जाँच समितियाँ नहीं बतायेंगी खजूरी स्कूल हादसे के असली कारण
बिगुल संवाददाता
उत्तर-पूर्वी दिल्ली के खजूरी खास इलाके के राजकीय उच्चतर-माध्यमिक विद्यालय में पिछले 10 सितम्बर को हुए हादसे में छह छात्राओं की मौत हमें उस हादसे के वास्तविक कारणों पर सोचने को मजबूर करती है। सरकार और मीडिया भले ही इस हादसे को संयोग साबित करने की कोशिश करें, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे ”संयोग” प्राइवेट या पब्लिक स्कूलों में नहीं होते। डीपीएस या मॉडर्न स्कूल में ऐसी भगदड़ नहीं होती, न ही उनमें पढ़ने वाले बच्चे इस तरह मरते हैं।
आपको याद होगा कि इस हादसे के बाद आनन-फानन में मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित ने स्कूल का दौरा करके घटनास्थल पर ही मृतकों के लिए एक लाख रुपये और घायलों को 50,000 रुपये देने की घोषणा करके और एक उच्चस्तरीय जाँच समिति गठित करके अपनी ”जिम्मेदारी” का निर्वहन कर दिया था। उसके बाद, जैसा कि उम्मीद थी, जाँच कमेटी और डॉक्टरी जाँच की रिपोर्ट में खुलासा किया गया कि इस भगदड़ का एकमात्र कारण अधयापक एवं प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही था। बस फिर क्या था, रस्म-अदायगी करते हुए विद्यालय के प्रधानाचार्य और दो शिक्षा अधिकारियों को निलम्बित कर दिया गया। इसके बाद सरकार और उसी की बोली बोलने वाली मीडिया ने इसे संयोग साबित करने का प्रयास किया। कुछ हो-हल्ला हुआ और अब मामला लगभग ठण्डे बस्ते में डाला जा चुका है।
वैसे, केवल दिल्ली में नहीं बल्कि, पूरे देश में सरकारी स्कूलों और पूरी शिक्षा व्यवस्था की स्थिति दयनीय है। दिल्ली की ही बात की जाये तो दिल्ली में स्कूल जाने वाले 140 लाख बच्चों में 15 बच्चे स्कूल जा ही नहीं पाते हैं। जितने पहली कक्षा में दाखिल होते हैं, उनमें से 86 प्रतिशत बच्चे दसवीं तक नहीं पहुँच पाते। 30 प्रतिशत बच्चे पाँचवीं तक स्कूल छोड़ देते हैं। मात्र 4 प्रतिशत बच्चे ही दसवीं पास कर पाते हैं। दिल्ली की स्थिति से पूरे देश की स्थिति का अन्दाजा लगाया जा सकता है। कहने को तो, संविधान के अनुसार आजादी के दस सालों के भीतर ही पूरे देश में शिक्षा मुहैया करायी जानी थी, लेकिन हकीकत से आप और हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। यह और बात है कि सरकार ने शिक्षा के अधिकार का कानून बनाया है, लेकिन सब जानते हैं कि ऐसे कानूनों-विधोयकों का नतीजा ढाक के वही तीन पात रहता है।
जिस देश में बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी दुरुस्त नहीं हैं, वहाँ सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति होगी इसका अनुमान किया जा सकता है। वैसे भी सरकारी स्कूलों से मुनाफा नहीं होता, और जिस व्यवस्था की चालक शक्ति ही मुनाफा हो, वहाँ इंसान की जिन्दगी के प्रति संवेदनशीलता की उम्मीद बेमानी है और अन्य बुनियादी सुविधाओं से अलग केवल शिक्षा की स्थिति सुधरने की आशा करना ख़ुद को भ्रम में रखना है। खजूरी खास का हादसा हो या कोरबा में तकरीबन पचास मजदूरों की मौत का मामला; ग़रीबों से जुड़े मामले होने के कारण मीडिया और शासन-प्रशासन थोड़ी बहुत रस्म-अदायग़ी करने के बाद चुप्पी लगा लेते हैं। दूसरी ओर, जेसिका लाल या सौम्या विश्वनाथन की हत्या का मामला हो या एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के बच्चे के अपहरण का मामला, इनमें मीडिया और प्रशासन आसमान सिर पर उठा लेते हैं। इन सब स्थितियों में हर संवेदनशील नागरिक का फर्ज है कि वह इन हादसों की तह तक जाये और अमीरों के तलवे चाटने वाली सरकारों तथा मीडिया की हकीकत से ख़ुद वाकिफ हो और इस पर गम्भीरता से सोचे कि क्या वाकई यह हम ग़रीबों का नसीब है या इसके कारण इस मानवद्रोही व्यवस्था में निहित हैं। दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी द्वारा संचालित लगभग 1746 स्कूलों में से 1628 में आग लगने की स्थिति में सुरक्षा के बन्दोबस्त नहीं हैं। 70 प्रतिशत स्कूलों में पीने के पानी और शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। ज्यादातर स्कूलों में प्रति 100 से अधिक छात्रों पर 1 अधयापक है, बहुतेरे स्कूलों के पास कोई बिल्डिंग भी नहीं है और वे टेण्टो में चल रहे हैं। जिस विद्यालय में यह घटना हुई उसमें भी उस दिन करीब 2600 विद्यार्थी थे। स्कूल के टिन शेड में पानी भर गया था। साथ ही ग्राउण्ड भी पानी से भरा था। बाहर निकलने का केवल एक ही गेट था जिस तक पहुँचने के लिए 2600 बच्चों को 4-5 फुट चौड़ी सीढ़ियों से उतरकर जाना था ऐसे में आज नहीं तो कल यह घटना होनी ही थी।
बिगुल, अक्टूबर 2009
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