एक तो महँगाई का साया, उस पर बस किराया बढ़ाया – मेहनतकशों की जेब पर शीला दीक्षित सरकार का डाका!
बसों के किराये का सबसे ज्यादा असर मेहनतकश आबादी पर
ब्लू लाइन बसों को लगातार मुनाफा, लेकिन सरकार रोये डीटीसी के घाटे का दुखड़ा
हर संकट की गाज मज़दूर-किसानों और निम्नमध्यवर्गीय परिवारों पर ज्यादा पड़ती है। यही हालत इस व्यवस्था के पैदा किये हुए आर्थिक संकट में हो रही है। नेताओं, नौकरशाहों, कंपनियों के सीईओ, मालिकों की सुख-सुविधाओं में कोई कमी नहीं आई है, लेकिन महँगाई की वजह से गरीबों का जीना मुहाल हो गया है। उस पर दिल्ली सरकार द्वारा डीटीसी बसों में किराये की बढ़ोतरी ‘करेला वह भी नीम चढ़ा’ वाले मुहावरे को चरितार्थ कर रही है। और इसका असर भी सबसे अधिक कामगार आबादी पर ही होगा।
कॉमनवेल्थ गेम में अमीरों के लिए सब सरअंजाम जुटाने वाली दिल्ली सरकार आम आबादी की जेब पर सीधा डाका डाल रही है। उसे इस कॉमनवेल्थ गेम्स की जगमगाहट में गरीबों की दुर्दशा नजर ही नहीं आती। यह कॉमनवेल्थ गेम्स आम आबादी के लिए नहीं है और न ही डीटीसी के घाटे का कारण आम आबादी या डीटीसी के साधारण कर्मचारी हैं। मगर इसकी कीमत वे ही चुका रहे हैं।
कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर दिल्ली का चेहरा चमकाने में लगी सरकार कह रही है कि गेम्स में हो रहे खर्चे की उसे वसूली करनी है। सवाल ये उठता है कि इसका खर्च ग़रीब अपना पेट काटकर क्यों भरे? गेम्स का आयोजन किया जा रहा है भारतीय पूँजीपति वर्ग द्वारा दुनिया को अपनी ताकत दिखाने और दुनियाभर से पूँजीनिवेश को आमंत्रित करने के लिए, मगर इसकी गाज गिर रही है मज़दूरों पर।
डीटीसी के किरायों में इस बढ़ोत्तरी का असर सबसे ज्यादा उस निम्नमध्यवर्गीय आबादी और मज़दूरों पर पड़ेगा जो बसो के जरिए ही अपने कार्यस्थल पर पहुंचते हैं। मेट्रो के आने से उनके लिए बहुत फर्क नहीं पड़ा है। क्योंकि एक तो मेट्रो अभी सब जगह नहीं पहुंची है, दूसरा, उसका किराया वे लोग उठा नहीं सकते। और मज़दूरों और निम्नमध्यवर्ग के लोगों की बड़ी आबादी बसों से ही सफर करती है और एक अच्छी-खासी आबादी को रोज काम के लिए दूर-दूर तक सफर करना पड़ता है क्योंकि दिल्ली के सौंदर्यीकरण आदि के नाम पर गरीबों-मज़दूरों की बस्तियों को उजाड़कर दिल्ली के बाहरी इलाकों में पटक दिया गया है। अब कॉमनवेल्थ गेम के नाम पर उन्हें दिल्ली से और दूर खदेड़ा जा रहा है। अब डीटीसी के किरायों में सीधे दोगुनी वृद्धि से हर महीने 12-14 घंटे हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद 2000 से 2600 रुपये पाने वाले मज़दूर को किराये पर ही 600 से लेकर 900 रुपये तक खर्च करने होंगे। जो मज़दूर पहले ही अपने और अपने बच्चों का पेट काटकर जी रहा है, वह अब कैसे जियेगा और काम करेगा ये सोचकर भी कलेजा मुँह को आता है।
वैसे भी डीटीसी के भ्रष्ट प्रबंधन और सरकारी नीतियों का खामियाज़ा गरीब-मेहनतकश आबादी क्यों भुगते। सरकार क्यों नहीं डीटीसी प्रबंधन के भ्रष्टाचार पर रोक लगाती है और क्यों नहीं अपनी नीतियां बदलती है?
लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी क्योंकि ये सभी सरकारें कम्पनियों- कॉरपोरेशनों-मालिकों के इशारे पर नाचती हैं, जो केवल गरीबों का खून चूसकर ही समृद्ध होते हैं। दिल्ली की सरकार समेत देश के तमाम राज्यों की सरकारें और केंद्र सरकार उद्योगपतियों-कारखाना मालिकों के मुनाफे के लिए नीतियाँ बनाती और उन पर सख्ती से अमल करती हैं।
ऐसे में दिल्ली की सरकार यह कभी नहीं स्वीकार करेगी कि डीटीसी के घाटे का कारण डीटीसी का भ्रष्ट प्रबंधन और सरकारी नीतियां हैं। वह कभी नहीं मानेगी कि देशी-विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुँचाने के लिए महँगे दामों पर लो-फ्लोर बसों की खरीद की कोई जरूरत नहीं है। इस कीमत में तीन साधारण बसें खरीदी जा सकती हैं। पिछली दिनों खरीदी गयी 102 लो फ्लोर बसों में से सिर्फ 50 बसें चल रही हैं और बाकी बसें ड्राइवरों-कण्डक्टरों के अभाव में डीटीसी के डिपो में खड़ी हैं। लेकिन ड्राइवरों-कण्डक्टरों की नई भर्ती नहीं की जा रही है, जबकि प्राइवेट बसें भी कम पड़ती हैं।
यही नहीं, जिन रूटों पर ब्लू लाइन बसें अच्छा मुनाफा कमा रही हैं उन बसों पर डीटीसी बसें या तो नदारद हैं या केवल एक-दो बसें हैं। इन रूटों पर डीटीसी बसें न होने कारण उनकी कमी नहीं बल्कि डीटीसी प्रबंधन व निजी बस मालिकों की सांठ-गांठ है। दूसरे सीएनजी की कीमत डीजल से आधी होने के बाद भी खर्च में कमी के बजाय बढ़ोत्तरी कैसे हो सकती है? यह तो या डीटीसी का प्रबंधन ही बता सकता है या फिर दिल्ली सरकार। लेकिन वे भला ये राज़ क्यों खोलेंगे? इसके लिए मेहनतकशों को ही आगे आकर आवाज़ उठानी होगी और लूट के इस पूरे गोरखधन्धे का भण्डाफोड़ करना होगा।
बिगुल, नवम्बर 2009
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन