Tag Archives: आनन्‍द सिंह

डिलीवरी मज़दूरों के निर्मम शोषण पर टिका है ई-कॉमर्स का कारोबार

ये डिलीवरी मज़दूर अपनी पीठ पर प्रतिदिन 40 किलोग्राम तक का बोझ बाँधकर माल को ग्राहकों तक डिलीवर करने के लिए दिन भर बाइक से भागते रहते हैं। मध्यवर्ग के कई अपार्टमेंटों में तो इन डिलीवरी मज़दूरों को लिफ्रट इस्तेमाल करने तक की इजाज़त नहीं होती जिसकी वजह से उन्हें भारी-भरकम बोझ लिए सीढ़ियों से ऊपर की मंजिलों पर चढ़ना-उतरना होता है। इस कमरतोड़ मेहनत का नतीजा यह होता है कि वे अमूमन कुछ ही महीनों के भीतर पीठ दर्द, गर्दन दर्द, स्लिप डिस्क, स्पॉन्डिलाइटिस जैसी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल के स्पोर्ट्स इंजरी सेन्टर के डॉक्टर बताते हैं कि उनके पास आने वाले मरीज़ों में रोज़ दो-तीन मरीज़ ऐसे होते हैं जो किसी न किसी ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनी के लिए डिलीवरी मज़दूर का काम करते हैं। चूँकि अधिकांश डिलीवरी मज़दूर ठेके पर काम करते हैं इसलिए उन्हें कोई स्वास्थ्य सुविधाएँ भी नहीं मिलती। यही नहीं माल को ग्राहकों तक पहुँचाने की जल्दबाजी में बाइक चलाने से उनके साथ दुर्घटना होने की संभावना भी बढ़ जाती है। दुर्घटना होने की सूरत में भी इन डिलीवरी मज़दूरों को ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनियों की ओर से न तो दवा-इलाज का खर्च मिलता है और न ही कोई मुआवजा।

हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट और बर्बर इज़रायली ज़ायनवादी एक-दूसरे के नैसर्गिक जोड़ीदार हैं!

पिछले साल मोदी के नेतृत्व में हिन्दुत्ववादियों के सत्ता में पहुँचने के बाद से ही इज़रायल के साथ सम्बन्धों को पहले से भी अधिक प्रगाढ़ करने की दिशा में प्रयास शुरू हो चुके थे। गाज़ा में बमबारी के वक़्त हिन्दुत्ववादियों ने संसद में इस मुद्दे पर बहस कराने से साफ़ इनकार कर दिया था ताकि उसके जॉयनवादी भाई-बंधुओं की किरकरी न हो। पिछले ही साल सितंबर के महीने में न्यूयॉर्क में संयुक्‍त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली की बैठक के दौरान मोदी ने गुज़रात के मासूमों के खू़न से सने अपने हाथ को गाज़ा के निर्दाषों के ताज़ा लहू से सराबोर नेतन्याहू के हाथ से मिलाया। नेतन्याहू इस मुलाक़ात से इतना गदगद था मानो उसका बिछुड़ा भाई मिल गया हो। उसने उसी समय ही मोदी को इज़रायल आने का न्योता दे दिया था। गुज़रात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान मोदी पहले ही इज़रायल की यात्रा कर चुका है, लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में यह उसकी पहली यात्रा होगी।

यूनानी जनता में पूँजीवाद के विकल्प की आकांक्षा और सिरिज़ा की शर्मनाक ग़द्दारी

यूनान की बात करें तो सिरिज़ा की सरकार वैसे भी पूर्ण बहुमत में भी नहीं है, बल्कि वह दक्षिणपन्थी राष्ट्रवादी पार्टी अनेल के साथ गठबन्धन चला रही है। चुनाव के पहले गरमा-गरम जुमलों का इस्तेमाल करने वाली सिरिज़ा सरकार में आते ही उसी भाषा में बात करने लगी जिस भाषा में पूर्ववर्ती न्यू डेमोक्रेसी और पासोक की संशोधनवादी और बुर्जुआ सरकार बात करती थीं। उसने सत्ता में आते ही यूरोपीय संघ के साथ समझौता करके जर्मनी के नवउदारवादी एजेण्डे के सामने घुटने टेक दिये। सिरिज़ा की यह समझौतापरस्ती और अब खुलेआम ग़द्दारी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

अमीरज़ादों के लिए स्मार्ट सिटी, मेहनतकशों के लिए गन्दी बस्तियाँ

मोदी सरकार स्मार्ट शहर बनाने की योजना को पूँजीवादी विकास को द्रुत गति देने एवं विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ावा देने की अपनी मंशा के तहत ही ज़ोर-शोर से प्रचारित कर रही है। ग़ौरतलब है कि ये स्मार्ट शहर औद्योगिक कॉरिडोरों के इर्द-गिर्द बसाये जायेंगे। इन स्मार्ट शहरों में हरेक नागरिक को एक पहचान पत्र रखना होगा और उसमें रहने वाले हर नागरिक की गतिविधियों पर सूचना एवं संचार उपकरणों एवं प्रौद्योगिकी की मदद से निगरानी रखी जायेगी। इस योजना के पैरोकार खुलेआम यह बोलते हैं कि निजता का हनन करने वाली ऐसी केन्द्रीयकृत निगरानी इसलिए ज़रूरी है ताकि किसी भी प्रकार की असामान्य गतिविधि पर तुरन्त क़दम उठाये जा सकें। स्पष्ट है कि इस तरह की निगरानी रखने के पीछे उनका मक़सद आम मेहनकश जनता की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखना है ताकि वो अमीरों की विलासिता भरी ज़िन्दगी में कोई खलल न पैदा कर सके। इसके अलावा ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि इन शहरों में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी की मदद से सुविधाएँ प्रदान की जायेंगी, वे इतनी ख़र्चीली होंगी कि उनका इस्तेमाल करने की कूव्वत केवल उच्च वर्ग एवं उच्च मध्यवर्ग के पास होगी। निम्न मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग इन स्मार्ट शहरों में भी दोयम दर्जे के नागरिक की तरह से नगर प्रशासन की कड़ी निगरानी में अलग घेट्टों में रहने पर मज़बूर होगा।

माकपा की 21वीं कांग्रेस : संशोधनवाद के मलकुण्ड में और भी गहराई से उतरकर मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की बेशर्म क़वायद

माकपा के नये महासचिव सीताराम येचुरी अपने साक्षात्कारों में कहते आये हैं कि मार्क्सवाद ठोस परिस्थितियों को ठोस विश्लेषण करना सिखाता है।अब कोई उन्हें यह बताये कि ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण तो यह बता रहा है कि माकपा बहुत तेज़़ी से इतिहास की कचरापेटी की ओर बढ़ती जा रही है। हाँ यह ज़रूर है कि इतिहास की कचरापेटी के हवाले होने से पहले चुनावी तराजू में पलड़ा भारी करने के लिए बटखरे के रूप में बुर्जुआ दलों के लिए उसकी भूमिका बनी रहेगी।

इस्लामिक राजतंत्र और अमेरिकी साम्राज्यवाद के गँठजोड़ ने रचा एक और देश में मौत का तांडव

मार्च के अन्तिम सप्ताह में सऊदी अरब ने अपने दक्षिण-पश्चिम स्थित पड़ोसी मुल्क यमन पर हवाई हमले शुरू कर दिये। इस लेख के लिखे जाने तक सऊदी हमले में 200 बच्चों सहित 1000 से भी ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं जिनमें अधिकांश यमन के नागरिक हैं। इस हमले में अमेरिका एवं ‘गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल’ के अरब मुल्क़ सऊदी अरब का साथ दे रहे हैं। अरब जगत के सबसे ग़रीब मुल्क़ की आम जनता के लिए यह हमला बेइन्तहा तबाही और बर्बादी का मंज़र लेकर आया है। पूरे यमन में खाद्य पदार्थों एवं दवा जैसी बुनियादी ज़रूरतों की अनुपलब्धता का भी संकट मंडराने लगा है।

वियतनाम में मज़दूरों की जुझारू एकजुटता ने ज़ुल्मी हुक़्मरानों को झुकाया

वियतनाम के मज़दूरों की यह हड़ताल इस मायने में महत्वपूर्ण रही कि मज़दूर केवल अपनी फैक्ट्री के मालिक के खि़लाफ़ ही नहीं बल्कि मालिकों के समूचे वर्ग की नुमाइंदगी करने वाली सरकार की नीतियों के खि़लाफ़ एकजुट हुए और उनकी माँगें सामाजिक सुरक्षा जैसे अहम मसले से जुड़ी थीं। वियतनाम जैसे देश में जहाँ मज़दूर आन्दोलन कम ही सुनने में आते हैं, इतनी बड़ी हड़ताल यह संकेत दे रही है कि भूमण्डलीकरण के दौर में नवउदारवादी नीतियों के खि़लाफ़ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मज़दूर वर्ग का गुस्सा स्वतःस्फूर्त रूप से फूट रहा है।

कोल इण्डिया लिमिटेड में विनिवेश

कोल इण्डिया लिमिटेड दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है जिसमें लगभग 3.5 लाख खान मज़दूर काम करते हैं। मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के शेयरों को औने-पौने दामों में बेचे जाने का सीधा असर इन खान मज़दूरों की ज़िन्दगी पर पड़ेगा। पिछले कई वर्षों से भाड़े के कलमघसीट पूँजीवादी मीडिया में बिजली के संकट और कोल इण्डिया लिमिटेड की अदक्षता का रोना रोते आये हैं। इस संकट पर छाती पीटने के बाद समाधान के रूप में वे कोल इण्डिया लिमिटेड को जल्द से जल्द निजी हाथों में सौंपने का सुझाव देते हैं ताकि उसमें मज़दूरों की संख्या में कटौती की जा सके और बचे मज़दूरों के सभी अधिकारों को छीनकर उन पर नंगे रूप में पूँजीपतियों की तानाशाही लाद दी जाये। कोल इण्डिया लिमिटेड का हालिया विनिवेश इसी रणनीति की दिशा में आगे बढ़ा हुआ क़दम है।

औद्योगिक कचरे से दोआबा क्षेत्र का भूजल और नदियाँ हुईं ज़हरीली

देश के विभिन्न हिस्सों में फैले सभी औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक कचरा यूँ ही बिना किसी ट्रीटमेण्ट या रिसाइक्लिंग के आसपास की नदियों या जलाशयों में छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पूँजीपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े के लक्ष्य की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि कारख़ाने के भीतर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने से भी जब उनका जी नहीं भरता तो वे कचरे के ट्रीटमेण्ट में लगने वाले ख़र्च से बचने के लिए तमाम पर्यावरण सम्बन्धी क़ानूनों और कायदों को ताक पर रखकर ज़हरीले कचरे को आसपास की नदियों अथवा जलाशयों में बिना ट्रीट किये छोड़ देते हैं। यही वजह है कि इस देश की तमाम नदियाँ तेज़ी से परनाले में तब्दील होती जा रही हैं।

मोदी सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दामों में निजी पूँजीपतियों को बेचने के लिए कमर कसी

वैसे तो आज़ादी के बाद से हर सरकार ने अपने-अपने तरीक़े से पूँजीपति वर्ग की चाकरी की है, लेकिन अपने कार्यकाल के शुरुआती छह महीनों में ही मोदी सरकार ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिये हैं कि उसने चाकरी के पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त करने का बीड़ा उठा लिया है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लूट के नये-नवेले ऑफ़र दिये जा रहे हैं। एक ओर यह सरकार विदेशी पूँजी को रिझाने के लिए मुख़्तलिफ़ क्षेत्रों में विदेशी पूँजी के सामने लाल कालीनें बिछा रही है, वहीं दूसरी ओर देशी पूँजी को भी लूट का पूरा मौक़ा दिया जा रहा है। पूँजी को रिझाने के इसी मक़सद से अब मोदी सरकार आज़ादी के छह दशकों में जनता की हाड़-तोड़ मेहनत से खड़े किये गये सार्वजनिक उद्यमों को औने-पौने पर बेचने के लिए कमर कस ली है।