक शक्तियों के विकास और लोगों के अलग-अलग वस्तुओं के उत्पादन में लगने के साथ हुआ हो, या फिर अलग-अलग वस्तुएँ पैदा करने वाले समुदायों के आपस में सम्पर्क में आने के साथ हुआ हो, लेकिन इतना तय है कि विनिमय के पैदा होने, व्यापार के पैदा होने और बाज़ार के पैदा होने की शुरुआत केवल तभी हो सकती है जब समाज में श्रम का विभाजन हुआ हो। जब तक समाज में श्रम का यह सामाजिक विभाजन नहीं होगा, यानी जब तक अलग-अलग लोग या लोगों के समूह अलग-अलग वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन नहीं करेंगे, तब तक विनिमय, क्रय-विक्रय, व्यापार, बाज़ार आदि की शुरुआत नहीं हो सकती है। इतिहास में ऐसे दौर भी थे जब सामाजिक श्रम विभाजन नहीं हुआ था, या बेहद आदिम स्तर पर था। उस समय विनिमय की शुरुआत नहीं हुई थी। उस समय वस्तुओं का उत्पादन केवल उपयोग-मूल्य के रूप में ही होता था। विशेष तौर पर, आदिम क़बीलाई समाज में ऐसी ही स्थिति थी।

लेकिन उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ श्रम का सामाजिक विभाजन हुआ और विनिमय की शुरुआत हुई। इसके साथ, कई वस्तुओं और सेवाओं के प्रत्यक्ष उपभोग हेतु उत्पादन के साथ-साथ विविध वस्तुओं का, मुख्यत: और मूलत:, विनिमय हेतु उत्पादन शुरू हुआ और इसके साथ उनका विनिमय-मूल्य भी पैदा हुआ और वे माल में तब्दील हो गयीं। इसके साथ ही माल उत्पादन की शुरुआत हुई। जिस समाज में वस्तुओं व सेवाओं की भारी बहुसंख्या माल में तब्दील हो जाती है, प्रत्यक्ष उत्पादकों की श्रमशक्ति स्वयं माल में तब्दील हो जाती है और माल उत्पादन प्रभुत्वशाली बन जाता है, उसे ही हम पूँजीवादी समाज कहते हैं।

लेकिन माल उत्पादन पूँजीवादी समाज के साथ ही अस्तित्व में नहीं आया था। बल्कि प्राचीन काल में आदिम क़बीलों के भीतर ही बेहद आरम्भिक क़िस्म के विनिमय की शुरुआत हो चुकी थी और आदिम क़बीलों के विघटन और दास समाज समेत पहले वर्ग समाज के उद्भव और विकास की मंज़िल आने तक माल उत्पादन काफ़ी विकसित हो चुका था। लेकिन अभी माल उत्पादन प्रभुत्वशाली उत्पादन नहीं बना था और उसके साथ कई अन्य उत्पादन के स्वरूप मौजूद थे, जहाँ उत्पादक वर्ग द्वारा या फिर उनको लूटने वाले शासक-शोषक वर्ग द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग हेतु वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन होता था और उत्पादन के ये रूप अभी समाज में माल उत्पादन की तुलना में ज़्यादा महत्व रखते थे। मसलन, दास समाज और सामन्ती समाज में भी माल उत्पादन मौजूद था, लेकिन अभी अन्य प्रकार के उत्पादन उसके साथ मौजूद ही नहीं थे, बल्कि उससे ज़्यादा महत्व रखते थे। इसलिए माल उत्पादन अभी उत्पादन के अन्य रूपों के मुक़ाबले ज़्यादा प्रभावी नहीं हुआ था और इसलिए इन समाजों में, विशेष तौर पर दास समाज में, माल उत्पादन के अच्छे-ख़ासे विकास के बावजूद वह अभी प्रभुत्वशाली उत्पादन पद्धति में तब्दील नहीं हुआ था, श्रमशक्ति अभी स्वयं माल में तब्दील नहीं हुई थी और इसलिए अभी पूँजीवादी माल उत्पादन नहीं पैदा हुआ था। इस प्रकार के माल उत्पादन को साधारण माल उत्पादन कहा जाता है।

पूँजीवादी समाज में भी हरेक वस्तु और सेवा माल के रूप में नहीं पैदा होती है। जैसे कि किसानों द्वारा किये जाने वाले उत्पादन का वह हिस्सा जो उनके व उनके परिवार द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह हिस्सा आज बेहद छोटा है क्योंकि समस्त खेती उत्पादन का 90 फ़ीसदी हिस्सा अब बेचने योग्य बेशी यानी विपणन-योग्य बेशी की श्रेणी में आता है। एक छोटा ही सही लेकिन हिस्सा है, जो केवल उपयोग-मूल्य के रूप में ही पैदा किया जाता है। दूसरे क़िस्म के उत्पाद व सेवाएँ जो माल में तब्दील नहीं होते, वे सरकारी सार्वजनिक वितरण का अंग होते हैं, चाहे वह सरकारी स्कूलों में निशुल्क शिक्षा हो, निशुल्क अनाज वितरण हो, या अन्य कोई सेवा या वस्तु। इसके अलावा, पूँजीवादी समाज में घरों के भीतर परिवार के सदस्यों द्वारा जो घरेलू काम होता है, वह भी माल उत्पादन की श्रेणी में नहीं आता क्योंकि उसे बेचा-ख़रीदा नहीं जाता। वह निश्चित तौर पर उपयोगी होता है और किसी न किसी उपयोगी वस्तु या सेवा का उत्पादन करता है। लेकिन उसका कोई विनिमय-मूल्य नहीं होता क्योंकि वह विनिमय हेतु नहीं पैदा किया जाता है। लेकिन इस प्रकार के सारे उत्पाद व सेवाएँ पूँजीवादी समाज के कुल उत्पादन का छोटा हिस्सा होते हैं, जबकि बड़ा हिस्सा बेचने-ख़रीदने हेतु पैदा की जा रही वस्तुएँ व सेवाएँ होती हैं, यानी माल होती हैं।

अब थोड़ा और गहराई में चलते हैं।

विनिमय-मूल्य क्या है? किसी वस्तु द्वारा अन्य वस्तुओं के साथ विनिमय होने का गुण। लेकिन कोई भी विनिमय एक निश्चित अनुपात में ही हो सकता है। विनिमय-मूल्य हमें और कुछ नहीं बताता सिवाय इसके कि, मिसाल के तौर पर, दो लीटर दूध के साथ कितने किलोग्राम चावल का विनिमय होगा, या दो मीटर कपड़े के साथ कितने किलोग्राम गेहूँ का विनिमय होगा, आदि। लेकिन दो वस्तुओं का आपस में एक निश्चित अनुपात में विनिमय हो सके, इसके लिए उनमें कुछ साझा होना ज़रूरी है, कुछ तुलनीय होना ज़रूरी है। क्योंकि एक निश्चित मात्रा में दो वस्तुओं के विनिमय को निर्धारित करने के लिए इन दो वस्तुओं को पैदा करने वाले उत्पादक उनमें मौजूद किसी साझा चीज़ की तुलना किये बिना यह कार्य कर ही नहीं सकते हैं। अब, दो लीटर दूध और तीन किलोग्राम चावल में क्या साझा है? या फिर, दो मीटर कपड़े और चार किलोग्राम गेहूँ में क्या साझा है? ज़ाहिरा तौर पर, इनके भौतिक गुणों में या इनके उपयोग-मूल्य में अपने आप में कुछ साझा नहीं है। जैसा कि मार्क्स ने दिखाया है, प्राचीन ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने ही बता दिया था कि वस्तुओं के विनिमय के लिए उनमें कोई ऐसी साझा चीज़ होनी चाहिए जिसकी तुलना की जा सके। वह साझा चीज़ क्या है?

वह साझा चीज़ है सभी मालों का मानवीय श्रम का उत्पाद होना। जो बात सभी मालों को आपस में विनिमय योग्य बनाती है वह है उन सभी का मानवीय श्रम के द्वारा पैदा होना। किसी भी माल के उत्पादन में जितना मानवीय श्रम लगा होता है, वही उसका मूल्य तय करता है और विनिमय-मूल्य अपने आप में कुछ भी नहीं बल्कि दो मालों के मूल्यों का अनुपात है। मसलन, अगर एक मीटर कपड़ा बनाने में 4 घण्टे का मानवीय श्रम लगता है और 1 लीटर दूध के उत्पादन में 1 घण्टे का मानवीय श्रम लगता है, तो एक मीटर कपड़े के बदले 4 लीटर दूध का विनिमय होगा। निश्चित तौर पर, जब पहली बार संयोग के तौर पर एक क़बीले के लोगों ने कोई दूसरी वस्तु बनाने वाले किसी दूसरे क़बीले से अपनी वस्तु का विनिमय किया होगा, तो उन्होंने उनमें लगे मानवीय श्रम का सटीकता के साथ आकलन नहीं किया होगा। लेकिन जब ये विनिमय बार-बार दुहराया जायेगा, तो निश्चित ही दोनों क़बीले के लोग अपने उत्पाद में लगे श्रम की मात्रा का आकलन करने की शुरुआत करेंगे और उसके आधार पर ही अपने उत्पादों के विनिमय के अनुपात को तय करेंगे।

लेकिन हम मालों के मूल्य के निर्धारण के दौरान किस प्रकार के मानवीय श्रम का आकलन करते हैं? जब हम दो प्रकार के मालों, मसलन कपड़ा और दूध, की बात करते हैं, तो उनमें लगने वाले विशिष्ट प्रकार के श्रम की तुलना सम्भव नहीं है। कपड़ा बनाने में एक अलग प्रकार का ठोस विशिष्ट श्रम लगता है, जबकि दूध पैदा करने में अलग प्रकार का ठोस विशिष्ट श्रम लगता है। इन दोनों में भला कैसे तुलना हो सकती है? इसी प्रकार हर अलग प्रकार के माल के उत्पादन में अलग-अलग प्रकार के विशिष्ट ठोस श्रम का व्यय होता है। इसे हम मूर्त श्रम कहते हैं, जिसका और कोई अर्थ नहीं है, बल्कि यह है कि यह एक विशिष्ट प्रकार का ठोस श्रम है। हर माल के उत्पादन में अलग प्रकार के मूर्त श्रम लगते हैं और इनके आधार पर मालों की गुणात्मक और परिमाणात्मक तुलना सम्भव नहीं है। यानी मूर्त श्रम के आधार पर मालों के विनिमय हेतु आवश्यक गुणात्मक व परिमाणात्मक तुलना का काम सम्भव नहीं है क्योंकि अलग-अलग प्रकार के मूर्त श्रम वह साझा तुलनीय चीज़ नहीं हैं, जिनके आधार पर मालों के मूल्य और उनके बीच के अनुपात के रूप में उनके विनिमय-मूल्य को निर्धारित किया जा सके।

जब हम मालों का विनिमय करते हैं, तो हम उनके उत्पादन में लगे मूर्त श्रमों को नज़रन्दाज़ करते हैं और उसमें लगे श्रम को सामान्य रूप में मानवीय सामाजिक श्रम के रूप में देखते हैं। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि हम इसे आम तौर पर मानवीय श्रमशक्ति का व्यय मानते हैं। दूसरे शब्दों में, हम उसे आम तौर पर इन्सानी मेहनत, यानी उत्पादक की मानसिक व शारीरिक ऊर्जा के व्यय के रूप में देखते हैं। इसे एक अन्य तरीक़े से भी समझ सकते हैं। हम किसी भी समाज के समूचे उत्पादन को उस समाज के कुल श्रम की पैदावार के तौर पर समझ सकते हैं। ऐसे में, हरेक उत्पाद कुल सामाजिक श्रम के एक हिस्से की नुमाइन्दगी करता है। कुल सामाजिक श्रम के तौर पर हम सामान्य रूप में मानवीय सामाजिक श्रम को देखते हैं, पूरे समाज की कुल श्रमशक्ति के व्यय को देखते हैं, न कि अलग-अलग प्रकार के विशिष्ट मूर्त श्रमों को। संक्षेप में कहें तो हम तमाम प्रकार के मूर्त श्रमों के विशिष्ट, ठोस चरित्र को नज़रन्दाज़ करते हैं और उससे अमूर्तन करते हुए, हर माल में लगे मानवीय श्रम को आम तौर पर मानवीय सामाजिक श्रम और मानवीय श्रमशक्ति के व्यय के रूप में देखते हैं। यानी हम उसे अमूर्त श्रम के रूप में देखते हैं। यह अमूर्त श्रम ही है जो कि मालों में मौजूद वह साझा, तुलनीय वस्तु है जिसकी गुणात्मक व परिमाणात्मक तुलना के आधार पर दो मालों का एक निश्चित अनुपात में विनिमय सम्भव होता है।

मूर्त श्रम और अमूर्त श्रम को लेकर भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। यह दो प्रकार के अलग श्रम नहीं हैं, जो अलग-अलग समय और स्थान पर होते हों। जो मूर्त श्रम मालों के उत्पादन में, यानी ऐसी वस्तुओं या सेवाओं के उत्पादन में लगते हैं जिन्हें विनिमय हेतु ही बनाया जा रहा हो, उन्हें हम अमूर्त श्रम के रूप में देख सकते हैं। जब विनिमय की आवश्यकता पैदा होती है, तभी उत्पादकों को अपने मूर्त श्रमों से अमूर्तन कर उसे आम तौर पर मानवीय श्रमशक्ति के व्यय के रूप में देखने की आवश्यकता पड़ती है। जब विनिमय होता है, तो ही श्रम का अमूर्तन करने की आवश्यकता पैदा होती है। क्योंकि इस आवश्यकता के बिना मूर्त श्रमों से अमूर्तन कर अमूर्त श्रम तक पहुँचने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। वजह यह कि यह विनिमय ही है जिसके लिए एक तुलनीय चीज़ के तौर पर हमें किसी वस्तु या सेवा में लगे श्रम को आम तौर पर मानवीय सामाजिक श्रम या मानवीय श्रमशक्ति के व्यय के रूप में देखने की ज़रूरत होती है। यहाँ चूँकि हम अलग-अलग प्रकार के मूर्त श्रमों से अमूर्तन करते हैं, इसलिए वस्तुएँ हमारे लिए अब केवल मानवीय श्रम का उत्पाद रह जाती हैं। मूर्त श्रम अलग-अलग मालों में अलग-अलग प्रकार के उपयोग-मूल्य को जन्म देते हैं। इन अलग-अलग उपयोग-मूल्यों के आधार पर विनिमय नहीं सम्भव होता है क्योंकि वे तुलनीय नहीं होते हैं। लेकिन जब हम मालों को महज़ मानवीय श्रमशक्ति के व्यय के उत्पाद यानी वस्तु रूप ग्रहण कर चुके मानवीय सामाजिक श्रम की एक निश्चित मात्रा के तौर पर देखते हैं, तो उनके बीच के सारे विशिष्ट अन्तर समाप्त हो जाते हैं। अब वे एक ही सामाजिक पदार्थ (social substance), यानी साधारण मानवीय सामाजिक श्रम की विभिन्न मात्राएँ मात्र रह जाती हैं। मार्क्स लिखते हैं :

“अगर हम मालों के उपयोग-मूल्य को नज़रन्दाज़ कर दें, तो उनका केवल एक ही गुण बचता है, कि वे सभी मानवीय श्रम के उत्पाद हैं। लेकिन हमारे हाथों में श्रम के उत्पाद भी रूपान्तरित हो जाते हैं। अगर हम उनके उपयोग-मूल्य से अमूर्तन करते हैं, तो हम उन भौतिक संघटकों से भी अमूर्तन करते हैं, जो कि उसे एक उपयोग-मूल्य बनाते हैं। अब वह एक टेबल, एक घर, या सूत का एक टुकड़ा या कोई अन्य उपयोगी वस्तु नहीं रह गया। ये सभी इन्द्रियों से महसूस किये जा सकने वाले गुण अब ग़ायब हो जाते हैं। अब यह बढ़ई, मिस्त्री या सूत कातने वाले या किसी भी अन्य प्रकार के उत्पादक श्रम का उत्पाद नहीं रह गया। श्रम के उत्पादों के उपयोगी चरित्र के ग़ायब होने के साथ उसमें लगे विभिन्न प्रकार के श्रमों का उपयोगी चरित्र भी ग़ायब हो जाता है; इसका अर्थ होता है उनमें लगे श्रम के विभिन्न प्रकार के मूर्त रूपों का ग़ायब हो जाना। अब उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता है, बल्कि वे सभी अब समान प्रकार के श्रम, यानी अमूर्त रूप में मानवीय श्रम, में अपचयित हो जाते हैं।” (कार्ल मार्क्स, 1992, पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन पब्लिकेशन, पृ. 128)

ज़ाहिर है, अमूर्त श्रम का प्रश्न ही तब आयेगा जब हम मालों के उत्पादन की बात कर रहे हों, सिर्फ़ उपयोग-मूल्य के रूप में वस्तुओं या सेवाओं के उत्पादन की बात नहीं। श्रम के अमूर्तन की आवश्यकता ही तभी पैदा होगी जब विनिमय की आवश्यकता होगी। अमूर्त श्रम का व्यय आम तौर पर मानवीय सामाजिक श्रम का व्यय है, जो हरेक माल और सेवा के उत्पादन में ख़र्च होता है, चाहे उसका ठोस रूप और विशिष्टता, यानी उसका मूर्त रूप, कुछ भी हो। विशिष्ट प्रकार के मूर्त श्रम विशिष्ट प्रकार के उपयोग-मूल्य पैदा करते हैं, जबकि अमूर्त श्रम मूल्य पैदा करता है। वास्तव में, माल का मूल्य और कुछ नहीं बल्कि वस्तु का आकार ले चुका अमूर्त श्रम है, या मार्क्स के शब्दों में, ‘जमा हुआ अमूर्त श्रम’ (congealed labour) है।

लेकिन अमूर्त श्रम को मापा कैसे जाता है? हम जानते हैं कि श्रम को श्रमकाल में ही मापा जा सकता है। लेकिन यहाँ हमारे सामने एक समस्या आती है। फ़र्ज़ करिए कि हम जूता उत्पादन के क्षेत्र के पाँच जूता उत्पादकों को लेते हैं जो समान प्रकार के जूते बनाते हैं। पहला उत्पादक एक जूते को बनाने में 3 घण्टे का वक़्त लेता है, दूसरा 4 घण्टे का, तीसरा 5 घण्टे का, चौथा 6 घण्टे का और पाँचवा 7 घण्टे का। यानी, पहले उत्पादक का 3 घण्टे का श्रम ख़र्च हुआ है, दूसरे का 4 घण्टे का, तीसरे का 5 घण्टे का, चौथे का 6 घण्टे का और पाँचवें का 7 घण्टे का। पहले उत्पादक के जूते का श्रम-मूल्य 3 घण्टे है जबकि पाँचवें के जूते का श्रम-मूल्य 7 घण्टे है। तो क्या समान प्रकार का जूता बाज़ार में पाँच अलग मूल्यों या क़ीमतों (जो, अभी आरम्भिक तौर पर इतना समझ लें, कि मूल्य की मौद्रिक अभिव्यक्ति है) में बिकेगा? नहीं! हम सभी जानते हैं कि यह मुमकिन नहीं है। ज़ाहिर है, उपभोक्ता को यदि समान प्रकार का जूता पाँच अलग क़ीमतों में मिलेगा तो वह सबसे सस्ता जूता ख़रीदेगा। इसलिए, अमूर्त श्रम को मापने के लिए हम अलग-अलग उत्पादकों द्वारा ख़र्च होने वाले श्रमकाल को, यानी व्यक्तिगत श्रमकाल को इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। किसी भी उत्पादन के क्षेत्र में हम सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल को श्रम की मात्रा को मापने के लिए इस्तेमाल करते हैं। वास्तव में, अमूर्त श्रम अपने आप में एक सामाजिक पदार्थ है और उसे व्यक्तिगत श्रमकाल से मापा ही नहीं जा सकता है। उसे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल से ही मापा जा सकता है।

यह सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल क्या है? किसी भी उत्पादन के क्षेत्र में किसी भी समय मौजूद उत्पादन की औसत स्थितियों के आधार पर माल के उत्पादन में जितना समय लगता है, उसे हम सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल कहते हैं। उत्पादन की औसत स्थितियों से हमारा क्या मतलब है? उत्पादन की औसत स्थितियों से अर्थ है उत्पादकता, कुशलता, तकनोलॉजी आदि का औसत स्तर। उत्पादन की औसत स्थितियों में किसी माल के उत्पादन में किसी उत्पादक को जितना समय लगता है, उसे ही हम सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल कहते हैं। सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल के अनुसार मापे जाने पर किसी भी माल के उत्पादन में अमूर्त श्रम की जो मात्रा लगती है, उसे हम उस माल के उत्पादन में लगा सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त श्रम कहते हैं और यही उस माल के मूल्य को निर्धारित करता है। अब हम अपनी परिभाषा को थोड़ा परिष्कृत करते हैं : किसी माल का मूल्य उसमें लगे मानवीय अमूर्त श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है जिसे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल से मापा जाता है। हमारे उपरोक्त उदाहरण में, यदि औसत स्थितियों में जूता उत्पादन क्षेत्र में जूते के उत्पादन में 5 घण्टे लगते हैं तो फिर माल को उसके सामाजिक या बाज़ार मूल्य पर बेचने पर पहले उत्पादक को कुछ अतिरिक्त मुनाफ़ा मिलेगा, दूसरे को उससे कम अतिरिक्त मुनाफ़ा मिलेगा, तीसरे को सामान्य औसत मुनाफ़ा मिलेगा क्योंकि उसकी उत्पादकता जूता उत्पादन के क्षेत्र की औसत उत्पादकता के बराबर है, चौथे और पाँचवें उत्पादक को नुक़सान होगा और यदि उन्हें जूता उत्पादन क्षेत्र में बने रहना है, तो कालान्तर में उन्हें भी अपनी उत्पादकता को बढ़ाना होगा। यह एक सेक्टर या उत्पादन के एक क्षेत्र के भीतर माल उत्पादकों के बीच होने वाली प्रतिस्पर्द्धा है। उत्पादन के एक क्षेत्र के भीतर होने वाली इस प्रतिस्पर्द्धा के आधार पर माल का सामाजिक मूल्य या बाज़ार मूल्य पैदा होता है जो कि सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल के अनुसार तय होता है। यह समझना आसान है कि अलग-अलग उत्पादकों के व्यक्तिगत श्रमकाल के अनुसार मालों का बाज़ार मूल्य या सामाजिक मूल्य नहीं पैदा हो सकता है क्योंकि विनिमय स्वयं एक सामाजिक प्रक्रिया है और विनिमय हेतु मूल्य का निर्धारण स्वयं एक सामाजिक प्रक्रिया के ज़रिए ही होता है।

अभी एक और समस्या रहती है, जिसके बारे में बात करना ज़रूरी है : कुशल श्रम और अकुशल श्रम की समस्या।

जब हम अमूर्त श्रम की मात्रा द्वारा मूल्य के निर्धारण की बात करते हैं, तो हम साधारण या अकुशल श्रम की बात करते हैं या फिर जटिल या कुशल श्रम की? क्या कुशल श्रम का एक घण्टा अकुशल श्रम के एक घण्टे के बराबर होता है? क्या कुशल श्रमशक्ति का मूल्य अकुशल श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर होता है? हम मेहनतकश अपने अनुभव से जानते हैं कि कुशल श्रमिक को ज़्यादा मज़दूरी मिलती है, जबकि अकुशल श्रमिक को कम। हम जानते हैं कि कुशल श्रम का एक घण्टा अधिक मूल्य पैदा करता है और अकुशल श्रम का एक घण्टा उससे कम मूल्य पैदा करता है। तो फिर मूल्य का निर्धारण किस प्रकार के श्रम से होता है? मूल्य का निर्धारण साधारण/अकुशल श्रम से होता है, क्योंकि कुशल श्रम के एक घण्टे को अकुशल श्रम के घण्टों की एक निश्चित मात्रा में बदला जा सकता है और एकदम सटीकता और वैज्ञानिकता के साथ बदला जा सकता है। राजनीतिक अर्थशास्त्री हमेशा ही इस काम को अंजाम देते हैं। कैसे? हम जानते हैं कि अकुशल श्रमिक वह है जिसकी कुशलता उस स्तर की होती है जो कि समाज का कोई भी व्यक्ति बिना किसी विशेष प्रशिक्षण या ट्रेनिंग के एक निश्चित समय के उत्पादक श्रम के अनुभव के बाद हासिल कर सकता है। कुशल श्रमिक वह होता है जिसकी कुशलता का स्तर किसी न किसी प्रकार की ट्रेनिंग या प्रशिक्षण के बाद ही सम्भव होता है। यह प्रशिक्षण क्या है? यह प्रशिक्षण की प्रक्रिया वास्तव में कौशल का उत्पादन है, जिसमें स्वयं अन्य श्रमशक्तियाँ ख़र्च होती हैं। मिसाल के तौर पर, अगर आपने कभी आईटीआई या पॉलीटेक्निक में किसी प्रकार के उत्पादक श्रम के कौशल को सीखा है, तो उसे सिखाने के लिए शिक्षकों, प्रशिक्षकों, प्रयोगशाला सहायकों आदि का श्रम लगा होता है। इनके श्रम से पैदा होने वाला शिक्षण व प्रशिक्षण स्वयं एक माल होता है, जिसे आप फ़ीस देकर ख़रीदते हैं। जब ट्रेनिंग प्राप्त करने के बाद आप किसी स्थान पर माल के उत्पादन में लगते हैं, तो आपकी श्रमशक्ति एक यौगिक या जटिल श्रमशक्ति के रूप में उत्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय होती है। इसका अर्थ यह है कि आपकी श्रमशक्ति के ज़रिए वे अन्य श्रमशक्तियाँ भी उत्पादन की इस प्रक्रिया में भागीदारी करती हैं, जो कि आपके कौशल के उत्पादन में ख़र्च हुई हैं। नतीजतन, कौशल के उत्पादन में ख़र्च हुई श्रमशक्तियों द्वारा प्रदत्त सामाजिक श्रम द्वारा पैदा हुए मूल्य के आधार पर हम कुशल श्रम के एक घण्टे को साधारण श्रम के घण्टों की एक निश्चित संख्या में बदल सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कौशल के उत्पादन में ख़र्च श्रमशक्ति के आधार पर आप एक ऐसा गुणक या कोफ़िशियण्ट निकाल सकते हैं, जिससे गुणा करके आप जटिल/कुशल श्रम के एक घण्टे को साधारण/अकुशल श्रम के घण्टों की एक निश्चित संख्या में तब्दील कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, एक राजमिस्त्री के श्रम का एक घण्टा एक अकुशल निर्माण श्रमिक के श्रम के तीन घण्टे के बराबर हो सकता है। यह गणना बेहद वैज्ञानिक व सटीक तरीक़े से की जा सकती है और की जाती है। इसलिए कुशल और अकुशल श्रम का भेद मूल्य के निर्धारण में कोई समस्या नहीं पैदा करता है। हम जब मूल्य के निर्धारण में श्रम की मात्रा का आकलन करते हैं, तो हम अमूर्त साधारण सामाजिक श्रम का आकलन करते हैं। इसके लिए हमें कुशल श्रम को उपरोक्त गुणक/कोफ़िशियण्ट के आधार पर अकुशल श्रम में बदलना होता है। इस प्रक्रिया को ‘जटिल श्रम का साधारण श्रम में अपचयन’ कहा जाता है। मार्क्स इसके बारे में लिखते हैं :

“अधिक जटिल श्रम की गणना केवल सघनीकृत, या कहें कि गुणित साधारण श्रम के रूप में ही हो सकती है, जिससे कि जटिल श्रम की कम मात्रा को साधारण श्रम की अधिक मात्रा के बराबर माना जाता है। अनुभव दिखलाता है कि यह अपचयन लगातार होता रहता है… विभिन्न प्रकार के श्रमों को उनकी माप की इकाई के तौर पर साधारण श्रम में जिस अनुपात में अपचयित किया जाता है, उसका निर्धारण एक सामाजिक प्रक्रिया के ज़रिए होता है जो उत्पादकों के पीठ पीछे लगातार जारी रहती है।” (कार्ल मार्क्स, 1992, पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन पब्लिकेशन, पृ. 135)

जैसा कि हम देख सकते हैं, कुशल व अकुशल श्रम का अन्तर अमूर्त श्रम की मात्रा द्वारा मूल्य के निर्धारण में कोई समस्या नहीं पैदा करता है। यह कोई काल्पनिक विचार नहीं है जिससे वास्तविकता निर्धारित होती हो, बल्कि वास्तविकता के अध्ययन के आधार पर ही स्मिथ व रिकार्डो जैसे क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों और सबसे महत्वपूर्ण रूप में मार्क्स ने यह सिद्धान्त निकाला।

अब हम आख़िरी समस्या पर आते हैं, जो मूल्य के श्रम-सिद्धान्त से सीधे-सीधे तो नहीं जुड़ती लेकिन उसे समझने में महत्व रखती है। इस पर हम आगे भी बात करेंगे लेकिन अभी संक्षेप में उस पर चर्चा उपयोगी होगी।

सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम का हम दो अर्थों में इस्तेमाल करते हैं। पहला अर्थ वह है जिस पर हमने ऊपर चर्चा की है। यानी, अमूर्त श्रम की वह मात्रा जो कि किसी माल के उत्पादन के लिए आवश्यक है, उसका मूल्य निर्धारित करती है और जिसे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल से नापा जाता है। लेकिन सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम का एक दूसरा अर्थ भी है। समूचे समाज के स्तर पर श्रम की वह मात्रा जो कि समाज की आवश्यकता के अनुसार निश्चित मालों को निश्चित मात्राओं में उत्पादित करती है उसे हम सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम कहते हैं। माल उत्पादक समाज में विनिमय की मध्यस्थता के ज़रिए ही समूचा सामाजिक उपभोग होता है। यहाँ सभी उत्पादक मिलकर यह तय नहीं करते कि समाज में किन-किन मालों की किन-किन मात्राओं में आवश्यकता है और न ही वे उसके अनुसार समूचे सामाजिक श्रम का उत्पादन की विभिन्न शाखाओं में अलग-अलग मात्राओं में मिलकर योजनाबद्ध तरीक़े से आबण्टन करते हैं। यानी सामाजिक श्रम विभाजन सचेतन तौर पर संगठित नहीं किया जाता है। माल उत्पादक समाज में अलग-अलग निजी माल उत्पादक अपने उत्पादन के साधनों व श्रमशक्ति के साथ उत्पादन करते हैं और आपस में प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जो कि बाज़ार में होती है। किसी को यह नहीं पता होता है कि उसके माल के लिए समाज में पर्याप्त ख़रीदार मिलेंगे या नहीं। यह एक अराजक प्रक्रिया होती है जिसमें सामाजिक आवश्यकताओं का वैज्ञानिक तौर पर मूल्यांकन नहीं किया जाता और सामाजिक श्रम विभाजन को उसके अनुसार नहीं तय किया जाता है। नतीजतन, कभी किसी माल का ज़रूरत से ज़्यादा तो कभी ज़रूरत से कम उत्पादन होता है। इसे एक उदाहरण से समझें। 1970 और 1980 के दशक में भारत में टेक्सटाइल उद्योग में एक परिवर्तन आ रहा था। बड़ी पारम्परिक टेक्सटाइल मिलों में सूती वस्त्रों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कई दशकों से चल रहा था। लेकिन इस दौर में पावर लूम का आना और सिंथेटिक वस्त्रों का उत्पादन शुरू हुआ जो अधिक उत्पादकता रखता था। नतीजतन, ये सिंथेटिक वस्त्र अधिक सस्ते और टिकाऊ थे। लिहाज़ा, उनकी माँग भी समाज में बढ़ने लगी। परिणामस्वरूप, उनकी आपूर्ति उनकी माँग से कम थी। वहीं पुराने पारम्परिक टेक्सटाइल उद्योग में पैदा होने वाले सूती वस्त्रों की माँग में कमी आने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी क़ीमतें गिरने लगीं और यहाँ तक कि बहुत-सा माल बेचा भी नहीं जा सका। जो माल बिक नहीं सका, उसे समाज ने सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के उत्पाद के तौर पर स्वीकार नहीं किया। इसके साथ ही टेक्सटाइल उद्योग में पूँजी लगाने वाले पूँजीपतियों ने अपनी पूँजी का एक हिस्सा दूसरे उद्योगों और पावरलूम व सिंथेटिक वस्त्रों के उत्पादन की ओर स्थानान्तरित कर दिया। पुराने टेक्टसटाइल उद्योग से नये प्रकार के कपड़ा उद्योग में पूँजी के प्रवाह के साथ सामाजिक श्रम की एक मात्रा भी नये कपड़ा उद्योगों की ओर स्थानान्तरित हो गयी। यानी, पुराने टेक्सटाइल उद्योग में जो श्रम लग रहा था वह सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम से ज़्यादा था और उसका एक हिस्सा व्यर्थ हो रहा था, जिसके उत्पाद को बाज़ार में कोई ख़रीदार नहीं मिल रहा था। नतीजतन, सामाजिक श्रम विभाजन, यानी कि सामाजिक श्रम के उत्पादन के अलग-अलग सेक्टरों में आबण्टन भी बदल गया। नये प्रकार के कपड़ा उद्योग के माल की ऊँची क़ीमतें एक प्रकार से समाज द्वारा उसे दिया जाने वाला प्रोत्साहन था, ताकि वह पूँजी और श्रम को पुराने टेक्सटाइल उद्योग से आकर्षित करे और इसके साथ सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के अनुसार श्रम विभाजन को बदले। एक माल उत्पादक समाज में सामाजिक श्रम विभाजन इसी प्रकार से अराजक गति से बदलता है। कुछ मालों को समाज सामाजिक रूप से आवश्यक नहीं मानता है, उनका मूल्य वास्तवीकृत नहीं हो पाता है, वह व्यर्थ हो जाते हैं और उन मालों के उत्पादन के क्षेत्र में लगे श्रम को सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम की मान्यता नहीं प्राप्त होती है। इस तरह यह मूल्य का नियम ही होता है, जो कि एक माल उत्पादक समाज में सामाजिक श्रम विभाजन को निर्धारित करता है और यह तय करता है कि कौन-से श्रम सामाजिक रूप से आवश्यक हैं और कौन-से श्रम सामाजिक रूप से अनावश्यक हैं।

संक्षेप में, मूल्य का मार्क्सवादी श्रम-सिद्धान्त बताता है कि हर वह वस्तु या सेवा माल है, जिसका उत्पादन विनिमय के लिए होता है। अतः माल वह वस्तु या सेवा है जिसका एक उपयोग-मूल्य और एक विनिमय-मूल्य होता है। लेकिन विनिमय-मूल्य वास्तव में कुछ नहीं बल्कि विनिमय होने वाले मालों के मूल्यों का अनुपात होता है और उन्हीं की अभिव्यक्ति होता है। असल चीज़ उपयोग-मूल्य और मूल्य को समझना है। किसी भी माल का मूल्य उसके उत्पादन में लगने वाले अमूर्त श्रम की मात्रा से तय होता है, जिसे सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल में नापा जाता है। मूल्य और कुछ नहीं बल्कि वस्तुकृत या ‘जमा हुआ श्रम’ है। यह मूल्य ही मालों की बाज़ार-क़ीमत का आधार होता है और बाज़ार-क़ीमतें इन्हीं मूल्यों के इर्द-गिर्द मण्डराती हैं, हालाँकि हर माल का मूल्य और उसकी बाज़ार-क़ीमत आम तौर पर बराबर नहीं होती है। इस बात को हम आगे समझेंगे।

मूल्य का श्रम-सिद्धान्त अपने वैज्ञानिक रूप में मार्क्स ने विकसित किया। मार्क्स ने एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के मूल्य के श्रम सिद्धान्त की कमियों-ख़ामियों को दूर किया और स्पष्ट किया कि पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा और कुछ नहीं है, बल्कि मज़दूर वर्ग द्वारा पैदा किये जाने वाले सामाजिक अधिशेष का ही एक रूप है। आगे हम देखेंगे कि एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के मूल्य के श्रम सिद्धान्त की कमियों को मार्क्स ने किस प्रकार दूर किया और किस प्रकार पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के स्रोत को उजागर किया।

(अगले अंक में जारी)

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2022


 

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